अख़लाक़ अहमद ज़ई

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5.0  

अख़लाक़ अहमद ज़ई

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कोंडीबा का सच

कोंडीबा का सच

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उसे रह-रहकर हरणा पर गुस्सा आ रहा था। उसी की वजह से वह लखपति बनते-बनते रह गया। आज वह घर में था तो समझो दस हजार का इनाम मिल गया। वरना आज भी वह चाय पिलाकर टिरका देती और दस हजार पर पानी पड़ जाता।

‘‘मैं तेरे को बोलता था कि अपुन का ठेकेदार आया करे तो उसे थण्डा-बिण्डा (कोल्ड-ड्रिंक) मंगा दिया कर पन तेरे मगज में कुछ घुसे तब न!’’

‘‘मेरे को क्या मालूम कि इसके ढक्कन में दस हजार रहता है!’’

‘‘अब तो मालूम हो गया न! सोच, थण्डा मंगाती होती तो अब तक कितने दस हजार मिल गए होते?’’

हरणा मुंह टेढ़ा करके चुप गई। पढ़ी-लिखी होती तो पता भी रहता। सोचा, बोल दे - तुम भी तो गोबर उठाने के लायक हो। तुम्हींच को कौन-सा पता था? भला हो ठेकेदार का जिसने ढक्कन फेंकने से मना किया और देखकर बताया कि उस पर दस हजार मिलेगा।

कोंडीबा ने कोने में पड़ी गुदड़ी खींचकर कई तह में मोड़ा फिर तकिया की तरह सिर और दीवार के बीच रख, अधलेटा हो गया और एक पैर के घुटने पर दूसरे पैर की फिल्ली टिकाकर पंजे को हिलाने लगा जैसे कोई मोटा साहूकार फुरसत के क्षणों में तोंद सहलाते हुए आराम कर रहा हो।

‘‘क्या बना रही है रे?’’ कोंडीबा ने रूआब से पूछा।

हरणा ने घूमकर देखा- मेल्या (मरियल,सुस्त), ऐसे पूछ रहा है जैसे कमाकर रख गया था। दूसरों की चौका-भांडी करके न लाऊं तो उपवास पे उपवास हो। खुद कमाएगा वह अड्डे पे दे आएगा!

‘‘साई-भाजी और ज्वारी की रोटी। ’’ हरणा मेथी की पत्तियां कुटकते हुए बोली।

कोंडीबा चिढ़ गया।

‘‘तुजा आई ला (तेरी मां का), दर दिन साई भाजी, दर दिन साई भाजी।

उसको छोड़, जा बकरी का फेफसा (फेफड़ा), नहीं तो सुखा बोमिल या पापलेट ( मछली की एक जाति) ले के आ और भल्लूमल के यहां से बीस रुपये वाला किनी चावल ला। आज अपुन पार्टी बनाते हैं।’’

होठों पर मुस्कराहट लिए हरणा ने कोंडीबा को ऐसे देखा जैसे पूछ रही हो- आज तेरी आजी का बड्डे है क्या? फिर भी बरदाश्त नहीं हुआ तो बोल ही बैठी- हां, क्यों नहीं। तेरा बाप बकरी वाले भय्या, मच्छी वाली बाई और भल्लूमल के पास कमा-कमाकर रख गया था न! इसलिए मैं जैसे पहुंचूगी वैसे ही सब पुड़ी बांध-बांधकर दे देंगे। बोलेंगे- जा माई अपने सासरे की दौलत पर ऐश कर।’’

कोंडीबा हंसने लगा।

‘‘गप रे गप (चुप रे चुप) जास्ती बोलबचन मत कर। ले दह रूपए। भल्लूूमल को बोलना- आधे घंटे में मेरा छोकरा आएगा उसको दो बाटल थण्डा दे देने का और तू चावल ले के आ जा। बोलना- खाते में लिख ले। सबका हिसाब एक साथ करेंगे और बोल देना- मैं एक घंटे में आराम-बिराम करके आ रहा हूँ। दस हजार निकाल के रख। मेरे को जगह पे मंगता है। रोकड़ा।’’

