Prabodh Govil

Others

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मैं और मेरी जिंदगी -13

मैं और मेरी जिंदगी -13

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जब घर से बाहर निकलता तो गर्मी हो, सर्दी हो, या बरसात हो, एक ताज़ा हवा आती थी।

अब मैं किसी बंधन में नहीं था। न सपनों के, न उम्मीदों के, और न ही निर्देशों के !

अब मेरे ऊपर किसी की कोई जवाबदेही नहीं थी। मैं होरी और गोबर की तरह खेतों में भी विचर सकता था, चन्दर की तरह विश्व विद्यालय के अहाते में भी। काली आंधी मेरे आगामी अतीत के मौसम को खुशगवार बनाती थी। मुझे सूरजमुखी अंधेरे के भी दिखते थे। ज़िन्दगी को कोई रसीदी टिकिट देने की पाबंदी नहीं थी। मधुशाला भी दूर नहीं थी। कोई शेष प्रश्न नहीं।

मेरी जीवनी मेरी ही थी, शेखर की तरह। मेरे सामने सारा आकाश था। मेरी ज़िन्दगी अनाम दास का पोथा बन कर मेरे हाथों में थी। मानो कामायनी एक नई दुनिया रचने के लिए एक बार फ़िर से मेरे साथ थी। इसे मैंने छुट्टियों में एक बार फ़िर पढ़ा और प्रसाद जी को याद किया।

अपनी राख के ढेर पर खड़े होकर मैंने कहा - इदन्नमम !

अब मैंने पक्का निश्चय मन ही मन कर लिया कि मैं अब बी ए करूंगा और अपने विषय पूरी तरह बदल डालूंगा।

मैं प्रवेश का फॉर्म हाथ में लेकर विश्वविद्यालय के राजस्थान कॉलेज में पहुंच गया। फॉर्म भरने के साथ ही वहां पहले से मौजूद कुछ ऐसे मित्रों से बातचीत हुई जो मेरे ही विद्यालय से वहां आए थे और आर्ट्स के छात्र होने पर भी मेरी स्कूल गतिविधियों और उपलब्धियों से भली प्रकार परिचित थे।

मैंने उनसे कॉलेज के शिक्षकों, सुविधाओं और विषयों के बारे में भी जानकारी ली।

मैं बनिया परिवार से था। अर्थ और अर्थव्यवस्था मेरी रुचि की बातें थीं। मैंने फॉर्म में पहला विषय इकोनॉमिक्स भर दिया। यद्यपि मुझे कहा गया कि ये एक कठिन विषय है, जिसे आर्ट्स की फिजिक्स कहते हैं। इसमें आगे जाकर स्टेटिस्टिक्स भी आ जाती है, जिसमें गणित है, और गणित में दक्षता होने पर इसमें अच्छे अंक आते हैं। मैंने ये सभी बातें एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दीं। पर अर्थशास्त्र विषय को चुन लिया।

लोग अब भी यही समझते थे कि मैं आर्ट्स में आ रहा हूं तो शायद प्रशासनिक सेवाओं में जाने के इरादे से ही आ रहा हूं। कुछ लोगों ने सलाह दी कि इतिहास विषय स्कोरिंग होता है और प्रशासनिक सेवा परीक्षा में लोग इसे काफ़ी संख्या में चुनते हैं। मैंने इतिहास की जगह राजनीति शास्त्र के बारे में पड़ताल की।

मुझे मालूम हुआ कि राजनीति शास्त्र विषय काफ़ी सब्जेक्टिव है इसलिए अंक अच्छे नहीं देता,किन्तु कुछ ही वर्षों से इसी विषय की एक शाखा लोक प्रशासन के रूप में अलग विषय के रूप में जोड़ी गई है जिसे छात्र आजकल पसंद करते हैं। यह स्कोरिंग भी है और थोड़ा सा ऑब्जेक्टिव भी है।

साथ ही ये भी बताया गया कि नया विषय होने से इसमें पाठ्य सामग्री नहीं उपलब्ध है तथा क्लास नोट्स के ऊपर ही अवलंबित रहना पड़ता है।

इसे उलटने पलटने से मुझे इसमें कुछ दिलचस्पी जागी और दूसरे विषय के रूप में मैंने इसे ही चुन लिया।

