Charumati Ramdas

Others

4  

Charumati Ramdas

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मॉर्फीन - 2

मॉर्फीन - 2

8 mins
380


लेखक: मिखाइल बुल्गाकव 

अनुवाद: आ. चारुमति रामदास 


अध्याय – २

 

एक महीना गुज़र गया, उसके बाद दूसरा और तीसरा भी, सन् ‘१७ गुज़र गया और सन् ‘१८ का फरवरी आ गया. मुझे अपनी नई परिस्थिति की आदत हो गई और धीरे-धीरे अपना दूर-दराज़ का सुनसान कोना भूलने लगा. याददाश्त में केरोसिन का फडफडाता हरा लैम्प, अकेलापन, बर्फ के टीले... धुंधले पड़ने लगे...कृतघ्न! मैं अपनी चुनौतीपूर्ण पोस्ट भूल गया, जहाँ मैं अकेला बिना किसी सहारे के, बीमारियों से जूझता, अपनी शक्ति से, फिनिमोर कूपर के नायक के समान जो अत्यंत विकट परिस्थितियों से बाहर निकलता है.

कभी-कभार, सही में, जब मैं बिस्तर में इस खुशनुमा ख़याल से लेटता कि अब मुझे नींद आ जायेगी, धुंधली पड़ती हुई चेतना में कुछ टुकडे तैर जाते. हरी बत्ती, फडफडाती हुई लालटेन...स्लेजों की चरमराहट...छोटी-सी कराह, फिर अन्धेरा, खेतों में बर्फीले तूफ़ान की सुस्त चीख...बाद में यह सब एक किनारे लुढ़क जाता और खो जाता...

“ताज्जुब है, अब मेरी जगह पर वहाँ कौन बैठा होगा?...कोई न कोई तो होगा ही...मेरे जैसा नौजवान डॉक्टर...तो, क्या हुआ, मैंने अपना वक्त पूरा कर लिया, फरवरी, मार्च, अप्रैल...खैर, मई भी – और मेरे अनुभव का अंत आ जाएगा. मतलब, मई के अंत में मैं अपने इस शानदार शहर से जुदा हो जाऊंगा और मॉस्को वापस लौट जाऊंगा. और अगर क्रान्ति ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया – तो, हो सकता है, और भी कहीं जाना पड़े, मगर हर हाल में अपनी ज़िंदगी में इस दूर -दराज़ के कोने को मैं फिर कभी भी नहीं देखूंगा...

कभी नहीं...राजधानी...क्लिनिक...डामर के रास्ते, रोशनियाँ...”

ऐसा मैं सोच रहा था.

“...मगर फिर भी, अच्छा है कि मैं उस कोने में रहा...मैं बहादुर आदमी बन गया... मैं डरता नहीं हूँ...मैंने किस किस बीमारी का इलाज नहीं किया है?! ...क्या वाकई में? आ?...मानसिक रोगों का इलाज नहीं किया है ... आखिर...सही में, नहीं, माफ कीजिये...और उस समय एग्रोनोमिस्ट ने भयानक पी ली थी...और मैंने उसका इलाज किया और काफी असफल रहा...सफ़ेद बुखार...मानसिक रोग क्यों नहीं? सायकियाट्री पढ़नी चाहिए...खैर, चलो. कभी बाद में मॉस्को में... और अभी, सबसे पहले, बाल-रोगों के बारे में... और खासकर ये बच्चों के कमरतोड़ नुस्खे...फू, शैतान...मान लो, अगर बच्चा दस साल का है, तो, उसका पिरामिदोन का पहला डोज़ कितना होना चाहिए? ०.१ या ०.१५ ?...भूल गया. और अगर वह तीन साल का हो तो?...सिर्फ बच्चों की बीमारियां...और इसके अलावा कुछ नहीं...काफी दिमाग को उलझाने वाले हालात होते हैं! अलबिदा, मेरे कोने! ...और आज क्यों इस दूरदराज़ के कोने की इतने जिद्दीपन से याद आ रही है?...हरी लौ...आखिर मैंने तो ज़िंदगी भर के लिए उससे नाता तोड लिया है...ओह, बस हो गया...सोना चाहिए.”  

