मैं एक आवारा पंछी
मैं एक आवारा पंछी
उन्मुक्त हूं, मैं न मानूं कोई बंदिशें,
रूक ना पाऊं टिक ना पाऊं,
न झेलूं किसी की रंजिशें।
इठलाऊं - इतराऊं, अपनी ही राग गाऊं,
जो चाहूं सो ना मिले,
तो दुनिया से लड़ जाऊं।
मैं एक आवारा पंछी, मैं तो तेरा मन हूं।
वीर भोग्या वसुंधरा !
समरथ को नहीं दोष गुसाईं।
है इच्छा तो अभाव है,
नहीं इच्छा सब कुछ पाई।
जैसी दृष्टि वैसी मन, कहे पा ले करो जतन,
अपनी डफ़ली अपनी राग,
सब बंद कर अब तो जाग।
नजर टिका तुम गुरु पर,
क्या कोई गंदगी को भी है,
जी भर के देखता है ?
फिर भी अगर तेरी नजर ना बदली,
तू बस ! तू होगा ! आवारा पंछी।
यह पंछी कभी ना बूढ़ा- बच्चा होए,
यह रहे सदा युवा मान।
नीच बनाता ,पतित कराता,
दिलवाता अपमान,
कितनी करूँ बुराई इसकी,
इसे मत तू अपना मान।
अब हम अपनी रामकहानी शुरू करते हैं। मोहन और शशि दो मित्र हैं। दोनों की उम्र अभी 75 वर्ष है। कहने को तो दोनों मित्र हैं परंतु बहुत मुश्किल से ही मिल पाते हैं।
क्योंकि दोनों की समस्याएं और दोनों की दिनचर्या अलग-अलग है। मोहन के पास समय की कमी नहीं है। उसके पास अब पर्याप्त वक्त है। क्योंकि उसके दैनिक कार्यों के अलावा और कोई कार्य शेष न बचा है। उसके बेटे -बहुओं ने घर गृहस्थी संभाल ली है। वैसे मोहन काफी कर्मठ है। घर बाहर के जो कुछ भी काम होते हैं ।यदि वह अपने को समर्थ पाता है ,तो वह अवश्य ही उसे पूरा करता है। वह कहता है शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें अवश्य ही कुछ शारीरिक कार्य करते रहना चाहिए।
आज 30 वर्ष बीत गया। तब मोहन 45 वर्ष का था। उसकी पत्नी की मृत्यु किसी बीमारी की वजह से हो गई थी। कुछ ही महीने बाद मोहन के रिश्तेदारों और दोस्तों ने उसे दोबारा विवाह करने के लिए कहने लगे। परंतु मोहन दो टूक जवाब देता था।
"आप मेरी चिंता ना करें। अगर मुझे कभी ऐसी ही फीलिंग होगी । तो मैं आपसे अवश्य बताऊंगा।"
परंतु उसका मित्र शशि अपनी बात मनाने से बाज नहीं आता था। वह उसे बहुत समझाता था।
"मित्र ! अब तुम्हारी पत्नी के ना होने के बाद दुनिया में अगर कोई तुम्हारा शुभचिंतक है। तो वह मैं हूं। क्यों घर गृहस्थी में परेशान रहते हो ? यह सब काम मर्दों के बस का नहीं है। चूल्हा फूंको ! और बच्चों की सेवा करो। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है?