तीसरे विषय के रूप में मैंने साहित्य लेने का निश्चय किया। मैं अंग्रेज़ी लिटरेचर लेना चाहता था किन्तु एक मित्र के पास हिंदी साहित्य का सिलेबस देख कर मैं उसे भी सरसरी निगाह से देखने लगा। पाठ्यक्रम में अधिकांश लेखक ऐसे थे जिन्हें मन बहलाव या समय काटने के उद्देश्य से मैं पहले ही पढ़ चुका था।

कुछ सोचकर मैंने तीसरा विषय हिंदी साहित्य चुन लिया।

दो दिन बाद जब मैं घर जा रहा था तो मन में ये उलझन थी कि शायद मेरे पिता मुझे कहेंगे, मुझे अंग्रेज़ी साहित्य लेना चाहिए था।

लेकिन मेरे आश्चर्य का पारावार न रहा जब पिताजी ने कहा - दो लिटरेचर एक साथ लेने की अनुमति नहीं है, तुमने अच्छा किया जो हिंदी साहित्य ले लिया, अब शौकिया तौर पर अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने से तुम्हें दोनों भाषाएं मिल भी जाएंगी और हिंदी में तुम अच्छा स्कोर भी कर लोगे।

तो पिताजी मन ही मन मेरे कैरियर के प्रति अब भी मनोयोग से सोच रहे थे ? मुझे कुछ अपराध बोध सा हुआ कि मुझे फॉर्म में विषय भरने से पहले पिताजी की सलाह लेनी चाहिए थी। खैर, उन्होंने मेरे निर्णय पर सहमति की मोहर लगा कर मेरे बोझ को कम कर दिया था।

कुछ दिन घर रह कर मैं अपने नए कॉलेज में आ गया। यहां मेरे एक नुकसान की भरपाई इस तरह हुई कि मुझे सीधे सैकंड ईयर में प्रवेश मिल गया। क्योंकि उस समय के प्रावधान के अनुसार मैं अनिवार्य विषय तो साइंस के साथ ही पास कर चुका था,वो भी काफ़ी अच्छे नंबरों से। इसलिए वो विषय अब दोबारा लेने की जरूरत नहीं थी, और सीधे द्वितीय वर्ष के पेपर्स के साथ में फर्स्ट ईयर वाले ऐच्छिक विषयों की परीक्षा ही मुझे देनी थी।

इस तरह ज़िन्दगी की दौड़ में मेरी उम्र के बटुए से गए दो सालों में से एक मुझे वापस मिल गया।

नई क्लास में नए मित्र थे। जो कुछ पुराने थे, वे या तो सीनियर थे, या अलग अलग विषयों में छितराए हुए।

लड़के कहते थे कि मैंने अर्थशास्त्र और साहित्य का जो कॉम्बिनेशन ले लिया है उसे लोग बहुत कम ही लेते हैं, इसलिए मेरे बहुत से मित्र अलग चले गए थे।

ये कोई गंभीर बड़ा मसला नहीं था, क्योंकि मित्र बनाने में मुझे ज़्यादा देर नहीं लगती थी।

यद्यपि ज़िन्दगी ने बाद में ये भी सिद्ध किया कि हम लोगों को परिचित बनाते हैं, मित्र नहीं। मित्र तो इने गिने ही मिलते हैं और वो भी किस्मत से !

मेरा वो मित्र भी इस बीच इन दिनों मुझे मिला जो वैसे तो मुझसे बड़ा था,पर उसके माता पिता न रहने के कारण मैं उससे हमदर्दी भी रखता था,और कभी कभी उसके कमरे पर भी चला जाता था।

अब उसकी बारी थी। शायद मेरी जीवन धारा में आए मोड़ के कारण वो मुझसे हमदर्दी रखने लगा था। उस दिन उसका व्यवहार बिल्कुल बदला बदला सा था।

हम दोनों ने साथ में जाकर एक फ़िल्म देखी। टिकिट भी उसने ख़रीदा और मुझे अपने साथ अपनी सायकिल पर बैठा कर वो ही लेकर गया। सिनेमा घर उसके घर से काफ़ी दूर था। शाम का शो देख कर रात को जब हम बाहर निकले तो उसने प्रस्ताव रखा कि हम खाना भी बाहर ही खाएं।

थोड़ी सी ना नुकर के बाद मैं इसके लिए तैयार हो गया।

हमने एक अच्छे से रेस्टोरेंट में खाना खाया।

जब खाने के पैसे देने की पेशकश उसने की तो मैं एक बार उससे पूछ बैठा - आज तेरा जन्मदिन तो नहीं?

