Sudhir Srivastava

Tragedy

4  

Sudhir Srivastava

Tragedy

मैं ही जिम्मेदार

मैं ही जिम्मेदार

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  फोन की घंटी लगातार चीख रही थी।इच्छा न होते हुए भी उसनें फोन रिसीव किया।

 ऊधर से जो कुछ कहा गया, उसे सुनकर उसने माथा पकड़ लिया।आँखों से अश्रु धारा बहने लगी।मन ही मन खुद को कोसने लगी।

"क्या बात है माँ? तुम रो क्यों रही हो?" रीतेश न उसे झकझोरते हुए पूछा

"ललित भाई की तबीयत काफी खराब है।शायद ही बच सकें।अस्पताल से फोन आया था।"

"लेकिन माँ! मामा ने तो कभी अपनी बीमारी के बारे में बताया भी नहीं।"

"किसको बताते बेटा? मुझे सब पता था, मगर तुम्हारी माँ का जिद्दी स्वभाव देख मैं भी चुप रहा, और आज इनकी एक भूल और एकतरफा निर्णय एक भले मानुष की जान लेने वाला है।" रितेश के पापा राजीव ने घर में घुसते हुए कहा

"मगर मैंनें किया क्या?" शीला चकित सी हो उठी

"तुमनें जो किया, बिल्कुल अच्छा नहीं किया। ललित भाई की इस दशा के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। रिश्ता जोड़ना कठिन है। निभाना बहुत मुश्किल। तुम गलतफहमी का शिकार बनी रही। लेकिन उन्होंने उस रिश्ते को सम्मान दिया। उनको कभी कुछ कहना, बताना तो दूर बात तक बंद कर दिया। आज अगर तुम जीवित हो, तो सिर्फ ललित भाई की वजह से। उन्होंने तुम्हारे भाई कहने का अहसास इतना था कि जब तुम्हारे भाइयों ने खून देने से मना कर दिया था।अस्पताल न आने का बहाना बनाने लगे थे। विवश होकर मैंने जब उन्हें बताया तब बिना किसी तर्क वितर्क के ललित भाई ने ही तुम्हें अपना खून देकर तुम्हें बचाया था। यही नहीं उन्होंने तुमसे इस बारे में कुछ भी न बताने की सौगंध भी दी थी।

मुझे उनकी बीमारी का पता है। तुम रोज यही कहती थी न कि आजकल मैं क्यों देर में आता हूँ। तो सुनो! मैं उनके पास रोज दोनों समय जाता हूँ। अपने दोस्तों और उनके अन्य शुभचिंतकों की मदद से उनकी पूरे समय देखभाल हो रही है। वहाँ का दृश्य देखकर लगता ही नहीं कि उनका इस दुनियां में उनका कोई है ही नहीं। पुरुषों की बात छोड़ भी दो तो महिलाओं, बुजुर्गों, युवाओं तक की लगातार उनसे मिलने आने वालों का सिलसिला टूट ही नहीं रहा है। तन, मन, धन से लोग उनकी जान बचाने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं। एक बुजुर्ग महिला ने तो अमेरिका से उन्हे मैसेज किया कि बिना कुछ सोचे कैसे भी अमेरिका आ जायें, बाकी वे संभाल लेंगी।परंतु अब उम्मीदें टूट चुकी हैं।शायद तुम्हारे दिए जख्म नासूर बन गए।मुझे कभी रात उन्होंने रुकने नहीं दिया, सिर्फ इसलिए कि तुम्हें कुछ भी न पता चले। क्योंकि वे तुम्हें अपराध बोध का अहसास नहीं कराना चाहते थे। जबकि तुम्हें भी पता है कि इस दुनिया में उनका भावनाओं से जुड़े अपनों के सिवा कोई नहीं है। वो हमेशा औरों के लिए जीते रहे हैं।"

"मगर आपने तो कभी चर्चा भी न की।" शीला ने शिकायत भरे लहजे में कहा।

"तुमसे चर्चा करने का कोई मतलब नहीं था।वैसे भी ललित भाई ऐसा ही चाहते थे। क्योंकि तुमने राखी के धागों की आड़ में जो जख्म उन्हें दिए हैं। उन जख्मों को मैं भी कुरेदने में असहज ही नहीं शर्मिंदा भी महसूस करता रहा।"          

लेकिन आज जब डाक्टर ने बताया कि बस अब आपका मरीज तेजी से मौत की ओर भाग नहीं दौड़ रहा है, तो मै हिल गया। मैंने ही डाक्टर से तुम्हें फोन कराया था । गहरी सांस लेते हुए राजीव ने बताया कि हम दोनों अक्सर मिलते रहे।

मगर तुम्हारी उपेक्षा के कारण ही वे बीमार रहने लगे। लेकिन मुझे सौगंध के धागे में बांधकर मौन रहने के लिए विवश भी करते रहे। उनका दर्द मैंने महसूस किया, तो उनकी सोच को नमन करने करने को बाध्य हो गया।जो खुद के लिए कभी जिया ही न हो, उस पर लांछन लगाना ही पाप है। सच तो यही है कि तुमसे उनका रिश्ता तब समझ में आया, जब वो खुद चलकर तुमसे राखी बंधवाने आये थे।तुमसे काफी बड़े हैं, लेकिन तुम्हारे पैर छुए थे। तुम्हारा पति होने के कारण ही वो मुझे भी अपने सगे बहनोई से कम नहीं समझते थे। हमारे आपसी तालमेल तो आज भी बेहतर हैं। लेकिन तुम्हारे मन में न जाने कौन सा कीड़ा रेंगने लगा कि तुमने तो उनसे बात तक करना बंद कर दिया, उनका फोन नहीं उठाती, मैसेज का जबाब तक नहीं दिया। रिश्तों की मर्यादा और तुम्हारी खुशी की खातिर उन्होंने मौन धारण कर लिया। कारणों से आज भी वो अंजान हैं, जब शायद उनका अंतिम समय तेजी से उनकी ओर बढ़ रहा है।मुझे भी तुम गोल गोल घुमाती रही। अब तो तुम्हें सूकून आ गया न। कहते कहते राजीव रो पड़े।शीला के मुँह से बोल तक न निकले।तब रजत ने कहा-"पापा! अब मम्मी को क्या करना चाहिए?"

"अब कुछ करने को शेष नहीं है बेटा।अगर तुम्हारी मम्मी चाहती हैं कि उनका अपराध कुछ कम हो तो एक बार अस्पताल जाकर उनसे आखिरी बार मिल ले।बचेंगे तो नहीं, मगर शायद सूकून से मर तो सकेंगे ही।"

रजत ने माँ को संबोधित करते हुए कहा-"अब अगर आपको कुछ समझ में आ रहा हो तो अभी मेरे साथ चलो। पापा तो तुम्हें ले जाने से रहे। वरना मैं पापा के साथ निकलूँ। मुझे तो जाना ही है।"

"चलो बेटा! मैं भी चलती हूँ।जेड शीला उठ खड़ी हुई।

अस्पताल में ललित को देख उसका कलेजा मुंह को आ गया। वह ललित के पास पहुंच कर उससे लिपट कर रो पड़ी। कुछ ही पलों में उसे अनहोनी सी महसूस हुई। जो सच भी थी, क्योंकि ललित के शरीर से प्राण पखेरू उड़ चुके थे।ललित की मौत की जिम्मेदार खुद को मानने और पश्चाताप के सिवा अब शीला के पास कोई रास्ता भी न था।

राजीव, रजत के अलावा भी वहाँ उपस्थित हर शख्स किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रह गया। 



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