कोरोना दौर की गपशप
कोरोना दौर की गपशप
‘ट्रिन- ट्रिन’ फोन की घंटी बजी। कांता जी सोफे पर अधलेटी होकर, सुस्ता रही थीं और सुस्ताते हुए धीरे- धीरे, नींद की खुमारी, उन पर सवार हो रही थी। अपना स्मार्टफोन, पहले ही उन्होंने साइलेंट कर दिया था। ऐसे में लैंडलाइन के कर्कश ‘आलाप’ ने, घोर, असहनीय व्यतिक्रम पैदा कर दिया। फोन का चोंगा उठाया तो दूसरी तरफ से कोई खुरदुरा सा महिला स्वर उभरा, “पहचाना?” “कौन??”
“हम स्नेहलता.. और कौन?!”
“स्नेहलता...?” कांता जी धीरे से बुदबुदायीं। इस नाम की, किसी भी महिला को, वे जानतीं नहीं थीं...उन्होंने किंचित संकोच से पूछा, “आप ...?”
“क्या आप, आप लगा रखी हो जिज्जी?? हमको तो अंशू की शादी की, मुबारकबाद देनी थी...एही खातिर, फोन किए रहे। काहे से, ई कोरोना के फेर में... शादी में आने का तो, कउनो सवाल ही नहीं”
“ओह, अच्छा...धन्यवाद”। कांता जी को अब जाकर समझ आया कि ये ‘तथाकथित’ स्नेहलता, उनकी कोई पूर्व परिचिता थीं; जिनके बारे में फिलहाल, उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा था।
“हम का बताएं जिज्जी! आप ही कहो। बगैर रौनक के बियाह कैसा?! हमरे आगरे में तो, बहुतेरे लगन टल गये”
“सच कहा बहना” (अब कांता जी भी मूड में आ गईं थीं। एक तो उनकी नींद उड़ गयी और दूसरे- किसी ने उनकी दुखती रग छेड़ दी थी।)
“पर...साइत भी तो कोई चीज होती है! पंडित जी बोले, अच्छा मुहूर्त अब साल भर बाद आएगा। इसी से अंशू के मामले में...”
“लेकिन जिज्जी... ब्याह- शादी कउनो मजाक नहीं...जिन्दगी में, एकै बार, गाँठ जोड़ी जाती है.” स्नेहलता ने दार्शनिकों जैसे गहरे स्वर में, प्रतिक्रिया दी।
“तुम बिलकुल ठीक कह रही हो बहना! लेकिन अंशू ने हमारी एक ना सुनी... ब्याह को टालना, उसे मंजूर नहीं था”
“ई नए जमाने की हवा ही कुछ ऐसी है जिज्जी” अब तक कांता जी को विश्वास हो गया था कि हो न हो स्नेहलता, उनकी आगरे वाली रेनू चाची की ही, कोई पड़ोसन है। स्नेहलता के लहजे में, थोड़ा गंवई पुट था। रेनू चाची के साथ , उनके मोहल्ले की कुछ औरतें, इसी अंदाज़ में बतियाती थीं। कांता जी ने बात को आगे बढ़ाया, “सरकार ने तो दो टूक फैसला सुना दिया...”
“का जिज्जी?”
“अरे यही कि शादी में जनाती- बराती, दूल्हा- दुल्हन, परजा- पंडित; सब मिलाकर, बीस से ऊपर लोग नहीं होने चाहियें...हम भी उस फैसले के आगे, मजबूर हो गये”
“कलियुग में, बहुतै पाप हुइ रहे हंय...एहीलिए ई सब देखना बदा है” कांता जी को गपशप में मजा आने लगा था। कोरोना के चलते, घर का कामकाज, बढ़ गया था। ऐसे में बतकही का आनंद कहाँ मिलता था! उनकी सहेलियां भी, गृहस्थी में ऐसी डूबी हुई थीं कि फोन पर उपलब्ध नहीं होती थीं। “और रेनू चाची कैसी हैं?” कांता जी ने, बात का जायका बदलने के लिए पूछा। इस बार चकराने की बारी, स्नेहलता की थी। न जाने जिज्जी, किस रेनू की चर्चा कर रही थीं?!
स्नेहलता को लगा, कोई ना कोई रेनू तो होगी; नहीं तो जिज्जी, उसका जिकर, काहे को करतीं?! अपनी अज्ञानता पर पर्दा डालने के लिए, उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, “ऊ सब छोड़ो...आजकल एक चीज तो अच्छी हुइ रही है...हर आदमी, घरवाली संग, घर-दुआर के काम में लगा हय। घरवाली भी खुश...काहे से, पति ऊकी खातिर टैम निकाल रहा है, ऊकी मदद कर रहा है।”
“सच कहा बहना! भला हो लॉकडाउन का...इस दौरान, घंटे बजाने और दिए जलाने वाले टास्क बहुत अच्छे थे; लेकिन उनमें भी कहीं- कहीं गड़बड़ हो गई...नियम- क़ानून तो बने हैं, पर सब लोग मानते कहाँ है?! पुलिस ने कइयों को मार लगाई, तो भी वे सुधरे नहीं!”। गप्पें दिलचस्प होती जा रही थीं। संक्रमण के युग में, बाजार के पैकेट और सब्जी धोकर इस्तेमाल करने जैसे विषय भी उठाये गये।
कांता जी के यहाँ, आज डिनर में मैगी बनना था, इसलिए वे आराम से बतिया रही थीं। अचानक स्नेहलता बोली, “अंशू की शादी, अच्छे से निपट जावे..। भगवान से एही मनौती हय”
“लेकिन अंशू की शादी तो हो चुकी...आप किस अंशू की बात कर रही हैं??”
“अंशू बिटवा की”
“पर अंशू तो मेरी बिटिया है!”
“आप रायपुर वाली सुमन जिज्जी नहीं हो?!”
“नहीं तो! मैं तो कांता हूँ और मैं...मैं गाजियाबाद में रहती हूँ!!” कांता जी ने लड़खड़ाती हुई जुबान से कहा। “माफ़ करना...गलत नंबर लग गया”, दूसरे छोर से हकलाहट भरी आवाज उभरी और फोन कट गया।