chandraprabha kumar

Abstract

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chandraprabha kumar

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कथा का यथार्थ

कथा का यथार्थ

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कथा को तुम क्या समझते हो ? क्या कहा -‘रचनाकार की कल्पना से गढ़ी कोई कहानी’। नहीं- तब तो बन्धु मेरे- तुम कथा तत्त्व के मर्मज्ञ नहीं हो। क्या अपने मन की मनचाही उड़ानें लेकर कभी कोई कहानी सच में गढ़ी जा सकती है ?

कहानी तो होती है जीवन में आए चरित्रों की ही लेखक की लेखनी द्वारा अभिव्यक्ति। अपनी कल्पना से लेखक उन्हीं चरित्रों और अधिक मुखर बनाता है।व्यक्ति - सौन्दर्य को और अधिक अपने मतानुसार निखार देता है। यह तो लेखक के रचना कौशल पर निर्भर है कि अपने हाथ में आयी विषयवस्तु को वह किस भाँति सजाता संवारता है, रोचकता की चाशनी में पकाता है, हास्य का पुट देकर गुदगुदाता है। 

 चित्रकार प्रकृति के सौंदर्य को, निगूढ़ता को ,असुंदरता को ,जन जीवन में व्याप्त शिव - अशिव भावों को , व्यक्तित्वों को तूलिका द्वारा चित्रपट पर अंकित करता है मन चाहे रंगों से सजाता है। स्वनिर्मित तो किसी का कुछ भी नहीं है।नितान्त मौलिक तो कुछ भी नहीं है। सूरज उगता है, लाली फैल जाती है, अंधेरा भागता है, प्रकाश सब ओर छा जाता है। चित्रकार अपनी चित्र में इन भावों को सजाता है।कवि अपने गीतों में इन भावों को संवारता है और गायक अपने स्वर में इनको बॉंधता है। प्रेरक वस्तु एक है। भिन्न - भिन्न शिल्पी अपनी- अपनी कला के माध्यम से इनको ग्रहण करते हैं। 

अनन्त कथाएँ बिखरी पड़ी हैं सर्वत्र। तुम इनमें से कितनी चुन सकते हो, यह तुम्हारी कुशलता पर निर्भर है। 

उलझन मन की दूर हो गई। सहज भाव से लिख सकूँगी अब। डरती थी कि कैसे कथा कोई लिख पाऊँगी। मेरे में तो कुछ शक्ति नहीं है नया कुछ देने की। जीवन सागर में से कोई अनबिंधा मोती चुनूँगी और अपने रचना- कौशल से उसे संवारकर किसी मुकुट की शोभा बनाऊँगी। प्रतिभा जन्मजात होती है या नहीं ?नहीं जानती। मैं तो केवल इतना जानती हूँ कि सब क्षेत्रों से निराश मेरा मन सृजन के इस क्षेत्र में अपनी पीड़ा भुलाने का मार्ग पा सकता है। 

 मेरे मन की बात न हो तो कहॉं मैं जल्दी मानती थी। अपनी बात रखने के हठ ने न जाने कितनी गलती कराई। कई वर्षों की बात है पर उसकी याद अभी वैसी ही नयी है। तब मैं काफी छोटी थी। एक दिन सुबह मैं दूध नहीं पी पाई। घर में विवाह था। कार्य में व्यस्त सब ।किसी को ध्यान नहीं रहा,स्वयं मैंने किसी से कुछ कहा नहीं। रूठकर ऊपर कमरे में आकर बैठ गई। 

मेरी दादी मॉं को पता चला यह, तो वे दूध का गिलास लेकर, सीढ़ियॉं पार कर ऊपर आईं। क्षीणकाया ममतामूर्ति दादी मॉं अस्वस्थ थीं। उस समय उसका भी उन्होंने मेरे लिये कुछ ख्याल नहीं किया। मुझे मनाने लगीं दूध ले लेने के लिए। पर मुझमें विचार शक्ति कहॉं थी। ममता को पहचानने वाले नेत्र कहॉं थे !

 क्रोध से बोली मैं-“ मैं नहीं दूध पीती, क्यों लाई हैं आप ?”

 उन्होंने पुचकारकर गिलास हाथ में थमा दिया। 

मैंने कहा-“ ख़ाली दूध कैसे पी लूँ ? नमकीन के साथ पिया करती हूँ। “

 समझाया उन्होंने-“ बेटा ! पी लो । मैं इतनी दूर से खुद लाई हूँ जीना चढ़कर। 

मुँह फुलाये मैंने गिलास मुँह से लगाया और एक दो घूँट भरे। झुँझलाकर मैंने कहा-

“ दूध तो ठण्डा है। मैं तो बहुत तेज दूध पीती हूँ। । इसमें चीनी भी ज्यादा डाल दी आपने।”

 अब दादी मॉं ने कुछ नहीं कहा, मेरे हाथ से गिलास छीनकर पटक दिया। फ़र्श पर दूध ही दूध बिखर गया। उनकी आँखों में ऑंसू भर आये ,उनका गौरवर्ण सुन्दर मुखमण्डल आरक्त हो गया और रोती हुई वे बोलीं-“मुझे ही आग लगी रहती है जो सबका ध्यान रखती फिरती हूँ। मुहब्बत को तो तुम क्या जानो?”

 और रोती हुई वे कुछ बड़बड़ाती हुई नीचे लौट गईं। मैं अपने अभिमान से भरी वहीं प्रस्तर प्रतिमावत् बैठी रही। उठकर क्षमा भी न मॉंग सकी उनसे। 

बहुत देर बाद पश्चात्ताप के ऑंसू नेत्रों में घिर आये पर फिर भी नीचे जाकर अपना अपराध उनके समक्ष स्वीकार न कर सकी। 


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