हरणा ने जिस स्टील की छोटी-सी थाली में मेथी की पत्तियां तोड़कर रखी थीं, उसी में बगैर टूटे हुए, डंठलों में लगे मेथी के साग को समेट कर रख दिया।

थाली को स्टोव की तरफ सरकाकर खाली डंठलों को बटोरने लगी।

‘‘मेल्या,दस रूपए में पापलेट खाएगा!’’ हरणा झुंझला उठी।

‘‘हलकट, बोमिल तो मिलेगी? जा चल, वही ले के आ।’’

हरणा एक हाथ में साग का कचरा और दूसरे हाथ में कोंडीबा द्वारा फेके गए दस के नोट को उठाकर बाहर निकल गई। कोंडीबा ज्यों का त्यों लेटा रहा। फिर आंखेंं मूंद ली।

आज ठेकेदार उसके लिए भगवान बन के आया और दस रूपये के बदले दस हजार दे के चला गया। उसे देवा, पांडुरंगा ने जैसे उसी के लिए भेजा हो। उसका धंधा-पानी भी तो उसी से चलता है। बिल्डिंगों में कलर लगाने का काम उसी के मार्फत तो मिलता है।...लेकिन अब कलर-बिलर का काम नहीं होता। झूले पर बैठ कर जान जोखिम में डालना पड़ता है। किसी दिन टपक गया तो कुलभूषण का ‘बस ठैंक्यू ’ हो जाएगा।

लेकिन अगले ही क्षण उसने अपने-आप को सुधार लिया-छि: पागल है क्या? खुद का काम छोड़ने की सोच रहा है। इतना लक्की ठेकेदार मिला है फिर भी। इससे अच्छा रतन को एक दुकान खुलवा देगा। इधर-उधर फालतू भाईगीरी करते फिरता है

। दुकान पर बैठेगा तो दो पैसे की आमदनी भी होगी और उसका भी लोफड़ों का साथ छूटेगा। धंधा जम गया तो हरणा का चौका-भांडी का काम छुड़वा के दुकान पे बिठा देगा।

हरणा को भी बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। चार-चार घरों का जूठा बरतन, गंदे कपड़े धुलना, झाडू-पोछा लगाना फिर अपने घर का भी काम करना। बेचारी को सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती। कितनी पतली हो गई है। सुखा बोमिल का माफिक। इनाम के रूपये मिलते ही उसके लिए सबसे पहले टानिक-बीनिक ला के देता हूँ। बोलूंगा- ले, पी और बॉडी बना फिर कोई काम-धंधे की बात। फिर देखना, अपनी सुखा बोमिल मस्त जाड़ी हो जाएगी।

अपुन का रतन वैसे हुश्यिार है। धंधा तो ऐसे... (उसने लेटे-लेटे चुटकी बजायी) ऐसे जमा लेगा!...वो भय्या साला, यूपी से सिर्फ एक गोनी (बोरी) में भांडी ले के आया था दो बरस पहले। मेरे सगे वाले की खोली (कमरा)भाड़े पे ले के छोटी-सी दुकान की थी उसने और साला, दो ही बरस में दो-दो खोली का मालिक बन गया। किराने की दुकान अलग और आटे की चक्की अलग। उसकी औरत को देख! रोज नए-नए बच्चे पैदा करती जा रही है। एक गोद में और एक पेट में लेकर आई थी फिर एक गोद में और एक पेट में आ गया। धकाधक दोनों तरक्की पे तरक्की करते जा रहे हैं। फिर अपुन तो महाराष्ट्रीयन माणुस (मानुष) हैं! साले का अपुन बैंड बजा डालेगा।

कोंडीबा ने करवट बदला।...धंधा चल गया तो अपुन की चल पड़ेगी बाप! फिर तो पाउच-वाउच की मां की आंख। सीधा बैगपाइपर, नम्बर वन की बाटली कबाट के ऊपर सजा के रखूंगा और लिंबाजी को ले के आऊंगा फिर दिखा-दिखा के साले की... लाल करुंगा। उसने आलमारी की छत की तरफ लेटे-लेटे एक सरसरी नजर दौड़ाई।...लेकिन कबाट पर नहीं रखूंगा। मेरी छोकरी भी पूरी एड़ी (पागल) है। कभी जोर से कबाट खोली या बंद की तो एक ही फटके में बाटली की वाट लगा डालेगी। उसके लिए कहीं दूसरी जगह बनानी पड़ेगी।

