कोरोना काल में बचपन
कोरोना काल में बचपन


रात के करीब 11 बजे का वक़्त है, निसर्ग तूफान के बाद आंधी और बरसात का दौर जारी है। माँ धानी को बैडरूम में सुलाने की कोशिश कर रही है, इसी बीच बिजली चली जाती है। एक कामकाजी मध्यमवर्गीय युगल जो महामारी के बीच 3 महीने से बैंक और होम आइसोलेशन जैसे विभागों में आवश्यक सेवाएँ दे रहा है उसके लिए इस समय बिजली का जाना अगले दिन के और ज्यादा चुनौतिपूर्ण होने का एहसास है लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी अभी आधी रात को साढ़े चार साल की बच्ची के डर को दूर करना है ।
धानी डर रही है, अंधेरे से, नही शायद कोरोना से, वो रोने लगती है बिजली की कड़क के साथ और जोर जोर से बोलने लगती है - मम्मी पापा ये कोरोना कब जायेगा ? हमने थाली भी बजाई, दीए भी जलाये, मास्क भी लगाया पर ये तो जा ही नही रहा है। हमने इसका क्या बिगाड़ा है, मैंने तो उसे देखा भी नही है आज तक। मुझे स्कूल जाना है। डे केअर जाना है अपने दोस्तों से मिलना है, उनके घर जाना है, प्लेग्राउंड जाना है, पार्क जाना है, स्लाइड पर खेलना है।
माँ बाप दोनों स्तब्ध थे, एक छोटी और मासूम सी बच्ची से ये सब सुन के दोनों अवाक् रह गये। दोनों के पास धानी के एक भी सवाल का जवाब नही था। धानी ने एक साँस में अपना पूरा दर्द बयां कर दिया था वो घुट गयी थी एक फ्लैट में कैद होके, उसका बचपन अलग हो गया था, टीवी - मोबाइल, ड्राइंग पैन्टिन्ग, टॉयज और कामकाजी माँ बाप को घर में रहते हुए भी फ़ोन पर उलझते देखकर शायद थक चुकी थी पर आज उससे आज शायद रहा ना गया और वो फट पड़ी। एक दो बातें उसने पहले भी कही थी परन्तु आज उसने जो कुछ कहा उससे दोनों को धानी और उसके जैसे करोडों बच्चों की मानसिक पीड़ा का असहनीय दर्द महसूस हुआ जिनका बचपन 2 गज की दूरी ने एकदम बदल सा दिया है।
निःशब्द और सुन्न माँ ने धानी को गोद में लिया और उसे प्यार से पुचकारते हुए दिलासा देने लगी की बेटा बस कुछ दिनों की बात है फिर हम पार्क जायेंगे, घूमने जायेंगे, कोरोना तब तक चला जायेगा। पता नही धानी ने माँ की बात सुनी या नही क्योंकि वो सो चुकी थी एक नई और अच्छी सुबह की उम्मीद में।