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Diwa Shanker Saraswat

Classics

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कुमाता भाग १०

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 आखिर वह दिन आ ही गया जब कैकेयी को पिता के घर से पतिगृह जाना था। भले ही विवाह कैकेयी की इच्छा से हुआ था पर विदा के अवसर पर उसका मन भर आया। जिन पिता और भाइयों के साथ वह रहती आयी थी, उन्हें त्यागने में मन को बहुत पीड़ा हो रही थी। कैकय देश में अपनत्व था। अब कैकय देश छूट रहा था। मन ही मन एक प्रश्न उठ रहा था कि कन्या को क्यों पिता का घर त्यागना होता है। पर चाहकर भी वह किसी से पूछ न पायी।


 भाइयों से मिलने के बाद पिता के गले लग गयी। आज उसे अपने पिता पर ज्यादा स्नेह आ रहा था। वैसे वही नित्य महाराज की छोटी मोटी व्यवस्था देखती थी। वही पिता के लिये नित नूतन वस्त्र निकालकर देती थी। वही भोजन के समय पर पिता को बुलाकर लाती थी। अन्यथा अनेकों बार तो पिता को राजकार्य में भोजन का ध्यान ही नहीं रहता था। बीमार होने पर महाराज अश्वपति को समय पर औषधि वही देती आयी थी।


  हालांकि कुछ वर्षों से उसकी जिम्मेदारी कुछ कम हो गयी थी। अब उसकी भाभी भी उसी तरह से ध्यान रखती थीं। शायद सभी का ध्यान रखना स्त्रियों का ही गुण है। इस विदा के समय भी कैकेयी अपने पिता की चिंता कर रही थी। यही एक कन्या का पिता के प्रति प्रेम है। पता नहीं क्यों मनुष्य पुत्र को कन्या पर वरीयता देते हैं। यदि पुत्र एक कुल को तारता है तो कन्या दो कुलों को तार देती है।


 परिस्थितियों का प्रभाव कहें या समय की नजाकत, महाराज अश्वपति ने कैकेयी को अपने आगामी जीवन के लिये बहुत अच्छी शिक्षा दीं। जिसमें पति की आज्ञा मानने के साथ साथ शेष दोनों महारानियों का सम्मान करना भी थीं। हालांकि खुद महाराज अश्वपति ने महारानी सुमित्रा ने अपनी श्रेष्ठता त्यागने का गुप्त वचन लिया था। इस समय भी वह दिखावे के लिये ही ऐसा कह रहे थे। पर कैकेयी पिता की शिक्षा को सत्य में गृहण कर रही थी।


 मनुष्य करना कुछ चाहता है और हो कुछ और जाता है। अभी भी महाराज के मन में आ रहा था कि एकांत में कैकेयी को यही कहें कि केवल खुद का हित विचार करना। अपने अधिकार को किसी भी तरह प्राप्त करना। हालांकि वह ऐसा कर न सके। मन में व्याप्त एक अज्ञात डर उन्हें ऐसा करने से रोकता रहा। यदि महारानी सुमित्रा का अनुमान सत्य हुआ तो बेटी मेरे इन छुद्र विचारों के लिये मुझे क्षमा नहीं करेगी। महारानी सुमित्रा का अनुमान सत्य होने की संभावना इसलिये भी अधिक है क्योंकि इन्ही गुणों से प्रभावित होकर उन्होंने कैकेयी का संबंध महाराज दशरथ से कराया है। मंथरा भी कैकेयी के विषय में राय पूछे जाने पर शांत रही थी। उसका मौन निश्चित ही महारानी सुमित्रा की बात की सत्यता को सिद्ध कर रहा था।


  विदा के सामान्य शिष्टाचार के बाद जब कैकेयी व महारानी सुमित्रा नगर से वाहर निकली तो अनेकों नगर की महिलाएं उन्हें नगर के बाहर तक छोड़ने आये। कैकेयी उन सभी से मिलकर आगे बढी। भले ही कैकेयी राजकुमारी थी पर सामान्य लोगों के घर भी आती जाती थी। उससे नगर वासियों का बहुत प्रेम था।


