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chandraprabha kumar

Classics

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chandraprabha kumar

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कविता कामिनी विलास कालिदास

कविता कामिनी विलास कालिदास

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       संस्कृत साहित्याकाश के ग्रहों तथा उपग्रहों की पंक्ति में कालिदास के आदित्य का ज्वलन्त विक्रम अपनी द्युति से सभी की कान्ति को ध्वस्त कर देता है। उसकी भाव संपत्ति तथा कल्पना अनेकों अनुगामी कवियों के द्वारा उपजीव्य बनाए जाने पर भी अनाघ्रात पेलव पुष्प की ताजगी, किन्हीं कठोर कररुहों से अकलुषित किसलय की दीप्त कोमलता, वज्र से बिना बिंधे रत्न का पानिप, लोलुप रसना द्वारा अनास्वादित मधु का माधुर्य तथा अखंड सौभाग्यशाली पुण्यों के फल का विचित्र समवाय लेकर उपस्थित होती है ।

      कालिदास की रचनाओं में भाव पक्ष तथा कला पक्ष दोनों का सुंदर चित्रण है । कालिदास संस्कृत सहित्य के रसमूर्धन्य कवि हैं । कोमल रसों के चित्रकार हैं । गम्भीर रसों के प्रति कालिदास की उतनी अभिरुचि नहीं दिखाई देते जितनी भवभूति की। यही कारण है कि कालिदास प्रधानतया शृंगार के कवि माने जाते हैं। शृंगार , प्रकृति चित्रण तथा विलासी नागरिक जीवन के चित्रण में कालिदास अपनी सानी नहीं रखते । शृंगार के संयोग पक्ष ही नहीं , वियोग पक्ष के चित्रण में भी कालिदास की तूलिका अत्यधिक दक्ष है। वियोग पक्ष की दृष्ट से मेघदूत के उत्तरार्ध का संदेश वाला अंश तथा रघुवंश के चतुर्थ सर्ग की राम की करुण अवस्था का वर्णन अत्यंत सूक्ष्म होते हुए भी अंतराल तक बैठने की क्षमता रखता है । इन दोनों स्थलों पर कालिदास ने जिस सूक्ष्म किन्तु पैनी व्यंजना शक्ति का आश्रय लिया है ,वह वियोग की तीव्रता को बढ़ा देती है ।

       कालिदास के शृंगार वर्णन अत्यधिक सरस हैं । मेघदूत में शृंगार के कई सुंदर चित्र हैं । मेघदूत का यक्ष मेघ के द्वारा गंतव्य स्थान का वर्णन करते समय नीच पर्वत पर क्रीड़ा करती पण्यस्त्रियों के रति परिमल , चाटुकार प्रिय की तरह प्रातःकाल में स्त्रियों की रति ग्लानि को हरते हुए शिप्रा वात आदि के रमणीय चित्रों को बीच -बीच में चित्रित कर काव्य की प्रभावोत्पादकता को बढ़ा देता है। शृंगार के आलंबन विभाव के अंतर्गत नारी के सौंदर्य वर्णन में कालिदास बेजोड़ हैं । कुमारसंभव के प्रथम ,तृतीय तथा सप्तम सर्ग का पार्वती के रूप का वर्णन तथा मेघदूत की यक्षिणी का वर्णन कालीदास के नख -शिख वर्णन में अत्युत्कृष्ट है । 

      मेघदूत के पद्यों की रमणीयता, स्वर- सौष्ठव, माधुर्य-विलास एवं कोमल संगीत लहरी दर्शनीय है। वास्तव में ‘मेघदूत’ एक विरह - पीड़ित , उत्कंठित हृदय की मर्मभरी आह है ; प्रत्येक पद्य में उसकी विकलता , उसकी विह्वलता , उसकी कातरता, उसकी आतुरता , उसके स्पंदन , उसके क्रन्दन की करुण तान झंकृत हो रही है ।

    अलका से दूर पड़ा हुआ यक्ष, प्रिया का शरीर से तो आलिंगन कर नहीं सकता । दुष्ट भाग्य ने शत्रु बनकर उसकी अभिलाषाओं के मार्ग में रोड़ा अटका दिया है। अब अपनी अभिलाषाओं की मानसिक पूर्ति की मानसिक कल्पना करने के सिवाय वह कर ही क्या सकता है । वह विरह के कारण तपाए हुए दुबले अंगों से यक्षिणी के अत्यधिक दुबले अंगों के आलिंगन की कल्पना कर रहा है। 

     “अंगेनांगं प्रतनु तनुना………….विधिना वैरिणा रुद्धमार्गः ।”

       जब वह यक्षिणी को कोपाविष्ट दशा में पर्वत की शिलाओं पर गैरिक राग से चित्रित कर उसे मनाने के लिए अपने मस्तक को उसके पैरों पर रखना चाहता है, ठीक उसी समय बार -बार आंसू भर आते हैं , और इस तरह दोनों का कल्पित मिलन भी नहीं हो पाता । सचमुच निष्ठुर विधाता उन दोनों