कोंडीबा दनदना कर उठ बैठा। मन की खुशी चेहरे पर उभर आई- इसकी मां का ... इता अच्छा धंधा और अपुन का मगज ही काम नहीं किया। उसने अपने सिर पर एक जोर की चपत लगाई- अबे बेवड़े, तू भी हमेशा धुनकीच में रहता है! अब तेरा भी टाईम खल्लास। घर में बच्चा, शहर में ढिढोरा।...दारू का धंधा बाप, दारू का। एकदम सॉलिड धंधा। पिवर गावठी (शुद्ध गांव का) माल!...अरे पोलिस क्या करेगी? अपुन का छोकरा रतन किस दिन काम आएगा। साला, गांडू, हर महीने पोलीस टेशन हाजरी लगाकर आता है तो कुछ तो पहचान बनाया ही होगा न! वह किस दिन काम आएगा!

कोंडीबा मुस्कराया- साले लिंबाजी को अब बताऊंगा। उस दिन अड्डे पे भोत अकड़ रहा था। अढ़ाई रुपए मांगा तो गांडू ने कित्ता बोल-बचन सुनाया। जैसे कब्बी उसकी उधारी मैं दियाइच नहीं ! मेरे अड्डे पे आएगा उधारी मांगने फिर बताता हूँ! उसकी पिछाड़ी पे जोर से लात मारूंगा। सच्ची, फिर देख, कैसा बाजा बजाता हूँ उसका।

उसने हिसाब लगाया- उसके पाड़े (मोहल्ले) में रेगुलर पीने वालों की संख्या हजार से कम नहीं होगी फिर छुट्टा पीस की कोई गिनतीच नहीं है। अगर दर दिन हजार पाउच भी बिक गया तो भोत है। पोलीस-बीलीस को खिला-पिला के हजार रूपये डेली का बच गया तो भी भोत है। फिर दूसरे अड्डे से पचास पैसा कमती रखेगा तो दूसरे अड्डे के ग्राहक भी इधरइच भागकर आएंगे।

कोंडीबा को ध्यान आया कि लेन-देन में देरी नहीं करनी चाहिए। क्या पता, भल्लूमल की नीयत बदली हो जाए या उसके पॉकेट में पैसा ही न बचे। रूपए कहीं अपने व्यापारी को ही उठाकर दे दिया तो एक-दो दिन लटकना पड़ सकता है।

वह झट से उठा। आलमारी से धुला हुआ सफेद शर्ट-पैंट निकाला और बगैर इस्त्री के चढ़ा लिया। कपड़े पर पड़ी सिलवटों को उसने हाथों से दो-तीन बार रगड़-रगड़ कर निकाला। सिर में दो-तीन बार कंघी फिरायी फिर बाहर निकल कर दरवाजा बंद किया और कड़ी फंसाकर आहिस्ता-आहिस्ता कदमों से आगे बढ़ चला। सधे हुए और नपे-तुले कदम रखता हुआ।

थोड़ी ही दूर बढ़ा था कि सामने सुरडकर अपने दरवाजे पर खड़ा दिखा। 

वह उसी पर नजरें टिकाए बढ़ने लगा। उसने सोचा- अगर वह बाहर निकल ने का कारण पूछेगा तो वह बताएगा कि उसको थण्डा के ढक्कन पे दस हजार का इनाम मिला है, वही लेने जा रहा हूँ। करीब पहुंचने पर सुरडकर ने नमस्ते किया ‘‘भाऊ (भाई)जय भीम। ’’ कोंडीबा सुरडकर के सामने खड़ा हो गया।

‘‘कैसे हो सुरडकर?’’