“ये एक ख़त है. इत्तेफाक से आया है...”

“इधर दीजिये.”

नर्स प्रवेश कक्ष में खडी थी. उधड़ी हुई कॉलर वाला ओवरकोट सफेद ब्रांडेड एप्रन के ऊपर लपेटा गया था. सस्ते नीले लिफ़ाफ़े पर बर्फ पिघल रही थी.

“क्या आज आप इमरजेंसी रूम में ड्यूटी कर रही हैं?” – मैंने उबासी लेते हुए पूछा. “कोई है तो नहीं?”

“अवव ...(उबासी ने मेरा मुँह पूरा खोल दिया और मैंने इस शब्द का उच्चारण लापरवाही से कर दिया), किसी को लाते हैं...तो आप मुझे यहाँ बता दें....मैं सोने जा रहा हूँ...”

“अच्छी बात है. क्या मैं जा सकती हूँ?”

“हाँ. हाँ. चलिए.”

वह चली गई. दरवाज़ा चीखा, और मैं जूते घसीटते हुए बेडरूम की और चला, रास्ते में लिफ़ाफ़े को बेतरतीबी से और आडा-तिरछा खोलते हुए.

उसमें काफी लंबा, मुडा-तुड़ा फॉर्म था, मेरे ‘कोने’ का, मेरे अस्पताल का नीला स्टाम्प लगा हुआ...अविस्मरणीय फॉर्म...

मैं हँस पडा.

“दिलचस्प बात है...पूरी शाम उस ‘कोने’ के बारे में सोचता रहा, और लो, वह खुद ही अपने बारे में याद दिलाने आ गया...पूर्वाभास.”

स्टाम्प के नीचे पेन से नुस्खा लिखा गया था...लैटिन शब्द, पढ़े नहीं जा रहे थे, कटे-फटे ...

“कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है...घिचपिच नुस्खा है..” मैं बडबडाया और मैंने “morphini” शब्द पर आंखें गड़ा दीं....इस नुस्खे में कौन-सी अजीब बात है?...आह, हाँ...चार प्रतिशत घोल! मॉर्फीन के चार प्रतिशत घोल का नुस्खा भला कौन लिखता है?...किसलिए?!

मैंने पन्ना पलटा, और मेरी जम्हाई गायब हो गई. पन्ने के पीछे स्याही से, सुस्त और घसीटा लिखाई में लिखा था: 

“११ फरवरी १९१८.

प्यारे सहयोगी!

माफ करना कि छोटे-से टुकडे पर लिख रहा हूँ. हाथ के पास कागज़ नहीं है. मैं बहुत गंभीर रूप से और बुरी तरह बीमार हूँ. मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है, और मैं आपके अलावा किसी और से मदद मांगना नहीं चाहता.

दो महीने से मैं आपके पुराने ‘कोने’ में बैठा हूँ, जानता हूं कि आप शहर में हैं, और मुझसे ज़्यादा दूर नहीं हैं.

हमारी दोस्ती की और विश्वविद्यालय में बिताये वर्षों की खातिर आपसे विनती करता हूँ कि मेरे पास जितनी जल्दी हो सके, आ जाएँ. कम से कम एक दिन के लिए ही सही. कम से कम एक घंटे के लिए ही सही. और अगर आप कहेंगे कि मेरी बीमारी लाइलाज है, तो मैं आपका विश्वास कर लूँगा...हो सकता है कि बचना संभव हो?...हाँ, हो सकता है, कि अभी भी बच जाऊँ?...क्या मेरे लिए कोई उम्मीद है? प्लीज़, किसी को भी, इस ख़त के बारे में न बताएँ.”