विवाह कर लो, तो तुम्हें पत्नी और तुम्हारे बच्चों को मां मिल जाएगी। घर स्वर्ग बन जाएगा। कहते हैं कि
" बिन गृहिणी घर भूत का डेरा"
इतना सब कुछ तुम कैसे कर लेते हो ? खाना पकाना, कपड़े धोना ,फिर खेतों में काम भी करना, मैं तो बस इसे सोच कर ही कांप जाता हूं। अगर मेरे साथ ऐसा हुआ होता ,तो मैं तुम्हारी तरह जिंदगी नहीं जी पाता।"
" कोई बात नहीं मित्र ! सबकी सोच अलग - अलग होती है। मैं तुम्हारी तरह इतना नहीं सोच पाता हूं । मैं भी कर्म और पुरुषार्थ में विश्वास करता हूं। परंतु यदि मेरे लिए यह हमारे कर्मों का ही कोई परिणाम हो तो, हम इसे भुगत कर ईश्वर के न्याय में सहयोग ही कर रहे हैं।
बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख। जितना सुख मेरे भाग्य में है ।वह मुझे अवश्य ही प्राप्त होगा।"
"परंतु मित्र ! तुम्हारी अपनी इच्छाओं और खुशियों का क्या होगा ? इस तरह आज से ही विधुर जीवन कैसे काट सकोगे ? कुछ और उम्र बीत जाएगी ,तो यह अवसर भी हाथ से निकल जाएगा। फिर तुम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकोगे। अभी वक्त रहते अपने निर्णय पर अच्छी तरह विचार कर लो।"
पर इन सब बातों का मोहन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ ।उसने अपना मन पक्का बना रखा था। इसी तरह 15 वर्ष बीत गए अब मोहन के दोनों बेटे बड़े हो गए थे। और उन्होंने घर परिवार की जिम्मेवारी पूरी तरह से संभाल ली थी। उसके दोनों बेटों का विवाह भी हो चुका था। बहुओं ने घर की जिम्मेवारी भी अच्छी तरह संभाल लेती है। अब मोहन का जीवन सुखमय और आनंदमय था।
फुर्सत के क्षणों में वह अपने आध्यात्मिक ज्ञान को परिपक्व करता, खुद चिंतन मनन करता और अपने दोस्तों को भी बताता था। शशि के अलावा अन्य कई चिंतनशील और सज्जन पुरुष भी उसके मित्र थे ।सब आपस में इस जीवन के हर पहलुओं और इसकी सद्गति पर चर्चा करते और अपना अनुभव एक दूसरे को बांटते थे।
अब इस उम्र में जब शशि 60 वर्ष का था। उसकी पत्नी स्वर्ग सिधार गई। शशि पर तो मानो पहाड़ ही टूट गया। वह एकदम विचलित सा हो गया। अब उसे अपना जीवन नीरस लगता था। उसके बेटे- बहुएं ,रिश्तेदारों और मित्रों ने उसे समझाया बुझाया, परंतु उसकी उदासी और गम कम नहीं हुआ। एकदम दुखी और परेशान रहता था।
एक दिन मोहन और शशि दोनों बगीचे में बैठे थे । शशि चिंतित था। शशि को चिंतित देकर मोहन भी उदास हो गया । आत्मीयता से उसे पूछा -
" मित्र जीवन मरण तो दुनिया का सत्य है ।इस उम्र में भी पत्नी से बिछड़ने का इतना दुख क्यों है ? आगे पीछे तो सबको जाना ही है। तुमने पूरे जीवन का आनंद लिया। तुम्हारे घर में पोते- पोती बेटे- बहुएं भरे पड़े हैं ।अब और तुम्हें क्या चाहिए ? खाओ- पीयो और चैन से बची- खुची जिंदगी का आनंद लो।"
परंतु इन सब बातों से शशि का दुख कम नहीं हुआ। उसने अपनी मन की बात मोहन को बताया।
"मित्र मेरे पास धन-धान्य, बंधु- बांधवों ,परिवार, बेटा -बेटी 'नाती -पोतों की कोई कमी नहीं है। फिर भी मेरा जीवन एकाकी और निराशाजनक है ।बिना जीवनसाथी के यह जीवन यात्रा मैं पूरी करने में असमर्थ हूं। अब बिल्कुल ही सहन नहीं हो रहा है। एक ने तो बीच मझधार में मेरा साथ छोड़ दिया । अब मैं दूसरी जीवनसाथी चाहता हूं।"
"परंतु मित्र विवाह और वह भी इस उम्र में ? मैं तो तुम्हें इस बात की सलाह कभी नहीं दूंगा आज से पन्द्रह
साल पहले मेरी पत्नी स्वर्गवास कर गई थी। मुझे देखो ! मैंने अपने जीवन में कैसा तालमेल बिठाया है ? तुम्हारे लिए विवाह करना सोचना ,उचित नहीं है।"
"तुम अपनी बातों को मेरे ऊपर लागू मत करो। मैं तुम्हारे जैसा घुट -घुट कर जीने वाला नहीं हूं। मैं उन्मुक्त जीना चाहता हूं ।यह जिंदगी दोबारा नहीं मिलने वाली है।
जब तक सांस तब तक आस।
मैंने पूरा मन बना लिया है। बस मैं यह चाहता हूं। कि यदि तुम कर सकते हो तो हमारे बेटों से इस विषय पर बात करो।"
"नहीं मित्र ! यह सब मुझसे नहीं हो सकेगा। इसके लिए तुम्हें खुद ही बात करनी पड़ेगी। अब यदि तुमने निर्णय ले हीं लिया है ? तब फिर शर्म किस बात की ?"
