माता-पिता – त्याग और प्रेम का प्रतीक
माता-पिता – त्याग और प्रेम का प्रतीक
नमश्कार साथियों,
आज का मेरा भाषण समर्पित है उनकी चर्चा करने जिन्होंने अपने जीवन का अमोल भाग ख़ुशी ख़ुशी हमारे नाम कर दिया। ये वो है जिनके पास स्वयं परमेश्वर को दण्डित करने और उनसे लाड करने का पूर्ण अधिकार है। हाँ, आज हम चर्चा करने जा रहे है माता पिता के महत्व और उनका हामरे जीवन में प्रभाव पर।
वैसे देखा जाए तो मुझे इस विषय से आप सभी को अवगत कराने की कोई आवश्यकता नही है परन्तु यह विषय और इसकी श्रेष्ठता किसी के मन में दबी न रह जाए यह सुनिश्चित करना बहुत अनिवार्य है।
हमारा संपूर्ण जीवन एक सिक्के के भांति है। जैसे एक सिक्के के दो पहलु होते है उसी प्रकार हमारे जीवन के भी दो पहलु है जिनको अर्जित करना हमारे जीवन का एक परम लक्ष्य है। वह दो पहलु हैं:
विनम्रता और दृढ़ता
सुनने में यह दोनों बिलकुल विपरीत प्रतीत होते है। एक जगह विनम्रता है जो हमें आभार और करुना मई होना सिखाती है जहा दूसरी ओर दृढ़ता हमें इस संसार के माया जाल को पहचानने और उससे होने वाली हानि का बोध कराती है। तो सवाल यह उठता है की यह दोनों प्रवृत्ति एक इंसान के भीतर एक साथ कैसे पनप सकती है ? इसका उत्तर है, हमारे संस्कार, जो हमें अपने माता पिता से मिलते है। एक और जहाँ हमारी माँ हमें विनम्रता और सहानुभूति जैसे शिष्टाचार सिखाती है वाही दूसरी ओर हमारे पिता हमें इस श्रृष्टि के कठिन नियमों से अवगत कराते है।
परन्तु क्या इसके बाद हमारे जीवन से माता पिता की भूमिका समाप्त हो जाती है?
हमारे विचार और हमारा अनुभव एक वृक्ष के भाँती होता है जो समय और आयु के साथ बड़ा होता है और उसकी टहनियों का विस्तार होता है। जरा सोचिये की यह पेड़ जन्म कहा से लेता है? इसके विस्तार की मूल रूप से कब शुरुआत हुई? एक अटल और घाना वृक्ष सदा ही गहरे और सशक्त जड़ों से ही अविचल बनता है। इन जड़ों को उगाने और उनकी सिंचाई का कार्य निरंतर हमारे माता पिता करते हैं। वो यह सुनिश्चित करते है की सदा ही हमारे सुविचारों का उत्थान हो।
मां बाप की बस एक ही ख्वाहिश होती है कि उसके बच्चे की कोई ख्वाहिश बाकी ना रहे
कदाचित ये जिम्मेदारियां निभाते हुए हमारे माता पिता हम पर कुछ अधिक कठोर हो जाते है और कभी कभी वो जरूरी भी होता है।
परन्तु जो आंसू हमारी आँखों पर आते है उसे पोछने के लिए जब माँ अपनी गोद में बैठकर अपने आँचल को हमारे आँखों और गालों पर सहलाती है, तो वो सारा दर्द और दुःख कहीं अन्धकार में खो सा जाता है और दुःख के घने वनों में ममता के उन जुगनुओं को झिलमिलाते हुए देख हमारे मन की ज्योति एक बार फिर प्रसन्नता से प्रज्वलित हो उठती है।
माता पिता के प्रेम और उनके स्नेह का माप तो स्वयं सितारों की गिनती से भी कईं गुना अधिक है।
इस ही बात पर दो पंक्तियाँ मेरे मुख पर आइन आई हैं:
गिनती नहीं आती मेरी मां को यारों,
मैं एक रोटी मांगू तो दो ही लाती है।
प्यार उनका कम न समझना,
वो हर रात हमारी फिक्र में जागते हैं।
हम गिरें तो वो थामते हैं,
और खुद कभी शिकायत नहीं करते।
इन बातो का ज्ञान होते हुए भी आज के युग की गति में ये संस्कार अक्सर कहीं धूमिल हो जाते है और ठोकर खाकर मीलों पीछे छूट जाते है। कभी जिनकी रुष्ट भाव से मौन रहने के कारन हरी भी विचलित हो जाते थे आज उनकी वाणी सुनने का वक़्त कईंयों के पास नहीं है।
हमें ये स्मरण रखना चाहिए की वृक्ष जितना विशाल दीखता है सतह के भीतर वो उसका दुगना तक फैला होता है।
जबतक माँ बाप की सेवा कर सकते हो कर लो। जबतक हस सकते हो हस लो क्यूँकी किसी का मूल्य तब ज्ञात होता है जब वो आपसे पृथक हो जाए। इसलिए हम आज इस विषय पर चर्चा कर रहे है ताकि कहीं गलती से भी जीवन में यह ग्लानी न रह जाए की काश उनकी बात सुन ली होती जो इस मुखौटे से भरे संसार में असली मुस्कान लेकर हमारे असल पक्षधर थे।
आशा है की इस भाषण के माध्यम से मैंने अपना तर्क स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया होगा और हम सबके मन में बैठी इस बात को पुनः अंकुरित होने का एक मौका मिला होगा। अंत तक मेरे पाठक बने रहने के लिए मै आप सबका आभार व्यक्त करते हुए अपना भाषण एक पंक्ति से संपूर्ण करता हूँ:
दौलत शोहरत इस दुनिया की फीकी लगने लगी है
मैंने आज माँ के मुख पर मुस्कान जो देख ली