का मिलन इस प्रकार भी सहन नहीं कर पाता ।

   “ त्वामालिख्य प्रणयकुपितां………. संगमं नौ कृतान्तः ॥”

    कालिदास ने प्रकृति के आलम्बन तथा उद्दीपन दोनों तरह के रूप का वर्णन किया है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् रस्किन के मतानुसार कला की उत्कृष्टता किसी चीज़ को अच्छी तरह देख कर के उसे हूबहू वर्णित कर देने में है । कालिदास का प्रकृति वर्णन इस विशेषता से युक्त है । कालिदास का प्रकृति वर्णन स्वाभाविक है और उसमें अनलंकृत लावण्य की रमणीयता है । उन्होंने प्रकृति को मुख्यतः एक प्रेमिका के रूप में देखा है।

    ‘मेघदूत’ का यक्ष अपनी प्रियतमा के अंगों की समता प्रियंगु लता में पाता है, चकित हरिणी की दृष्टि में उसके कटाक्षों का अनुभव करता है, मयूर - पुच्छों में उसकी अलकों का अनुमान करता है तथा नदी की लोल लहरियों में उसकी भौहों की छवि निहारता है । 

    कालिदास ने प्रकृति को मूक, चेतनाहीन अथवा निष्प्राण नहीं माना है । मानव प्राणियों की भाँति उसमें भी सुख- दुःख संवेदना का भाव देख पड़ता है । ‘मेघदूत ‘ में जब यक्ष स्वप्न में प्राप्त प्रिया के आलिंगनार्थ शून्य में भुजाएं फैलाता है , तब वनदेवियों के दृगों से मुक्ता के समान स्थूल अश्रु- बिन्दु तरु किसलयों पर गिर पड़ते हैं ।

     कालिदास की रचनाओं में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है । पतनोन्मुख काल के परवर्ती कवियों की भाँति कालिदास चित्रकाव्य या शब्दालंकार की बाहरी तड़क- भड़क में नहीं फंसते। कालीदास भाव को कला से अधिक प्रधानता देते हैं तथा अलंकारों के मोह में फंसकर उसका हनन नहीं करना चाहते ।

    संस्कृत साहित्य में कालिदास उपमा के लिए विशेष प्रसिद्ध रहे हैं । कालिदास के उपमा प्रयोग से चमत्कृत होकर विद्वानों ने उन्हें ‘दीपशिखा कालिदास‘ की उपाधि दी थी। उपमा के एक से एक सुंदर प्रयोग कालिदास में देखे जा सकते हैं। यथा ‘मेघदूत ‘ में — “ तां जानीथाः परिमितकथां…….. शिशिरमथितां पद्मिनीं वान्यरूपाम् “।

     उपमा के अतिरिक्त कालीदास के अन्य प्रिय अलंकार वस्तूत्प्रेक्षा ,समासोक्ति तथा रूपक हैं। इनके अतिरिक्त कालिदास में अपह्नुति , अतिशयोक्ति , व्यतिरेक , दृष्टांत, तुल्ययोगिता , अर्थान्तरन्यास आदि अर्थालंकारों का सुन्दर प्रयोग मिलता है ।

     कालिदास की शैली अत्यधिक कोमल तथा माधुर्य एवं प्रसाद गुण युक्त है । वे वैदर्भी रीति के मूर्धन्य कलाकार हैं। कालिदास की भाषा व्यंजना प्रधान है ।

   अन्त में हम देखते हैं कि क्या रसप्रवणता ,क्या आलंकारिक अप्रस्तुतविधान , क्या प्राकृतिक वर्णन की बिम्बमत्ता, क्या शैली की व्यंजना प्रणाली तथा शब्दों की प्रसादमयता , सभी कलावादी दृष्टिकोण से कालिदास की बराबरी कोई भी अन्य संस्कृत कवि नहीं कर पाता। कालिदास निश्चय ही कविता कामिनी के विलास हैं ।

    कालिदास का कलावादी दृष्टिकोण भारवि, माघ या श्रीहर्ष की तरह नहीं । न तो वे भारवि की तरह अर्थ के नारिकेल- जल को चहारदीवारी के भीतर छिपाकर रखते हैं , न माघ की भाँति अलंकारों के मोह में ही फंसते हैं , न श्रीहर्ष की तरह कल्पना की दूर की कौड़ी ले आने में ही अपनी पांडित्यपूर्ण कलात्मकता का प्रदर्शन करते हैं । कालिदास का कवि हृदय का कवि है । मधुर आकृति का कवि है , आत्मा की सरसता का कवि है , जिसे किसी बाह्य अलंकृति की ज़रूरत नहीं । कालिदास की कला का एकमात्र प्रतिपाद्य -“ किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् “ है ।



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