अवध की दो रानियां अवध के लिये एक ही रथ पर सवार थी। ज्यादा चुलबुली कैकेयी आज शांत थी। पर महारानी सुमित्रा बीच बीच में बात करके उसका मन हल्का कर रही थी।


 रथ अपनी गति से अवध की तरफ बढ रहा था। धीरे-धीरे कैकेयी भी सामान्य होती जा रही थी। अवध की भव्यता उसने अनेकों से सुनी थी। अपने ससुराल का भावी दर्शन अपने मन में कर रही थी। पर एक सत्य यह भी है कि प्रत्येक के सोचने की एक शक्ति होती है। बचपन से जितना देखते आये हैं, उससे बढकर सोचते समय अक्सर बुद्धि जबाब दे देती है। कैकेयी को अनुमान था कि वह एक बड़े राज्य की रानी बनी है। अयोध्या एक बड़ा नगर है। पर अवध देश कितना बड़ा राज्य है और अयोध्या कितना बड़ा नगर है, इसकी कल्पना भी कैकय देश की राजकुमारी कर नहीं सकती थी।


 महारानी सुमित्रा की नम्रता प्रतीक थी कि फलों से लदे हुए वृक्ष नीचे ही झुकते हैं। बड़े पद को पाकर अच्छे अच्छों की बुद्धि भ्रमित हो जाती है। बड़े का अर्थ वास्तव में बड़ा अधिकार नहीं होता है। अपितु बड़े का अर्थ बड़ा कर्तव्य होता है। निश्चित ही एक बड़े राज्य की रानी बनने के बाद कैकेयी भी कर्तव्यों में खुद को बड़ा ही सिद्ध करेगी। पर एक सत्य और भी था। बड़े राज्य के राजपरिवार के लोगों का जीवन भी बहुत अलग होता है। हालांकि राजकुमारी कैकेयी को विदा कराने आये साधारण स्त्रियों से उसकी भेंट यह सिद्ध करती थी कि कैकेयी अवध की रानियों द्वारा अपनाये मार्ग पर ही चलेगी। फिर भी उस मार्ग की सही सही जानकारी देना आवश्यक है।


 अवध देश में प्रवेश के बाद महारानी सुमित्रा ने अयोध्या नगर में प्रवेश नहीं किया। अयोध्या से बाहर सरयू नदी के तट पर बने एक आश्रम की तरफ वह अवध की रानी को लेकर गयीं। यह आश्रम ब्रह्मर्षि वशिष्ठ का था। जो ब्रह्मा जी की मानस संतान थे। रघुकुल के आरंभ से ही कुलगुरु की जिम्मेदारी निभाते आये थे। उनके तप के प्रभाव से ही अवध सुख संपत्ति की राह पर बढता रहा। यह उन्हीं की शिक्षा का प्रभाव था कि अवध के राजा इतने प्रजावत्सल रहे थे। यह उनके ही संस्कारों का प्रभाव था कि अवध के राजा प्रजा के लिये तन, मन और धन भी अर्पण करते आये थे।


 आश्रम में रानियों का स्वागत एक कपिला गाय ने किया। महारानी सुमित्रा ने गौमाता को प्रणाम किया। देखा देखी महारानी कैकेयी ने भी गौ को प्रणाम किया। वह देव गौ कामधेनु की पुत्री नंदिनी थीं। जिनके प्रभाव से कुलगुरु वशिष्ठ को कभी भी राजदरबार से भिक्षा मांगने की आवश्यकता नहीं हुई। विभिन्न मौकों पर मिलने बाले दान को भी वह निर्धनों को दान करते आये थे।


 नवविवाहिता का आश्रम में स्वागत देवी अरुंधती ने किया। ठीक उसी तरह जिस तरह एक सास अपनी बहू का अपने घर में पहली बार स्वागत करती है।