‘‘हां भाऊ, मस्त। चकाचक।’’ सुरडकर ने आगे न तो कुछ कहा और न ही कुछ पूछा।

कोंडीबा थोड़ी देर तक उसकी शक्ल देखता रहा फिर आगे बढ़ चला। उसने सोचा- उसने गलत किया। उसको किसी की तबियत-पानी नहीं पूछनी चाहिए।

उसे दस हजार का इनाम मिला है कोई मामूली बात थोड़ीच है। सेठ लोग अभी कैसा नमस्ते का जवाब मुंह से बिना बोले, सिर हिलाकर देते हैं, वैसाइच उसको भी जवाब देना चाहिए था। अब उसका अपना भी कोई रुआब है।

वह तन कर चलने लगा। मोहल्ले की दुकानें उसे दिखने लगी थीं। दुकानों के आसपास बहुत से जाने-पहचाने चेहरे भी। उसे अचानक भय्या अपनी दुकान पर खड़ा दिख गया। ग्राहकों से घिरा हुआ। उसके मन का उबाल ऊपर उठने लगा।

‘‘क्या रे भय्ये, बड़ी कमाई कर रहा हैं? ठहर, तेरी बुच मैं ही मारने वाला हूँ।’’ कोंडीबा भूल गया कि वह किराने की दुकान खोलने के बजाय दारू का धंधा करने का निश्चय कर चुका है इसलिए भय्या अब उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं रहा।

भय्या के साथ-साथ दुकान पर खड़े सभी ग्राहक उसे घूमकर देखने लगे। भय्या ने दुकान से सिर निकाल कर देखा पर किसी की भी समझ में नहीं आया कि कोंडीबा ऐसा क्यों बोला। भय्या के चेहरे पर हल्की-सी दर्द की परछार्इं उतर आई।

कोंडीबा बिना रूके आगे बढ़ता चला गया। उसे एक दुकान पर बाणू (बाळू) खड़ा दिखा। वह खरीदारी करने में व्यस्त था। उसने अंदाजा लगाया कि दुकान के सामने पहुंचते-पहुंचते बाणू अवश्य ही घूमेगा और उसकी नजर उस पर पड़ेगी तो वह जरूर बाजार की तरफ निकलने का कारण पूछेगा पर दुकान के करीब पहुंच जाने के बावजूद बाणू नहीं घूमा तो वह दुकान के सामने खड़ा हो गया। बाणू को देखते हुए।

अब तक कई लोगोें की नजरें उस पर टिक चुकी थीं लेकिन उसकी नजर बाणू पर ही टिकी थी। अचानक उसके सामने से हरणा निकली तो उसने जोर से पुकारा-

‘‘क्या रे, क्या लाई?’’

हरणा धीरे से रूकी फिर चल दी ।

‘‘बोमिल।’’

‘‘चटनी-बिटनी डाल के मस्त तीखट बना।’’ कोंडीबा जोर से चिल्लाया ताकि उसकी आवाज दूसरे लोग भी सुन लें। आवाज सुनकर बाणू घूमा।

‘‘भाऊ, किधर?’’

‘‘बस, इधरइच। वो अपुन के छोकरे लोग थण्डा-बिण्डा मंगाते रहते हैं, उसी के ढक्कन पे दस हजार का इनाम मिलेला है। ’’

आस-पास खड़े कई लोगों की आंखें फैल गई।

‘‘ दस हजार!’’

‘‘आई शपथ?’’ बाणू तो खुशी से उछल पड़ा।

‘‘अब तेरे से झूठ बोलेगा क्या?’’

‘‘फिर तो पार्टी-बीर्टी देना पड़ेगा। ’’

‘‘बिनदास, जब बोल। ’’ कोंडीबा हंसने लगा ‘‘पहले जा के देखंू तो, क्या लफड़ा है।’’ उसने लापरवाही से कहा। वह ऐसे दर्शाना चाहता था जैसे उसकी नजर में दस हजार की कोई अहमियत ही न हो।

कोंडीबा को सुकून हो गया कि यह दस हजार मिलने की बात कुछ ही देर में उसकी पूरी बिरादरी में फैल जाएगी। बिरादरी में अब उसकी भी एक पहचान होगी।

उसने भल्लूमल की दुकान के सामने कदम रखते ही आवाज लगाई-

‘‘चल रे, दस हजार निकाल।’’ कोंडीबा ने काउन्टर पर ढक्कन जोर से पटका।

इलेक्ट्रॉनिक तौल मशीन के कटोरे में मूंग की दाल डालते हुए भल्लूमल ने सिर घुमाकर कोंडीबा को देखा।

‘‘काहे का दस हजार?’’

