लिखना भी 'जीना ' है !
लिखना भी 'जीना ' है !
मुझसे मेरे करीबी पूछते हैं, अक्सर रात में ही कहानियां क्यों लिखती हो? जवाब यही है कि कहानियां लिखते लिखते, पात्रों के मनोभाव हावी हो जाते हैं मुझ पर। और मैं नहीं चाहती कि आप लोग मुझे चन्द काल्पनिक पात्रों के लिए बिखरा ,आँसू बहाता देखें। यह बहुत अजीब सी परिस्तिथि होगी, की जो सच नहीं है, में उसके लिए इस हद महससू कर रही ...लेकिन आपके लिए तो मैं हूँ न! और मेरा ऐसा हाल आपको परेशान करेगा।
बस में नहीं होता मेरे, लिखते समय मैं आपकी अपनी नहीं होती, एक अलग ही ट्रांस में होती हूँ। कभी कभी दिल में बहुत दर्द भर उठता है ।पता तब चलता है जब आंसू ,आंखों को धुंधला देते हैं। कभी इस कदर गुस्सा की खुद पर गुस्सा आने लगता है कि इतना खराब व्यक्तित्व वाला चरित्र क्यों गढ़ रही हूँ। कभी अपने पसंदीदा विषय "प्रेम " में पात्रों की निष्ठुरता मन को उद्विग्न कर देती है। जबकि जानती हूँ कि जिस पृष्ठभूमि से उनको उठा कर प्रस्तुत कर रही हूँ उसमें यह स्वाभाविक है। लेकिन हर बार उन्हें पूरक मजबूत और उदार चरित्रों से संभालते हुए मन भावनाओं में गोते लगाने लगता है। सच लिखूँ तो ख़ुद ही उस मजबूत किरदार से प्रेम हो जाता है। लेकिन फिर कथानक का अंत इशारा करता है कि इतना मोह ठीक नहीं।
कई बार अंत दो दो रखती हूं। एक प्रकाशन के लिए और एक अपने लिए। हैरान होते है मेरे पहले आलोचक की ये क्या सनक है मेरी। लेकिन मैं नहीं चाहती कि कठोर वास्तविकता हावी हो उन जगहों पर जहाँ कल्पना का विशाल इंद्रधनुषी आकाश मौजूद हो। जीवन तो वैसे भी एक जमा एक ,दो ही देता है । कल्पना में यह कुछ भी हो सकता है तो क्यों न इसे अपने हाथ रखूं। मुझे अपने हर चरित्र से बेइंतहा प्यार है। वो प्यार जो मैं न देते वक्त सोचती हूँ कि कौन क्या समझेगा या कैसे लेगा, न उम्मीद की मुझे भी कुछ तो वापस मिले।
मुझे लगता है मेरे ये चरित्र संभवतः आस पास के जीवन की उम्मीदें, भय, आशा ,निराशा या फिर वो तमाम परिस्थितियाँ हैं , जिनके लिए रामायण में लिखा है कि श्री राम ने "सोने का मृग" देख , आश्चर्य में पड़ी वैदेही से कहा "संसार में कुछ भी होना, दिखना असंभव नहीं है।"
आज ऐसी ही एक घटना विस्तार से पढ़ी है अखबार में। उनमें शामिल लोगों के बयान पढ़ कर एक कहानी के लिए एक भाव मन में उठ रहा है।
कोई भी इंसान एक दिन में नहीं बदलता। जीवन में मन पर पड़ते निशान उसे उसकी अलग ही शक्ल के लिए तराशते रहते हैं । हर चोट ,छोटी या बड़ी एक दाग या गड्ढा सा छोड़ जाती है । इंसान अपनी सामाजिक मजबूरियों के चलते एक मान्य चेहरे का नकाब लगाए फिरता है। और फिर वो पल जब दूभर हो जाता है अभिनय करना, फेंक देता है मुखौटा।लापरवाह,बागी हो जाता है। कभी कभी खुद से भी...
जैसे ही कानों में पड़ती बातों, राह में बिछे कांटों और सर पर पड़ती तेज धूप सी कड़वाहटें..जब देखती हैं वो चेहरा , जो उन्हीं की करनी का परिणाम होता है,जोर से चिल्ला पड़ती हैं। भय और घृणा से , कुछ लोग दूर भाग जाते हैं। कुछ आपके ही करीबी ,जीवन के कमजोर क्षणों की गलतियों को पत्थरों की तरह उठा कर मारते हैं जैसे किसी विक्षिप्त को देख लिया हो।जो अब कुछ भी कर सकता है।
बहरहाल ,जहां हृदय लोहे का हो चुका हो तो भिड़ जाता है इंसान, किसी योद्धा की तरह। जो इसका उलट ही रहा, और भी भावुक हो गया, तो अभिशप्त हो जाता है ,सबके पैरों तले कुचलने को।
कितना भयानक है ये सब। क्यों होता है ऐसा? क्यों "जियो और जीने दो" नहीं हो सकता यहां।
चलो आज की रात हो गयी इनके नाम...जल्द ये कहानी लेकर आऊंगी।