माफी
माफी
पूरा शांति सदन आज दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर में मेहमानों का तांता लगा हुआ था घर के आंगन में हँसी ठिठोली के साथ बन्दा बन्दी के गीत गये जा रहे थे क्योंकि आज सुमित्रा जी की इकलौती बेटी रूप की शादी थी।
रूप को कोहबर में हल्दी लग रही थी कि तभी अचानक घर में काम करने वाली जमुना ने बताया कि बाहर हाहाकार मचा है। क्योंकि नन्दोई जी पानी देर से मिलने और बहू के पैर ना छूने से नाराज हो गए है। साथ में दादी यानी सुमित्रा जी की सास गीताजी भी नाराज हो गयी है। सास और दामाद दोनों मुँह फुलाये बैठे है। दादी जी बहूरानी पर सबके बीच चिल्ला रही है। बोल रही है सबके बीच माफी मांगो।
इतना सुनते सुमित्रा जी अपना माथा पीटते हुए कोहबर से उठकर भागती भागती बड़बड़ाते हुए बाहर की तरफ गयी "उफ्फ! बहुत हो चुका ये रूठने-मनाने का खेल।"
देखा तो गीताजी गुस्से में रचना (सुमित्रा जी की बहू) पर चिल्ला रही थी बार बार उस पर माफी मांगने का दबाव डाल रही थी साथ में नन्दोई जी भी पीछे से व्यंग बाण छोड़ रहे थे कि तभी सुमित्रा जी ने कहा,"मांजी चाहे कुछ भी हो, अब नन्दोई जी को मेरी बहू नहीं मनाएगी। ना ही मेरी बहू उनसे माफी मांगेगी।"
बहू तुम जाओ जाकर बाकी मेहमानों को देखो
रचना वहाँ से चुपचाप चली गयी।
इधर सुमित्रा जी मन ही मन अपने ननद नन्दोई को देखते हुएअपने ही मन में बोले जा रही थी," ज़िंदगी भर से इनका नाटक देख रही हूं ये इनकी पुरानी आदत है लोगों के बीच तमाशा बनाना।"
"पहले आप को भड़का देते थे तो डर और लाज बस घर में शांति बनाए रखने के लिए मुझे इनसे माफी माँगकर आप सबको मनाना ही पड़ता था, लेकिन अब और नहीं अब बस अब कोई रूठने मनाने का काम नहीं होगा। अब चलूं बेटी की शादी करूँ की पहले इनको मनाऊँ।"
लेकिन खुद के गुस्से को संयमित करते हुए उन्होंने कहा, "अरे जीजाजी रचना अभी बच्ची है थोड़ी देर हो गयी पानी लाने में और उसने सुबह तो आपके पैर छुए थे उसे नहीं पता कि जब एक बड़े का पैर छूते है तो वहाँ बैठे सभी लोगों के पैर दुबारा छूने होते है। काम के जल्दी में थी इसलिए सिर्फ चाचाजी के पैर छुए उसने क्योंकि वो तो अभी आये थे ना चलिए लेकिन बताने पर तो उसने आपके पैर छू लिए ना।
अच्छा लीजिये उसकी तरफ से मैं माफी मांगती हूँ। अब गुस्सा थूक दीजिये।
आखिर रूप तो आपकी भी तो लाडली भतीजी है। तो उसे अच्छा थोड़ी ना लगेगा कि उसकी शादी में उसके फूफा नाराज हो गए।
तब नन्दोई जी ने कहा,"अगर रूप की शादी की बात ना होती भाभीजी, तो मैं एक पल भी यहाँ ना रुकता इतने अपमान पर अकड़ तो देखिए बहु की की अम्मा के कहने पर भी माफी नहीं मांग रही थी।"
तब तक पीछे से गीताजी ने कहा,"देखा मेरे दामाद का दिल कितना बड़ा है। जाकर अपनी बहू को भी तमीज सीखा" सुमित्रा जी चुपचाप सबकुछ हाथ जोड़े सुनती रहीं। क्योंकि नन्दोई और सास के साथ साथ पति की घूरती निगाहें उन्हें चिंतित कर रही थी। जिससे बचकर शांति से बिना झगड़े के विवाह सम्पन्न कराना ही उनका एक मात्र लक्ष्य था ।
सबको मनाकर खुशी खुशी रूप की शादी और विदाई हो गयी। सकुशल विवाह सम्पन्न हो गया।
लेकिन गीताजी शादी बीतने के बाद भी रचना से बात नहीं कर रही थी। शादी बीतने के बाद एक दिन रचना रसोई में आयी तो देखा सुमित्रा जी खाना निकाल रही है। तब रचना ने सुमित्रा जी से पूछा "मांजी आप ये खाने की थाली दादी जी के लिए लगा रही है। क्या दादी जी मान गयी?"
