मॉर्फीन - 7
मॉर्फीन - 7


लेखक: मिखाइल बुल्गाकव
अनुवाद: आ. चारुमति रामदास
१४ नवम्बर १९१७
तो, मॉस्को के डॉक्टर... के अस्पताल से भागने के बाद (नाम सावधानी से मिटाया गया था) मैं फिर से घर आ गया हूँ. बारिश की भयानक झड़ी लगी है और परदे की तरह मुझसे दुनिया को छुपा रही है. छुपाने दो उसे मुझसे. मुझे उसकी ज़रुरत नहीं है, वैसे ही जैसे मेरी भी दुनिया में किसी को ज़रुरत नहीं है.
गोलीबारी और तख्तापलट से मैं अस्पताल ही में बच गया. मगर इस इलाज को छोड़ देने का ख़याल मॉस्को की सड़कों पर युद्ध होने से पहले ही चुपके से मेरे मन में दृढ़ होता गया. शुक्रिया मॉर्फिन का कि उसने मुझे बहादुर बनाया. किसी भी तरह की गोलीबारी मेरे लिए खौफनाक नहीं है. और, वैसे भी उस आदमी को कौन सी चीज़ डरा सकती है, जो सिर्फ एक ही चीज़ के बारे में सोचता है – अद्भुत, दिव्य क्रिस्टल्स के बारे में. जब नर्स, तोप के गोलों के धमाकों से पूरी तरह डर गई थी...
(यहाँ पृष्ठ फाड़ दिया गया था.)
...दिया इस पन्ने को, ताकि कोई भी वह शर्मनाक विवरण न पढ़ सके, कि कैसे डिग्री प्राप्त आदमी चोरों की तरह और डरपोक की तरह भाग गया और उसने अपना ही सूट चुराया.
सूट की क्या बात है!
कमीज़ तो मैंने अस्पताल की उठा ली. इतना समय नहीं था. दूसरे दिन, इंजेक्शन लेने के बाद, मैं जैसे जी उठा और डॉक्टर एन. के पास वापस आ गया. वह मुझसे दयनीयता से मिला, मगर इस दयनीयता में तिरस्कार भी शामिल था. ये भी बेकार ही में था. आखिर वह मनोवैज्ञानिक है और उसे समझना चाहिए, कि मुझे हमेशा अपने आप पर काबू नहीं रहता. मैं बीमार हूँ. मेरा तिरस्कार किसलिए? मैंने अस्पताल की कमीज़ लौटाई.
उसने कहा:
“धन्यवाद,” और आगे कहा, “अब आपका क्या करने का इरादा है?”
मैंने जोश से कहा (मैं इस समय उत्साह की स्थिति में था):
“मैंने निश्चय कर लिया है कि अपने कोने में चला जाऊंगा, ऊपर से, मेरी छुट्टी ख़त्म हो गई है. आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूँ, सहायता के लिए, मैं अब काफी बेहतर महसूस कर रहा हूँ. अपने अस्पताल में ही इलाज करता रहूँगा.”
उसने जवाब दिया:
“आप बिल्कुल भी अच्छा महसूस नहीं कर रहे हैं, मुझे, वाकई में, हँसी आ रही है कि आप मुझसे ऐसा कह रहे हैं. आपकी आंखों की पुतलियों पर एक नज़र डालना ही काफी है. आप, ये कह किससे रहे हैं?...”
“प्रोफ़ेसर, फ़ौरन तो मेरी आदत छूटेगी नहीं...ख़ास तौर से अब, जब ये सब घटनाएं हो रही हैं....गोलीबारी ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया...”
“वह ख़त्म हो गई है. अब नई सरकार है. फिर से लेट जाइए.”
अब मुझे सब कुछ याद आ गया...ठंडे कोरीडोर,..खाली, दूधिया रंग से पुती दीवारें...और मैं रेंग रहा हूँ, जैसे पैर टूटा हुआ कुत्ता रेंगता है...किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहा हूँ...किसका? गरम पानी वाले स्नानगृह का?...०,००५ मॉर्फिन का. डोज़, जिनसे, सही में, मरते नहीं हैं...मगर सिर्फ...और सारी उदासी रह जाती है, एक बोझ की तरह, जैसे थी...तनहा रातें, वह कमीज़ जिसे मैंने अपने बदन पर फाड़ डाला था, विनती करते हुए, कि मुझे छोड़ दें?...
नहीं. नहीं. मॉर्फिन का आविष्कार किया, उसे स्वर्गीय पौधे के सूखे, खडखड़ाते फूलों से खींचकर, तो, बिना पीड़ा के इलाज करने का तरीका भी ढूंढिए! मैंने जिद्दीपन से सिर हिलाया. अब वह उठा. और मैं अचानक भयभीत होकर दरवाज़े की और भागा. मुझे ऐसा लगा कि वह मेरे पीछे दरवाज़ा बंद करके ज़बरदस्ती मुझे अस्पताल में रोके रखना चाहता है...
प्रोफ़ेसर लाल हो गया.
“मैं कोई जेल का चौकीदार नहीं हूँ,” अपनी चिडचिडाहट वह रोक नहीं पाया, “और मेरे पास कोई बुतीर्का (बस्ती) भी नहीं है. चुपचाप बैठ जाइए. आप शेखी मार रहे हैं, कि पूरी तरह नॉर्मल हैं, दो हफ्ते पहले. और वैसे...” उसने मेरी डरने की मुद्रा को दुहराया, मैं आपको रोकूंगा नहीं.”