‘‘ ऐ, जास्ती बन मत। ऐसा बोलता है जैसे इसको कुछ मालूमीच नहीं! तेरे को मेरी औरत ने कुछ बताया नहीं क्या?’’

‘‘उसने बताया लेकिन तू भी तो कुछ बक। मेरे को भी पता चले कि काहे का दस हजार मांग रहा है तू।’’

‘‘मेरा छोकरा दो घंटा पहले थण्डा ले के गया था उसी ढक्कन में मेरा लक्की ड्रा निकला है। ठेकेदार ने मेरे को सब बताया। मेरे को शेंडी मत लगा। चल निकाल फटाफट। मेरे पास जास्ती टाईम नहीं है।’’

भल्लूमल ने ढक्कन उठाकर उसके अन्दर छपे नम्बर को देखा फिर उसके हाथ में वापस पकड़ा दिया।

‘‘टी.वी. पर नम्बर देता है उससे मिलाया क्या?’’

‘‘मेरे पास टी.वी. होती तो तेरे पास आता क्या?’’

भल्लूमल चिढ़ गया।

‘‘इसीलिए झक मराने मेरे पास आया है? टी.वी. पे इसका नम्बर देखकर पहले मिला। पेपर में भी नम्बर आता रहता है। ’’

‘‘मेरा ठेकेदार कब्बी झूठ नहीं बोलेगा। ’’

‘‘फिर ऐसा कर, तू इसको एजेन्सी पर ले के जा। सेक्टर पांच। तेरे को पैसा वहीं मिलेगा।’’

‘‘क्या रे, मेरे को यूपी का भय्या समझा है? थण्डा लेऊं तेरे यहां से और इनाम लेने जाऊं एजेन्सी पे?’’

‘‘मेरे को मालूम है तू मामा है पर किसी से भी पूछ कि इसके इनाम का पैसा किधर मिलेगा।...ऐसा कर, तू यहीं खड़ा रह। अभी एजेन्सी की गाड़ी आती होगी उसके ड्राईवर से पूछ, वह सब बताएगा। ’’

कोंडीबा खामोश हो गया। उसे भल्लूमल की बात कुछ-कुछ सच लगने लगी थी।

‘‘कांजुर मार्ग स्टेशन के बाहर ढेर सारी गाड़ियां खड़ी रहती हैं उधर भी इसकी एजेन्सी है और मेन एजेन्सी भायखला से पहले एक स्टेशन पड़ता है...नाम याद नहीं आ रहा है, उधर भी मिलेगा।’’ बगल में खड़े एक आदमी ने उसको सलाह दी।

वह खामोश खड़ा सुनता रहा। उसे अपनी कम जानकारी पर क्षोभ होने लगा। एक छोटी-सी टीवी ही खरीद लेता तो उसके पास भी सारी जानकारियां होतीं। लक्की ड्रा का नम्बर भी पता चल जाता।

उसने सोचा- वह एक टीवी जरूर अब खरीदेगा भले दूसरे काम रोकने ही क्यों न पडेंÞ। उसे याद आया- श्याम टीवी सर्विस वाला एक छोटी ब्लेकन-व्हाइट टीवी चार सौ में दे रहा था। उससे बोलेगा कि टीवी अपुन को चाहिए तो सौ-पचास कमतीच में दे देगा।

उसे दूर एक बड़ी गाड़ी आती दिखी। उसके दिल की खुशी अठखेलियां करने लगी। धीरे-धीरे गाड़ी नजदीक आती गई फिर धीरे-धीरे उसका मन उदास होने लगा।