इस प्रकार शशि ने अपने बेटों और बहुओं की सहमति के बिना अपना विवाह करने को ठाना। समाज में कई तरह के लोग हैं। किसी ने उसको मना किया तो किसी ने उसका मनोबल भी बढ़ाया। अन्तोगत्वा शशि का रिश्ता उसकी बेटे से भी कम उम्र की लड़की राधा से तय हुआ । राधा के माता -पिता बहुत ही गरीब थे। उनको अपनी रोजी-रोटी और संसाधनों का बहुत अभाव था। शशि की जमीन- जायदाद और उसके संसाधनों को देखकर राधा के पिता ने अपनी बेटी का बेमेल विवाह करना मंजूर किया।
शशि के बेटों ने उसके साथ एक घर में रहने पर असहमति जताई । बेटों ने कहा अगर आपको दूसरा विवाह करना है। तो हम इस घर में नहीं रहेंगे। अपनी मान प्रतिष्ठा की हनन से तो अच्छा है । कि हम आप से दूर रहें। अब हमें अपने बच्चों का शादी - ब्याह करना है। तो आप इस उम्र में ऐसा नया बखेड़ा शुरू कर रहे हैं ।लोग जानेंगे तो क्या कहेंगे ? इस तरह शशि के परिवार के लोग गांव छोड़ कर चले गए।
अब एक नया परिवार शुरू हुआ। शशि का विवाह संपन्न हुआ। अपनी पत्नी के साथ वह आनंद से रहने लगा। कुछ ही वर्षों में उसके आंगन में दो बेटियों की किलकारियां गूंजने लगी। अब शशि नामक आजाद पंछी एकदम पिंजरे का पंछी बन गया। जिन जिम्मेदारियों से वह मुक्त हो चुका था । आज फिर वह सारी उसके गले पड़ चुकी थी। अब उसका नशा टूट चुका था। अब उसे महसूस होता था। वह विवाह करके शायद उसने गलती कर दी।
इसी तरह पन्द्रह साल और बीत गए। राधा को भी अब शशि की बातें अच्छी नहीं लगती थी। अब वह पूरी तरह घर की मालकिन बन गई थी। घर में राधा और उसकी बेटियों के लिए शशि का अब कोई विशेष महत्व नहीं रह गया था। क्योंकि अब वह कुछ भी शारीरिक कार्य नहीं कर पाता था। उसके घर में अब केवल उसके संसाधन ही उत्पादकता के साधन मात्र थे।
अब उसे महसूस होता था उसे इस तरह सामाजिक बंधनों को नकारना नहीं चाहिए था। अपने बेटों और बहुओं की राय को माननी चाहिए थी।
इंसान को क्षणिक आवेश और सुख बस कोई काम नहीं करना चाहिए। जिसका अंतिम परिणाम सुखद नहीं हो।
हम अपने सारे कार्य सुख के लिए ही करते हैं। कोई भी इंसान दुखी होना और कष्ट पाना नहीं चाहता है। जीवन के हर कार्य का उद्देश्य सुख प्राप्ति ही है। पर जितना हम अपने कष्टों से और दुखों से पार पाना चाहते हैं मछली की तरह उतना ही उलझते जाते हैं। इंसान सुख की आस में अपना संतति और परिवार बढ़ाता चला जाता है। परन्तु यदि उसके पास यदि आत्मिक शांति नहीं ,हो तो उसे कहीं भी सुख नहीं मिल पाता है।
बस मृग- मरीचिका की तरह वह पूरा जीवन सुख की खोज में भटकता रहता है। परन्तु उसे हासिल कुछ भी नहीं होता है।
अत: हमें सच्चे सुख और उसके मार्ग को समझना होगा। तभी हम ईश्वरीय-अलौकिक आनंद की प्राप्ति कर सकते हैं। आजाद पंछी बनने के चक्कर में हम जन्मो- जन्मो तक इसी तरह जन्म-मरण, सुख -दुख ,लाभ- हानि, यश- अपयश, मान- सम्मान, रुप- रस, शब्द- स्पर्श, गंध - बंध आदि के चक्कर में पड़ कर
अपमानित होते और कष्ट भोगते रहते हैं।
क्रमश :-
यह दुनिया की गाथा, देख सुनकर बहुत कम लोग सीख पाते हैं, सुनी सुनाई बात लोगों के मन में उतरती नहीं है। जब तक वे उसका अनुभव नहीं कर ले।
हमारे यहां एक कहावत कही जाती हैं ।कम बुद्धि वाले लोगों को पैर में यदि गंदगी लग जाए। तो वे उंगली में लगाकर अपनी नाक से सटाकर सूंघते हैं।
इस तरह एक जगह की गंदगी तीन जगह लग जाती है। मतलब की केवल आंखों से और विचार से उनको बौद्ध -ज्ञान नहीं होता है।