“प्रोफ़ेसर, मेरा ‘नोट’ लौटा दीजिये. आपसे विनती करता हूँ,” और मेरी आवाज़ भी दयनीयता से थरथरा गई.
उसने मेज़ की दराज़ में चाभी घुमाई और मेरा लिखा हुआ ‘नोट’ मुझे दे दिया (इस बारे में, कि मैं दो महीने के इलाज का कोर्स पूरा करने का वादा करता हूँ, और मुझे अस्पताल में रोक कर रख सकते हैं वगैरह. मतलब, जैसा आम तौर से होता है.)
थरथराते हाथ से मैंने ‘नोट’ लिया और उसे छुपा लिया, हकलाते हुए कहा:
:
“धन्यवाद.”
फिर उठा, जाने के लिए. और चलने लगा.
“डॉक्टर पलिकोव!” पीछे से आवाज़ आई. दरवाज़े का हैंडल पकडे हुए मैं मुडा.
“बात यह है,” वह कहने लगा, “अच्छी तरह सोच लीजिये. याद रखिये कि आप वैसे भी मानसिक रुग्णालय में जाने ही वाले हैं, खैर, कुछ समय के बाद...और तब आपकी बेहद बुरी हालत हो जायेगी. मैंने तो आपसे एक डॉक्टर की तरह बर्ताव किया. मगर तब तो आप पूरी तरह मानसिक पतन की हालत में होंगे. प्यारे, असल में तो आपको प्रैक्टिस करना मना है और, गौर फरमाइए, कि आपके अस्पताल को इस बारे में सूचित न करना अपराध होगा.”
मैं कांप गया और मैंने स्पष्ट रूप से महसूस किया कि मेरे चहरे का रंग उड गया है (हालांकि, वैसे भी मेरा चेहरा काफी विवर्ण है).
“मैं,” मैंने दबी-दबी आवाज़ में कहा, “आपसे विनती करता हूँ, प्रोफ़ेसर, किसी से भी कुछ भी न कहिये...तब, मुझे नौकरी से निकाल देंगे...मुझ पर ;
‘बीमार’ का तमगा लग जाएगा...आप मेरे साथ ऐसा क्यों करना चाहते हैं?”
“जाइए,” वह झुंझलाहट से चीखा, “जाइए. कुछ भी नहीं कहूंगा. फिर भी आपको वापस ले आयेंगे ...”
मैं निकल गया और, कसम खाता हूँ, पूरे रास्ते दर्द और शर्म से कंपकंपा रहा था...क्यों?...
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बहुत आसान है. आह, मेरे दोस्त, मेरी विश्वसनीय डायरी. कहीं तुम तो मेरा भेद न खोल दोगी? बात ‘सूट’ की नहीं है, बल्कि ये है कि मैंने अस्पताल से मॉर्फिन चुरा ली थी.
क्रिस्टल्स के तीन क्यूब्स और १० ग्राम एक प्रतिशत का घोल.
मुझे सिर्फ इसीमें दिलचस्पी नहीं है, बल्कि कुछ और बात भी है. अलमारी में चाभी लगी हुई थी. खैर, अगर वह नहीं होती तो? क्या मैं अलमारी तोड देता या नहीं? आँ? ईमानदारी से?
तोड देता.
तो, डॉक्टर पलिकोव – चोर है. ये पन्ना मैं फाड़ दूँगा.
मगर, प्रैक्टिस के बारे में उसने कुछ ज़्यादा ही नमक-मिर्च लगा दी. हाँ, मैं पतित हूँ.
बिलकुल सही है. मेरी नैतिकता का पतन शुरू हो चुका है. मगर काम तो मैं कर सकता हूँ, अपने किसी भी मरीज़ का बुरा नहीं कर सकता, उसे नुक्सान नहीं पहुँचा सकता.
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हाँ, मगर चुराया क्यों? सीधी बात है. मैंने फैसला कर लिया कि युद्ध के दौरान, और तख्तापलट से जुडी सारी गडबडी के दौरान, मुझे कहीं भी मॉर्फिन नहीं मिलेगी.
मगर जब सब कुछ शांत हो गया, तो मुझे शहर के बाहर एक और फार्मेसी में भी मिल गई – १५ ग्राम, एक प्रतिशत वाले घोल का, जो मेरे लिए बेकार और उबाऊ है ( नौ सिरींज लगानी पड़ेंगी!). और अपमानित भी होना पडा. फार्मेसी वाले ने ‘सील’ की मांग की, मेरी ओर त्यौरियां चढ़ाकर और संदेह से देखा. मगर फिर दूसरे दिन, जब मैं कुछ सामान्य हो गया, तो मुझे बिना किसी रुकावट के एक अन्य फार्मेसी में क्रिस्टल्स के रूप में २० ग्राम मिल गई – अस्पताल के लिए नुस्खा लिख दिया (साथ ही, बेशक, कैफीन और एस्पिरिन भी लिख दी). हाँ, आखिर, मैं क्यों छुपता रहूँ, डरता रहूँ? वाकई में, क्या मेरे माथे पर लिखा है, कि मैं – मोर्फिनिस्ट हूँ? आखिर, किसी को क्या लेना देना है?
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हाँ, और क्या काफी पतन हो गया है? प्रमाण के तौर पर ये नोट्स पेश करता हूँ. वे टुकड़ों में हैं, मगर मैं कोई लेखक तो नहीं हूँ! क्या उनमें कोई निरर्थक विचार हैं? मेरे ख़याल से, मैं एकदम तर्कपूर्ण विचार करता हूँ.
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