गाड़ी पास आकर सामने से निकल गई।

‘‘देख-देख, यही गाड़ी संग्रेला रिसार्टस की है।’’ भल्लूमल ने किसी को दिखाया ‘‘भिवंडी-नासिक रोड पर बहुत जबरदस्त बनाया है। बहुत बड़े एरिया में। उसमें वाटर पार्क भी है। मैं गया था बच्चों के साथ। बहुत मजा आता है। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां दिखाई देती हैं। यह अपना जवाहर होटल वाला है न! उसी ने बनवाया है। ’’

कोंडीबा को यह सब सुनकर अच्छा नहीं लगा। साला, अपुन के ही नसीब में कीड़े पड़ गए हैं। इत्ती कमाई ही नहीं है कि बच्चों को कहीं ले जाकर घुमा सकूं।

उसने निश्यच किया- धंधा जम गया तो हर बरस मौज-मजा के लिए वह भी कुछ दिन जरु र निकालेगा और पूरे परिवार के साथ छुट्यिां मनाएगा। वह खड़ा-खड़ा बोर होने लगा।

‘‘इसकी एजेन्सी किधर है?’’ कोंडीबा ने भल्लूमल से पूछा।

‘‘तहसीलदार का आॅफिस है न। उससे पहले ही। किसी से भी पूछना। उधर ही गाड़ियां लाइन से खड़ी रहती हैं। वहीं एजेन्सी के सामने।’’

वह दुकान के सामने से धीरे-धीरे खिसकने लगा। वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे उसी रास्ते से वापस घर के लिए लौटना चाहिए, जिस रास्ते से होकर अभी आया था या उसे रास्ता बदल देना चाहिए।

‘‘ कुछ इधर भी ख्याल कर भाई!’’ भल्लूमल ने टोका तो कोंडीबा ठहर गया। उसकी समझ में आ गया कि वह उधारी की बात कर रहा है।

‘‘देता हूं न यार, घबरता क्यूं है। वैसे आज का लेके कित्ता हुआ?’’

‘‘तीन सौ पचहत्तर।’’

उसने सोचा- थण्डा के लिए कहलवाया था, दो बाटल लेता चले। चार सौ हो जाएगा। कौन-सा बहुत है? उधर से पैसा मिलते ही फटाफट चुका डालेगा। लेकिन मन अन्दर से उदास लगा। वह बगैर बोले चल दिया।

उसने वापसी के लिए नया रास्ता चुना। क्या पता, उसी रास्ते से लौटने पर किसी ने इनाम के बारे में पूछ लिया तो क्या बोलेगा? क्या यह कि रुपए यहां से नहीं, एजेन्सी से मिलेगा? और अगर वहां भी न मिला तो? फिर क्या जवाब देगा?

कोंडीबा घर में घुसा बुझा-बुझा-सा। हरणा स्टोव के सामने बैठी थी। उसे देखते ही खाना निकालने के लिए पतीली की तरफ हाथ लपकायी।

‘‘चला जेवण करा।’’

वह पहले जहां से उठा था वहीं फिर ढह गया और वही गुदड़ी सिर के पीछे लगाकर अधलेटा हो गया। कमरे में भरी बोमिल की बदबू भी उसे आकर्षित न कर सकी।

‘‘कुछ भी खाने का मन नहीं कर रहा ।’’

तवा में रखी, तली मछली को निकालने के लिए कबगीर अन्दर घुसाया ही था कि हरणा का हाथ जहां का तहां ठहर गया।

‘‘क्यों, क्या हुआ? कहां गए थे? ’’

‘‘अरे, वही भल्लूमल साले के पास गया था। गांडू बोलता है- एजेन्सी से मिलेगा, यहां से नहीं। मेरे को लगता है, साला शेंडी लगा रहा है।’’

‘‘फिर एजेन्सी जाके देखने का न।’’

‘‘देखने का तो पन जाने-आने के लिए भाड़ा भी तो चाहिए। तेरे पास हो तो दे, जाता हूँ।’’

‘‘किता?’’

‘‘दस-पन्द्रह रूपए।’’

‘‘दस-पन्द्रह तो नहीं है।’’ हरणा चिंतित हो उठी- ‘‘पन वापिस देने का वादा कर तो उधारी किसी से लेके आती हूं।’’

‘‘देऊंगा रे! अब्बी मिल गया तो अब्बीच देता हूं।’’

हरणा बिना बोले झट खड़ी हो गई।

‘‘पोरी (लड़की) नहीं आई क्या?’’