"हाँ"
"लेकिन कैसे, मैंने पूछा खाने के लिए तो उन्होंने मना कर दिया कहा कि उन्हें भूख ही नहीं है।"
"क्योंकि मैंने माफी मांग ली"
"क्या?"
लेकिन क्यों आपने तो कोई गलती भी नहीं की ....ये गलत है मांजी बिना गलती के हर दूसरे दिन बात बात में माफी क्यों मंगवाना? मुझे दादी जी की ये आदत बिल्कुल नहीं पसंद आप उनकी ये गलत हरकतें बर्दाश्त क्यों करती है? ऐसे ही शादी में भी आपने सबके बीच माफी मांगी वो भी बिना ग़लती के।
"तो क्या करूं बहू? और कोई रास्ता भी तो नहीं मेरे पास ...वो एक गाना है ना "
अब तो आदत सी है मुझको ऐसे जीने की"
और वो दूसरा वाला
"भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है।"
अब एक साथ तीन लोगों के मुँह फुले हुए तो अपनी बेटी की शादी में नहीं देख सकती थी ना वो भी बात जब बेटी के पापा दादी और फूफा की हो तो। तब तो खासतौर पर सावधानी रखनी होती है।
बहू अगर हम औरतें, घर में सास और पति को छोड़ भी दे तो घर का कोई और सदस्य भी भूखा बैठा रहे तो खुद के गले से निवाला नीचे उतरेगा क्या?
जानती हो जब नई नई मैं इस घर मे आयी थी तब जब अम्मा रूठकर गुस्से में खाना छोड़ देती तो तुम्हारे ससुरजी यानी मेरे आदरणीय पति देव भी रूठ कर अनशन पर बैठ जाते। दोनों बच्चें तब छोटे थे डरती थी कि अगर इन लोगों को कुछ हो गया तो दुनिया मुझे ही गाली देगी। और मुसीबत के साथ मेरी मुश्किलें भी बढ़ जाएंगी। इसलिए मुझे मनाना ही पड़ता था। जिसका भरपूर फायदा ननद नन्दोई उठाते थे जिस वजह से मेरे ननद नन्दोई सास ससुर पति सब की नाराज होने की आदत हो गयी। और सब के सब मुझसे हर बात में माफी मंगवा कर ही मानते। कहते हुए उनके आंखों के कोर गीले हो गए
जिन्हें आँचल से पोछते हुए उन्होंने कहा,"लेकिन तुम चिंता मत करो तुमको बिना वजह किसी से माफी मांगने की जरूरत नहीं। तब बात मेरी थी और अब बात मेरी बहू की है। तो मैं तुम्हारे साथ वो नहीं होने दूंगी जो मेरे साथ हुआ।"
लेकिन अब मैंने भी सोच लिया है बस अब और नहीं मनाने वाली मैं किसी को बिना वजह के गुस्से पर अब मैंने बेटी बेटे की शादी करके गंगा नहा लिया।
"मांजी बुरा मत मानिएगा लेकिन यू मना-मनाकर आपने इन लोगों की आदतें बिगाड़ दी हैं! पड़ा रहने देती रूठकर, अपने आप ही अकल दुरुस्त हो जाती। क्या आप रूठती थी तो इनमें से कोई आता था आपको मनाने?"
मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा
"मेरी ऐसी किस्मत कहाँ बहू?"
सच कहा तुमने मैंने ही इनकी आदत बिगाड़ी है। रही बात मेरे रूठने की तो मैंने रूठना कभी का छोड़ दिया ब्याह के बाद, एक बार सासूमाँ का ताना सुनकर, मैं रूठ गयी थी। और खाना नहीं खाया लेकिन किसी ने भी, यहाँ तक कि तुम्हारे ससुरजी ने भी मुझे नहीं मनाया। आखिर में भूख के मारे मेरी अंतड़ियाँ कुलबुला ने लगी। घर के सारे काम करती सिवाय खाना खाने के।
दो दिन तक खाने से सजी थाली मेरे आँखों के सामने घूमती रही। लेकिन क्या मजाल जो किसी ने झूठे मूह भी मन रखने के लिए कह दिया हो कि जाकर खाना खा लो उस वक्त मुझे मेरे माँ-बाबू जी की कही एक बात याद आयी ससुराल में कभी किसी से उम्मीद मत रखना खुद का ख्याल खुद से रखना ये सोचकर कि तुम अपने माँ बाबुजी की अनमोल धरोहर हो। तभी वहां खुश रह पावोगी। फिर मैंने खुद ही जाकर खाना खाया।
"फिर मैंने सोचा जब मेरे पति को ही फर्क नहीं पड़ता था तो सास ननद को क्यों फर्क पड़ेगा जो मुझे मनाने आते?"
उस दिन मुझे सच समझ मे आ गया था कि अगर मुझे कुछ हो गया तो उसका सीधा प्रभाव मेरे माता पिता और बच्चों पर पड़ेगा। हो सकता था पतिदेव तो माताजी और समाज के दबाव में आकर दूसरी शादी भी कर लेते। लेकिन बच्चों का क्या होगा? ये सोचकर मैंने हालात से समझौता कर लिया।
तब रचना ने माहौल को हल्का करने के लिए सुमित्रा जी से मजाक करते हुए कहा "लेकिन मांजी मेरी समझ में नहीं आता कि शादी विवाह में आये लोग इतना रूठते ही क्यों हैं? खासकर नन्दोई दामाद और फूफा जी पदवी वाले लोग"
तब सुमित्रा जी ने कहा "मुझे लगता है असल में ऐसे लोग बीमार होते है और इस बीमारी की असली जड़ है अटेंशन, यानी कि सबका ध्यान अपनी ओर खींचना, अपने को इम्पोर्टेंस दिलवाना मतलब खुद को सबसे महत्वपूर्ण दिखाना बताना की उनके बिना सारा समारोह बेकार और निरर्थक है।
और बहू को नीचा दिखाकर उसे दबाकर रखना जिससे वो डरी सहमी हुई उनके सामने नजर आए और ऐसा व्यवहार हम औरतो के साथ काफी समय से चलता आ रहा है। क्योंकि नन्दोई दामाद या पति इन लोगो को शुरू से अकड़ कर रहना और ससुराल जाकर नखड़े दिखाना ही सिखाया जाता है। कुल मिलाकर इस तरह उन्हें नैतिकता विहीन कर बीमार परवरिश दी जाती है। जबकि ऐसे लोगो को ये याद नहीं रहता कि समय कभी एक सा नहीं रहता। डरी सहमी बहु समय बदलते एक दिन शेरनी भी बन जाती है।"
और दोनों सास बहू एक दूसरे को देखते हुए हँस पड़े।
समाज हम औरतों को सिर्फ कठपुतली बनाकर अपने इशारे पर नचाना चाहता है। क्योंकि उसकी वेदी हमारे घरों से ही शुरू होती है। जहां औरतों को हर हालत में समझौता करना सिखाया जाता है लेकिन उसकी तारीफ नहीं कि जाती।