पर ऐसा नहीं था।

हमें अपनी कॉलोनी में लौटते लौटते लगभग दस बज गए।

वह मुझसे कहने लगा कि मैं आज उसके साथ उसके कमरे पर ही ठहर जाऊं।

मैं अपने बड़े भाई या भाभी की अनुमति के बिना कभी इस तरह घर से बाहर रात को रुकता नहीं था, किन्तु उस दिन शायद मेरे मन में अपनी निराशा से उपजा विद्रोह भाव था, या फ़िर मेरे प्रति सहानुभूति का मेरे मित्र का अतिरिक्त आत्मीय भाव... उसने मुझे रात को अपने कमरे पर ही सो जाने के लिए मना लिया।

हम दोनों उसके कमरे पर आ गए। उसके कमरे का प्रवेश बाहर से ही होने के कारण उसके रिश्तेदारों के किसी तरह डिस्टर्ब होने का सवाल वैसे भी नहीं होता था, पर वहां पहुंच कर उसने बताया कि आज वहां कोई है भी नहीं। सभी लोग किसी कार्य से शहर से बाहर गए हुए थे।

इतने बड़े घर में हम दोनों ही वहां थे और सोने से पहले मुख्य द्वार पर ताला लगाने की ज़िम्मेदारी भी उसी की थी।

हम दोनों घर को बंद करके उसके कमरे में आ गए।

उसने कपड़े बदलते हुए, मुझसे भी कहा कि मैं भी कपड़े बदल कर उसके कोई पुराने कपड़े पहन लूं ताकि सोने में किसी तरह अ सुविधा न हो।

मौसम गर्म ही था। जयपुर में बारिश कम होने के कारण बरसात का मौसम भी गर्मियों जैसा ही होता था।

मेरे मित्र ने बिल्कुल अनौपचारिक होकर बनियान और अंडरवियर ही पहन रखा था, वो मुझसे भी इसी तरह सोने के लिए कहने लगा।

पर मुझे इसमें संकोच होता था क्योंकि मैं नाड़े वाली चड्डी से बचने के लिए इलास्टिक वाला छोटा वी शेप अंडरवियर पहनता था।

उसने मुझे भी अपना जैसा कपड़े का सिला नाड़े वाला अंडरवियर दिया तो मैं इनकार नहीं कर सका, क्योंकि डोरी से अपनी एलर्जी या अरुचि को खत्म करने के लिए कभी कभी इसका प्रयोग करने की कोशिश मैं चोरी छिपे किया करता था। मैंने भी अपना अंतर्वस्त्र उतार कर उसका दिया कपड़ा ही पहन लिया।

हम दोनों सोने के लिए बिस्तर पर आ गए।

उसे मेरे कैरियर में मिली विफलता के कारण मुझसे हमदर्दी थी, और मुझे उसके माता पिता न होने, तथा मेरे लिए फ़िर भी इतना खर्चा कर देने पर उससे एक आत्मीय सहानुभूति थी... ये हम दोनों के लिए परस्पर एक दूसरे के प्रति आकर्षण का कारण बनी।

विद्यार्थियों के कमरे में डबल बेड तो होते नहीं, लेकिन फ़िर भी बिस्तर पर जगह की तंगी नहीं रही। बल्कि बहुत सी जगह तो सारी रात फ़ालतू पड़ी रही।

कॉलेज में नियमित कक्षाएं शुरू हो गई थीं और समय ने एक बार फ़िर गाड़ी को पटरी पर ला दिया था।

कहते हैं कि आग पर रोटी या कढ़ाई में पूरी तभी फूलती है जब उसे थोड़ा सा दबाया जाए। यदि दबाव न हो तो वो भी नहीं फूलती।

पिछले कॉलेज में जब अध्यापक कहते थे कि ये सब गतिविधियों छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दो,तो गतिविधियों- डिबेट, चित्रकला, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मन भी ज़्यादा लगता था। किन्तु यहां जब अध्यापक कहते कि ख़ाली किताबों से ही चिपके मत रहो, ज्ञान को तरह तरह की एक्टिविटीज से समृद्ध करो तो भी इनमें भाग लेने से भीतर से डर ही लगता था।

