कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते

कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते

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नेहा के आँफिस का पहला दिन था। मन में डर था कि ना जाने ये बॉस कैसे होगे। उसकी दोस्त जहाँ काम करती थी। उसके दोस्त के बॉस खडूस थे।

पर यहाँ आँफिस में आकर थोड़े दिन काम करके नेहा का नज़रिया ही बदल गया। करीब पचास के उमर में थे, बास उनके दो बच्चे थे जो अक्सर आँफिस में आया जाया करते थे। इनका आकर्षक व्यक्तिव नेहा को अपनी तरफ खींच रहा है। जब भी रुपेश दो मीठे बोल देते नेहा खुश हो जाती।


एक बार नेहा ओटो को इंतजार कर रही थी। जब रूपेश ने देखा कि अभी तक ओटो नहीं मिली है नेहा को तो उसने खुद नेहा को कहा "चलो मैं छोड़ देता हूँ। इतनी रात हो गई है। लगता है ओटो वालो ने हड़ताल कर ली है।"

नेहा जाकर गाड़ी में बैठ जाती है। रुपेश ने पूछा कुछ खाओगी तुम...... " उसने ना में जवाब दिया। "रुपेश ने एक रेस्तरां पर गाड़ी रोकता है। चलो कुछ खालो आज तुमने टीफिन भी नहीं लाई थी।

आपको कैसे पता चला कि नै टीफिन नहीं लाई थी?

मैने रिया से कहते हुए सुना था। अब चलो कुछ खालो।


इतने कम समय में सर मुझे समझने लगे थे। शायद एक दोस्त की तरह। कुछ अनकहा सा रिश्ता हो गया था उन दोनो में पर वो प्यार नहीं था। नेहा ये बात समझती थी। कि सर के बीवी और बच्चे है। और वह अपने परिवार से खुश थे। उनकी बीवी चाँदनी से मिली थी नेहा, एक बार उनकी शादी के सालगिरह पर, बहुत ही सुन्दर लग रहे थे दोनो साथ में । सर ने मिलाया भी था नेहा को चाँदनी से...बहुत खुश होकर मिली थी। और कहा "अच्छा यही नेहा है। आपके बारे में रुपेश ने बताया था।" उस समय नेहा अपने दिमाग के घोड़े को दौड़ाने लगी आखिर क्या बताया होगा सर ने।

"अरे आप तो परेशान हो गई, हमारे पति की खास बात ये है कि जो भी आँफिस में काम अच्छा करता है। उसकी चर्चा ज़रुर करते है। जैसे आप और रजत का।"

कुछ रिश्तों के नाम नहीं होते। पर बंध जाते है उस रिश्ते में वैसा ही रिश्ता बन गया था दोनो का। अनकहा सा।



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