‘‘पुष्पा?’’

‘‘हां।’’

‘‘उसके भी जान के लफड़े कम थोड़िच हैं। उसकी सेठानी एक लादी कपड़ा निकाल दी होगी। धोते-धोते बेचारी के बारह बज जाते हैं।’’ हरणा बाहर निकल गई।

कोंडीबा को अपनी बेटी पर प्यार आने लगा। वह होती तो अपने बाबा का मुरझाया चेहरा थोडे इच देख पाती। अभी फटाफट पन्चवीस-पन्नास (पचीस-पचास)रूपये निकालती और बोलती - ‘‘ले बाबा, ऐश कर।’’

उसने तय किया कि वह अपनी बेटी की शादी में धमाल मचा डालेगा। बारातियों और बिरादरी वालों को दारू से नहला देगा। बोलेगा-लो पियो। खूब पियो और गटर पंचमी- (बसंत के तीसरे दिन बे हिसाब दारू पीने का उत्सव) मनाओ। आज अपुन की बेटी की शादी है।’’

हरणा ने वापस आकर उसे पन्द्रह रूपए थमा दिए।

‘‘राहुल की मां से ले के आई हूं। जरूर दे देना।’’

‘‘दे देगा रे! काहे का अभी से जान दिए दे रही है।’’

कोंडीबा झट से उठा और रूपए लेकर बिना वक्त गंवाए बाहर निकल गया। 

वह जिस नए रास्ते से आया था, उसी रास्ते से बढ़ चला। उसने सोचा, अब कोई न मिले तो अच्छा है। टोकने से भी पनौती लग जाती है। उसने एक गली अभी पार की ही थी कि मोड़ पर भानुदास मिल गया।

‘‘जय भीम।’’ नजर मिल जाने से कोंडीबा उसको नजरअन्दाज भी न कर सका।

‘‘जय भीम, किधर कोंडीबा?’’

कोंडीबा के तन-बदन में जैसे आग लग गई- साले को अभी ही निकलना था? पर बनावटी मुस्कराहट होठों पर खींच ली- ‘‘नहीं, बस ऐसे ही।’’

भानुदास चलता चला गया। कोंडीबा को अपने-आप पर गुस्सा आने लगा- क्या जरूरत थी नमस्ते करने की? हम लोगों में यही कमी है। संयम जरा भी नहीं है। लग गई न पनौती! वह मन ही मन गिड़गिड़ाने लगा। आस्था बलवती हो गई- हे देवा, हे शनि महाराज, आज अपनी पनौती वापिस ले लेना। अपुन की जबान, एक पनौती मेरे ऊपर उधारी। कभी भी डाल देना पन आज नहीं भगवान।...हे विट्ठला, हे नागोबा, हे गणपति बाप्पा अपने इस बेवड़े पे नजर करना।

वह सेक्टर पांच के लिए आॅटो पर बैठ गया पर मन लगातार अगड़-पिछड़ रहा था। क्या पता वह जाय और एजेन्सी बन्द हो या एजेन्सी का धनी ही न मिले तो वह तो गया न बारह के भाव में ! पन्द्रह रूपए की उधारी लदा सो अलग। हो सकता है, इनाम देने से ही इंकार कर दे। कोई भी बहाना बना सकता है। चीटिंग भी कर सकता है। बोल दे- ढक्कन छोड़कर जाओ, बाद में बताते हैं और बाद में दूसरा ढक्कन दे के बोल दे कि इस नम्बर का लक्की ड्रा निकला ही नहीं तो..। अचानक उसके मन में सिंहा (महाराष्ट्रीयन वाद्य) चिचिया उठा। उसके सारे बदन में खून दहाड़े मारने लगा-आई ची गांड, पैसा नहीं दिया तो फोड़ डालेगा साले को। एजेन्सी की वाट लगा डालेगा।

आटो रिक्शा अचानक रूक गया। चालक ने उतर कर पीछे झांककर कुछ देखा।

‘‘आप लोग दूसरा आटो ले लो,गाड़ी पंचर हो गई है।’’