मैं शुरू के कुछ महीनों तक क्लास में बेहद सख्ती से नियमित ही रहा। कोई क्लास नहीं छोड़ता था।

लेकिन धीरे धीरे पुराने दिन लौटने लगे। एक के बाद एक इंटरकालेज डिबेट्स के आमंत्रण आए और मैंने चौदह बार अपने कॉलेज की टीम में भाग लिया। चार बार पुरस्कार भी पाए।

तीन चार लेखन स्पर्धाएं जीती।

विश्वविद्यालय कला संकाय की फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता भी जीती। इसमें मैंने " लेडी ऑन द मून" शीर्षक से प्रस्तुति दी। एक बड़े हार्ड बोर्ड से गोल चंद्रमा बनाया गया था। पार्श्व में उसे रख कर सफ़ेद कपड़ों में एक बूढ़ी औरत बन कर एक चरखा कातते हुए मैं उसके सामने बैठा। चन्द्रमा, मेरे अपने शरीर, कपड़ों और चरखे पर चमकीला सिल्वर रंग किया गया और मंच पर थोड़ा अंधेरा करके पर्दों के बीच से निकलता चन्द्रमा दिखाया गया, जिस पर प्रचलित किम्वदन्ती के अनुसार बुढ़िया चरखा कात रही है।

इस बार फ़िर मुझे पुरस्कार मिला।

विषय नए थे पर पढ़ने में आनंद आ रहा था, क्योंकि ये मेरे अपने ही चुने हुए विषय थे।

मैंने अपना बड़प्पन और झिझक बिल्कुल छोड़ दिए थे, जिससे जो सीखना था सीखा, पूछना था, पूछा। मुझे ये अहसास हर पल बना रहता था कि मैं एक परदेसी की तरह एक ऐसी नई नगरी में आ गया हूं जहां मैं कुछ नहीं जानता, कुछ नहीं समझता। यहां जो भी है वो मुझसे ज्यादा जानता है, और मुझे कुछ न कुछ नया सिखाएगा।

इस रवैए ने मुझे कॉलेज में तेज़ी से लोकप्रिय बनाया और मेरे ढेर सारे नए छोटे बड़े दोस्त बनाए।

एक दिन कॉलेज में संस्कृत विभाग का कार्यक्रम हो रहा था। संस्कृत का एक लड़का मेरे साथ लोक प्रशासन की क्लास में भी था। वो मुझे अपने साथ उस कार्यक्रम में ले गया। समारोह में उपस्थिति काफ़ी कम थी, फ़िर भी कुछ अन्य कॉलेजों से आए छात्र भी थे क्योंकि वह संस्कृत साहित्य परिषद का इंटर कॉलेज प्रतियोगिता का आयोजन था।

प्रतियोगियों को संस्कृत में निर्धारित समय में संभाषण करना था। मेरे साथ प्रथम वर्ष का एक मेरा मित्र भी था, और हम हॉल में बैठे संस्कृत सुनने का आनंद ले रहे थे।

सभी प्रतियोगियों के बोलने के बाद मंच से घोषणा हुई कि सभी प्रतियोगी बोल चुके हैं, किन्तु यदि श्रोताओं में से कोई अन्य व्यक्ति बोलना चाहे, तो उसे भी प्रतियोगिता में भाग ले सकने की अनुमति अध्यक्ष द्वारा दी गई है।

मैं न जाने क्या सोच कर उठा और मंच पर पहुंच गया। सभी को, विशेष रूप से मेरे मित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ।

स्कूल में एक बार एक अध्यापक जी ने कक्षा में हम छात्रों से कहा था कि संस्कृत के अंक तुम्हारे रिज़ल्ट में डिवीजन में नहीं जोड़े जाते,इसलिए तुम लोग संस्कृत भाषा पर ध्यान नहीं देते हो जबकि ये बहुत वैज्ञानिक भाषा है, और इस पर पकड़ बनाने से तुम्हारा किसी भी भाषा का व्याकरण का ज्ञान समृद्ध होगा।

