लोकतंत्र पर्व

लोकतंत्र पर्व

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उफ्फ! ये शोर, बंद करो खिड़कियों को.. इस भोंपू की आवाज़ ने जीना दुश्वार कर रखा है। चुनाव आते ही सर पर सवार है सब, एक ही दिन में सारे विश्वास जीत लेंगे क्या.. भगवान जाने ये सीमा कहां रह गई, दीवाली की सारी सफाई बाकी है कहा था अभी धोखा मत देना, और इसका कुछ पता ही नहीं।

"टिंग टोंग"

आ गई लगता है महारानी! चलूँ स्वागत करूँ।

"नमस्कार! हमारे नेताजी 'उल्लू' चिन्ह से खड़े हैं आप उन्हें भारी मतों से विजयी बनाए"।


जी ज़रूर! उफ्फ, जिसका इंतज़ार है वो तो आ नहीं रही, इस वादों की पत्रिका का अचार डालूँ?

"भाभी! दरवाज़ा खोलो.. मैं सीमा!"

"अरे! बेल बजाने में तकलीफ़ है तूझे, वहीं से चिल्ला रही है.. वैसे ही कम शोर है क्या? कहाँ रह गई थी? आधा दिन निकल गया.. काम कैसे खत्म होगा?"

"भाभी, अभी दो दिन और एडजस्ट करो आप, चुनाव प्रचार में बिजी हूं मैं.. शाम को फिर जाना है।"

" वाह सीमा, तुम भी राजनीति में उतर पड़ी हो, सही है.. वैसे कौन सी पार्टी का प्रचार कर रही हो?"

" अरे भाभी तीनों पार्टी का.. हमे तीनों जगह से पैसे मिले हैं बस उनके पार्टी की टोपी और गमछा पहनना है।"

तो तेरे पति को भेज दे, मेरा त्यौहार धरा रह जाएगा..

"ना भाभी! आदमी हमारा कहता है, उसकी चाय के दुकान पर ही सारी चुनावी चर्चा चलती है.. वो ना आएगा"

"अच्छा! वोट किसको देगी? "

" हा हा हा! आप भी भाभी भोली हो, वो तो एक रात पहले तय करेंगे, बस हम ग़रीब तो यही चाहे, चुनाव साल में दो बार आए"

अच्छा चल तेरी देश चर्चा खत्म हो गई हो तो घर सम्भाले पहले। 



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