 सैनिकों को महाराज दशरथ को सूचित करने भेज दिया। यह समय था उस शिक्षा का जो कुलगुरु वशिष्ठ रघुकुल की हर रानी को राजमहल में प्रवेश से पूर्व देते थे।


 राजकुमारों को एक राजा का कर्तव्य बताते आये कुलगुरु के अनुसार रानी का कर्तव्य भी राजा से किंचित कम नहीं होता है। जिस तरह एक राजा अपने प्रजा के लिये जीता और मरता है, उसी तरह रानी का भी प्रथम कर्तव्य केवल प्रजा के उत्थान के प्रयास करना ही है।


 वैसे महारानी सुमित्रा के निर्णय पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। फिर भी अवध की रानी की कुछ मर्यादा हैं। जो अन्य राज्यों में नहीं मिलतीं। अवध के राजमहल में आवश्यकतानुसार सेवक और सेविकाएं कार्यरत हैं। पर उन्हें उचित पारिश्रमिक देने का नियम है। अक्सर रानियों के साथ उनके पिता दासियों को भेजते रहे हैं। उन दासियों को केवल सम्मान के लिये स्वीकार किया जाता है। किसी भी मनुष्य या स्त्री को खरीदकर उससे आजीवन कार्य लेने की परिपाटी अवध में नहीं है। आपसे भी यही अपेक्षा रहेगी कि आप अपने साथ आयीं स्त्रियों से उनकी सहमति से उचित पारिश्रमिक देकर ही कार्य लेंगी। यदि कोई राजमहल में कार्य न करना चाहें तो वह खुद निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र है। वह अवध का एक नागरिक बनकर अपना जीवन जीयेगा।


 आज पहली बार कैकेयी को पता चला कि किसी से गुलामी कराना कितना गलत है। वह भी मंथरा को उचित पारिश्रमिक देगी।आखिर वह भी अब बड़े राज्य की रानी है। 


 शाम के समय महाराज दशरथ के आगमन के बाद कैकेयी ने अयोध्या नगर में प्रवेश किया। क्या कोई नगर इतना विशाल हो सकता है। उसकी कल्पना से भी बहुत विशाल। पूरे अठारह योजन परिमाप में बना भव्य नगर वर्तमान भारत के भी अनेकों बड़े नगरों से बड़ा था। वर्तमान इकाई के अनुसार लगभग 110 किलोमीटर परिमाप के आज भी बहुत कम नगर हैं। 


 द्वापर के अंत में महाराज युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ नगर की स्थापना की थी। इंद्रप्रस्थ नगर उस काल में अपनी विशालता और वैभव के लिये विख्यात था। इंद्रप्रस्थ की भव्यता ने दुर्योधन के मन में वैर को बढाया था। तात्कालिक इंद्रप्रस्थ नगर आज की पुरानी दिल्ली निश्चित ही अयोध्या नगर की तुलना में कुछ भी नहीं था। 


 लेखक खुद उत्तर प्रदेश के एक विशाल नगर आगरा में सन 2012 तक नियुक्त था। हालांकि वर्तमान में आगरा नगर पहले से बहुत ज्यादा बढ गया है। पर जिस समय लेखक आगरा में रहता था, उस समय भी आगरा के उत्तर से दक्षिण या पूर्व से पश्चिम की माप कहीं से भी पच्चीस किलोमीटर नहीं थी। मुगल कालीन आगरा तो निश्चित ही इतनी विशालता के समक्ष कही भी नहीं है। 


 कैकेयी ने अपने नवजीवन में प्रवेश कर लिया। बहुत छोटे राज्य की राजकुमारी रही कैकेयी अब बहुत बड़े राज्य की रानी थी। निश्चित ही कर्तव्यों के निर्वहन में महारानी कैकेयी ने कभी भी किसी को निराश नहीं किया। वह बड़प्पन के उसी रूप में ढल गयी जहाँ बड़े होने का अर्थ केवल और केवल त्याग था। 


क्रमशः अगले भाग में


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