मैंने तब उनकी बात का मान रखने और छात्रों के बीच कुछ नाटकीय दिखाने के इरादे से संस्कृत की एक कहानी याद करके रट डाली थी, जिसके कारण अगले टेस्ट में मुझे संस्कृत में अप्रत्याशित रूप से बहुत अच्छे अंक मिले थे।

वो कहानी मैं अब तक भूला नहीं था।

वही कहानी मैंने यहां प्रतियोगिता में सुना डाली। डिबेटर होने से मंच पर बोलने का कौशल तो पहले से ही पनप चुका था।

सब हैरान रह गए जब प्रतियोगिता का परिणाम घोषित हुआ और मुझे प्रथम पुरस्कार मिला।

हॉल से निकलते वक़्त अपने कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहब के अपने साथी को कहे गए शब्द मेरे कानों में पड़े, वे कह रहे थे- यदि संस्कृत में ऐसे स्मार्ट छात्र आयेंगे तो हम इंटर यूनिवर्सिटी संभाषण प्रतियोगिता भी जीत लेंगे।

मैं मन ही मन फूल कर कुप्पा हो गया। लेकिन मेरे मित्र का मुंह भी फूल कर कुप्पा हो गया जब उसने मुझसे कहा - तूने अकेले अकेले छिप कर तैयारी कर ली और मुझे नहीं बताया... मैं उसे लाख विश्वास दिलाता रहा कि यहां आने से पहले मुझे इस स्पर्धा के बारे में पता तक नहीं था।

हम तीन मित्र वहां से सीधे कैंटीन गए जहां मैंने उन्हें समोसे खिलाए। एक ने समोसे को मेरे जीतने की ख़ुशी में दी गई ट्रीट समझा, दूसरे ने उसे मनाने की कोशिश, कि उसे मैं प्रतियोगिता से पहले तैयारी करवा कर साथ में क्यों नहीं ले गया।

एक रात मेरे मित्र के कमरे पर सो जाने के कारण मुझे अगले दिन अपने बड़े भाई से हल्की सी डांट खानी पड़ी, लेकिन भाभी ने कहा कि- जाने में कोई बात नहीं, लेकिन आगे से जब भी जाऊं तो पहले घर पर बता कर जाऊं कि रात को मैं घर नहीं आऊंगा।

इससे मुझे लगा कि उस दिन रात को घर न आने पर भैया ज़रूर परेशान हुए होंगे।

भाभी की बात से मुझे एक प्रकार से अनुमति भी मिल गई कि मैं आगे से पहले बता कर बाहर जा सकूंगा।

इस अनुमति का पता जैसे ही मेरे मित्र को चला, अर्थात मैंने उसे बताया, तो अगले ही दिन वो फ़िर से मुझे रात को अपने साथ ले गया।

इस बार मुझे उसके साथ रह कर और भी आनंद आया क्योंकि बिना पूछे आने का तनाव अब मेरे साथ नहीं था।

अब हम अक्सर मिलते।

एक दिन हमारे हिंदी साहित्य के प्रोफ़ेसर क्लास में बोले- साहित्य कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसमें गणित की तरह तुम्हें शत प्रतिशत अंक मिल जाएंगे। यहां तो साठ प्रतिशत, अर्थात प्रथम श्रेणी के अंक भी एक चुनौती हैं।

वे जोश में बोल गए कि साहित्य में यदि तुम साठ प्रतिशत नंबर ले आओ तो अपनी मार्कशीट को ही नौकरी का अपॉइंटमेंट लेटर समझ लेना।

हमारे कॉलेज के छात्र भी दो वर्गों में बंटे दिखाई देते थे। यद्यपि एकवर्ग काफ़ी बड़ा था जिसमें सत्तर फीसदी लड़के थे जो प्रायः नौकरी भविष्य आदि के बारे में नहीं सोचते थे, लेकिन दूसरी ओर लगभग तीस प्रतिशत ऐसे थे जो किसी बड़ी सरकारी नौकरी की परीक्षा के लिए तैयारी कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों से आए थे या फ़िर ऐसे संपन्न शिक्षित घरों से थे जो कोचिंग आदि के सहारे भविष्य की तैयारी में भी सक्रिय थे।

अपनी अभिरुचि और पिताजी से मिली सहायता के चलते अंग्रेज़ी पर मेरी पकड़ भी अंग्रेज़ी माध्यम वाले लड़कों की तरह ही थी। लेकिन मैं अपनी दक्षता के बावजूद मन से हिंदी वाले छात्रों के साथ ही रहता था।