“मारिया! फ़ौरन इमरजेंसी रूम में जाओ और ड्यूटी-नर्स को मेरे पास आने के लिए कहो...उसका नाम क्या है?...ओह, भूल गया...एक लब्ज़ में, ड्यूटी-नर्स जो अभी-अभी मेरे लिए ख़त लाई थी. जल्दी!”

“अभ्भी.”

कुछ ही मिनट के बाद मेरे सामने खडी थी और ओवरकोट की बिल्ली की खाल वाली उधडी हुई कॉलर पर बर्फ पिघल रही थी.  

“खत कौन लाया था?”

“मैं नहीं जानती. दाढ़ी वाला. वह कोऑपरेटर है. कह रहा था, शहर जा रहा हूँ.:

“हुम्... ठीक है, आप जाइए. नहीं, थोड़ा ठहरिये. मैं अभी प्रमुख डॉक्टर को ‘नोट’ लिख देता हूँ, उसे ले जाइए, प्लीज़, और उनका जवाब ले आये.”

“ठीक है.”

प्रमुख डॉक्टर को मेरा ‘नोट’ :

 “१३ फरवरी १९१८.

आदरणीय पावेल इलरिओनविच. मुझे अभी-अभी मेरे यूनिवर्सिटी के भूतपूर्व कॉमरेड डॉक्टर पलिकोव का पत्र मिला. वह मेरे भूतपूर्व गाँव गरेलव्स्कए में बिल्कुल अकेला है. लगता है कि गंभीर रूप से बीमार है. उसके पास जाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ. अगर इजाज़त दें, तो मैं कल एक दिन के लिए अपना विभाग डॉक्टर रादोविच को सौंपकर पलिकोव के पास चला जाऊंगा. आदमी असहाय है.

सादर,

डा. बोमगर्द”.

प्रमुख डॉक्टर का जवाब:

“आदरणीय व्लादीमिर मिखाइलविच, आप जा सकते हैं.

पित्रोव”.

शाम मैंने रेलवे टाइम-टेबल देखने में गुजारी. गरेलव जाने के लिए मुझे कल दोपहर दो बजे मॉस्को डाक-गाड़ी से तीस मील का सफर तय करके एन. स्टेशन पर उतरना होगा, और वहाँ से गरेलव्स्कए अस्पताल तक बाईस मील स्लेज में जाना होगा.

“किस्मत ने साथ दिया तो मैं कल रात को गरेलव पहुँच जाऊंगा,” मैंने बिस्तर में पड़े-पड़े सोचा, “उसे क्या हुआ है? टाइफाइड, निमोनिया? न ये, न वो...तब वह सीधे-सीधे लिखता: ‘मुझे निमोनिया हुआ है’. मगर यहाँ अप्रिय बात है, कुछ-कुछ झूठा ख़त है... ‘गंभीर रूप से और बुरी तरह बीमार हूँ...’ क्या बीमारी है? सिफलिस? हाँ, बेशक, सिफलिस है. वह खौफ में है...वह छुपा रहा है...वह डर रहा है...मगर, कोई ये तो बताये कि मैं स्टेशन से गरेलव तक कौन से घोड़ों पर जाऊंगा? बुरी बात होगी, स्टेशन तक तो शाम को पहुँच जाओगे, मगर आगे जाने के लिए कोई साधन नहीं...खैर, नहीं. मैं तरीका ढूंढ निकालूँगा. स्टेशन पर किसी न किसी के पास घोड़े ढूंढ लूँगा. उसे टेलीग्राम भेजना होगा कि घोड़े भेज दे! कोई फ़ायदा नहीं. टेलीग्राम मेरे पहुँचने के दूसरे दिन पहुंचेगा...आखिर वह हवा में उड़कर तो गरेलव नहीं पहुंचेगा. स्टेशन पर पडा रहेगा, जब तक कि कोई दुर्घटना नहीं हो जाती. मुझे अच्छी तरह मालूम है ये गरेलव. ओ, उजाड़, सुनसान कोने!” 