एक रात मेरे उसी मित्र के कमरे पर रुकने के दौरान मेरी उससे काफी देर तक बहस हुई जब उसने मुझे ज़िन्दगी का एक नया फ़लसफ़ा समझाया।

वह बोला- हमें जीवन में किसी भी आदत या नशे का गुलाम नहीं होना चाहिए,किन्तु जीवन की कोई भी बात ऐसी भी नहीं होनी चाहिए जो हमें मालूम न हो। हमारे पास जीवन को जानने समझने के लिए एक ही जीवन है,बस।

आरंभ में मुझे लगा कि वह कैसी बहकी बहकी भावुक बातें कर रहा है, शायद उसे अपने दिवंगत मातापिता की याद आ रही हो,और वह मन में कोई अकेलापन महसूस कर रहा हो।

किन्तु जल्दी ही मुझे पता चला कि वो आज कहीं से थोड़ी सी बीयर ले आया है जो उसने अपनी अलमारी में छिपा रखी है।

बीयर पीने के उसके प्रस्ताव को मैंने अस्वीकार कर दिया। लेकिन उस दिन मुझे शराब नोशी की पहली सीढ़ी, बीयर पीने के बारे में भी कुछ नई बातें पहली बार पता चलीं।

सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेना न उसकी फितरत में था,और न मेरी।

मेरे मना कर देने पर उसने भी बीयर की बोतल को नहीं खोला, और उसे ऐसे ही वापस रख दिया।

मुझे उसने बताया कि जैसे नॉन वेज खाना न खाने वाले भी कभी कभी अंडा खा लेते हैं,वैसे ही शराब न पीने वाले भी कभी कभी बीयर पी लेते हैं। बीयर ठंडी करके ही पीना ही अच्छा रहता है। बीयर में एल्कोहल यानी शराब का अंश बहुत थोड़ा सा होता है। इसे भोजन करने से पहले पिया जाता है। कोई भी शराब ख़ाली पेट पीना नुकसानदेह है और ऐसा केवल वही करता है जो शराब की लत का शिकार हो चुका हो, और जिसे दुनिया नशेड़ी कहती है।

मेरे मित्र ने बीयर के साथ खाने के लिए कुछ स्वादिष्ट चीज़ें भी लाकर रखी थीं।

जब उसने खाने के लिए उन्हें निकाला तो उसके चेहरे की मायूसी देख कर मुझे बहुत अपराध बोध महसूस हुआ।

वह बहुत सुंदर और स्मार्ट था। हंसमुख भी। इस समय उसका उतरा चेहरा देखा नहीं गया। रात को काफ़ी देर भी हो चुकी थी।

कुछ सोच कर मैंने धीरे से कहा,अच्छा चल निकाल, थोड़ी सी पीते हैं।

वो किसी छोटे बच्चे की तरह किलकारी भरता हुआ खुश हुआ और हाथ में पकड़ा ब्रेड पकौड़े का चटनी में भीगा टुकड़ा वापस प्लेट में रख कर अलमारी से बोतल उठाने के लिए लगभग दौड़ ही पड़ा।

उसकी चिरपरिचित वो मुस्कान फ़िर उसके चेहरे पर आ गई जो मुझे बेहद पसंद थी।

मैंने मन में सोचा ऐसा चेहरा देखने के लिए थोड़ी सी बीयर पी लेना कोई जोखिम भरा सौदा नहीं है।

आख़िर उसने मेरा सम्मान किया था कि मेरे मना करने के बाद उसने भी पीने का इरादा छोड़ कर बोतल वापस रख ही दी थी। मैंने भी उसे एक बार मायूस करने के बाद फ़िर से सम्मान देने के लिए उसका छोड़ा हुआ पकौड़े का टुकड़ा हाथ में उठाकर खाना शुरू कर दिया। उसकी खुशी और उत्साह जैसे दुगने बढ़ गए।

मैं सोच रहा था कि उसे इतना खुश देखकर उसके माता पिता की आत्मा जहां भी होगी, कितना खुश होगी?

देर तक बातें करते हुए हम दोनों गर्मी की उस रात फ़िर अंतरंगता से सोए।


क्रमशः


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