फॉर्म पर लिखा हुआ ख़त नाईट लैम्प वाली छोटी-सी मेज़ पर प्रकाश के घेरे में पडा था, और बगल में ही खडी थी चिडचिडाहट भरी अनिद्रा की हमसफ़र, सिगरेट के ठूंठों से भरी, ऐशट्रे. मैं मुडी-तुडी चादर में कसमसा रहा था, और दिल में परेशानी महसूस कर रहा था. वह ख़त मुझे व्यथित करने लगा.

वाकई में: अगर कोई भयानक बात नहीं है, बल्कि मान लीजिये, सिफलिस है, तो वह खुद क्यों यहाँ नहीं आ जाता? मैं ही क्यों इस बर्फीले तूफ़ान में घिसटते हुए उसके पास जाऊँ? क्या मैं एक रात में उसे ठीक कर दूँगा? या फ़ूड-पाइप का कैंसर? अरे, कहाँ का कैंसर! वह मुझसे दो साल छोटा है. वह २५ साल का है...”गंभीर”...सारकोमा? ख़त बेतरतीब है, उन्मादपूर्ण है. ऐसा ख़त जिससे पढ़ने वाले को माइग्रेन हो जाए...और दौरा पड़ने ही वाला है. कनपटी की नस खिंच रही है...सुबह उठोगे, तो नस ऊपर सिर तक खिंच जायेगी, आधा सिर जकड़ लेगी और शाम को कैफीन के साथ पिरामिदोन की गोली गटक लोगे. और पिरामिदोन के साथ स्लेज पर कैसे जा सकते हो? असिस्टेंट से यात्रा के लिए फर-कोट लेना होगा, अपने ओवरकोट में तो जम जाओगे...

“उसे हुआ क्या है? “उम्मीद जागेगी...” – उपन्यासों में ऐसा लिखते हैं, मगर डॉक्टरों के गंभीर खतों में बिलकुल भी नहीं!..सोना है, सोना है...इस बारे में अब और नहीं सोचना है. कल सब पता चल जाएगा...कल.”

मैंने स्विच ऑफ़ कर दिया, और पल भर में अन्धेरा मेरे कमरे को खा गया. सोना है...नस दर्द कर रही है...मगर मुझे एक बकवास ख़त के लिए किसी आदमी पर गुस्सा करने का कोई हक़ नहीं है, ये जाने बगैर कि बात क्या है. आदमी अकेला ही दुःख झेल रहा है, इसलिए दूसरे आदमी को लिख रहा है. खैर, जैसा लिख सकता है, जैसा समझता है...और माइग्रेन के कारण, बेचैनी के कारण उसे ख्यालों में भी बुरा-भला कहना उचित नहीं है. हो सकता है, ये झूठा ख़त नहीं है और न ही कोइ रोमैंटिक ख़त है. मैंने उसे, सिर्योझा पलिकोव को दो सालों से नहीं देखा है, मगर मुझे अच्छी तरह उसकी याद है. वह हमेशा से ठीक-ठाक किस्म का इंसान रहा है... हाँ. मतलब, कोई मुसीबत टूट पडी है...और अब मेरी नस भी बेहतर है...ज़ाहिर है, नींद आ रही है. नींद की प्रक्रिया क्या होती है? फिज़िओलॉजी में पढ़ा था... मगर इतिहास गहराया हुआ है...समझ नहीं पाता, कि नींद का मतलब क्या होता है...दिमाग की कोशिकाएँ कैसे सो जाती हैं?! नहीं समझता, चुपचाप बताता हूँ कि नहीं समझता. न जाने क्यों मुझे विश्वास है कि खुद फिज़िओलॉजी के संकलनकर्ता को भी पक्का विश्वास नहीं है...एक सिद्धांत से दूसरा निकलता है...जैसे सुनहरी बटनों वाली हरी जैकेट में, ये सिर्योझा पलिकोव जस्ते की मेज़ पर झुका हुआ है, और मेज़ पर पडा है एक मृत शरीर...

हुम् , हाँ...मगर ये सपना है...


 

 

 


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