दूसरी सवारियों के साथ वह भी नीचे उतर गया। उसने चारों तरफ नजरें घुमाकर देखा, वह चार नम्बर ओटी एरिया में खड़ा था। उसे याद आया-यहीं पास में ही पड़ोसन रह चुकी साखरा बाई का अड्डा है। एकदम चोखा नौटाक (अच्छी दारू) रखती है। उसने अंदाजा लगाया कि यहां से वह अगर पांच नम्बर पैदल जाए तो पन्द्रह मिनट में पहुंच सकता है। इधर से आटो का पैसा बच गया है तो उसी का दो घूंट मारता चले। इनामी रकम के लिए बात करने में आसानी रहेगी। उसने अपने कदम साखरा बाई के अड्डे की तरफ बढ़ा दिए।

साखरा बाई देखते ही खुश हो गई।

‘‘अरे कोंडीबा, आज इधर। कैसे याद आ गई मेरी?’’

‘‘पांच नम्बर जा रहा था। यहीं रोड पर आटो पंचर हो गया तो सोचा तेरे से भी मिलता चलूं।’’

‘‘हां-हां, बैठ। गोट्या...एक गिलास ले के आ।’’ साखरा बाई ने आवाज लगाई।

कोंडीबा पास पड़ी चारपाई पर बैठ गया।

‘‘अपुन को थण्डा के ढक्कन पे दस हजार का इनाम मिलेला है। वही लेने जा रहा था।’’

‘अच्छा!’’ साखरा बाई चहक उठी- ‘‘ देखूं!’’

कोंडीबा ने जेब से ढक्कन निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया।

‘‘क्या रे गोट्या, तू भी तो थण्डा वाला ढक्कन इकट्ठा करता रहता है। टी.वी. पर कौन-सा लक्की नम्बर बता रहा है?’’

‘‘चार सौ बीस।’’ गोट्या ने बताया- ‘‘पन आई, कुछ भी मिलता-बिलता नहीं है। साले चूतिया बनाते हैं। सब यही बोलते हैं- इधर नहीं उधर जा, इधर नहीं उधर जा।’’

साखरा बाई ने ढक्कन के अन्दर देखा। उसमें नौ-सौ चौरासी लिखा था। ‘‘क्या रे, नम्बर बरोबर याद है?’’

‘‘हां आई, बरोबर। फोर टोन्टी। इससे पहले दो आठ चार था।’’

साखरा बाई ने कोंडीबा को धीरे से देखा। कोंडीबा मुंह मे घूंट भरकर गिनगिना रहा था। बाई ने गोट्या को वहां से जाने के लिए हाथ से इशारा किया। उसने फिर कोंडीबा को देखा- इस दस हजार को लेकर दस हजार तो सपने देख डाले होंगे इसने।

‘‘क्या रे कोंडीबा, तू भी इन सबके चक्कर में पड़ जाता है। तू क्या समझता है, कम्पनी वाले इता बड़ा अड़वड़टाईज टीवी पर देते हैं तो हम जैसों के लिए? अरे पागल, हम छोटे लोगों के सिर्फ सपने बड़े-बड़े होते हैं, खीशे (जेबे) नहीं । साखरा बाई ने हाथ बढ़ाकर कोंडीबा के सिर को धीरे से सहलाया- ‘‘ जिसके खीशे बड़ी होती हैं, उन्हीं के खीशों में इते बड़े-बड़े सपने समाते हैं रे पागल। तू ऐसे सपने मत देख।’’

साखरा बाई ने ढक्कन गिलास में डाल दिया। ‘‘ले, दारू के साथ दस हजार भी घोलकर पी और मूत कर भूल जा।’’

कोंडीबा ने लाल हो रही आंखोंं से साखरा बाई को देखा- ‘‘सच कह रही हो साखरा बाई। अपुन जैसे का सच तो यहीच है।’’ कोंडीबा ने गिलास को हिलाया और एक ही घूंट में सब गटक गया। ढक्कन सहित। मुंह दबाकर दारू हलक से नीचे उतारा और ढक्कन को चूसकर हाथ में लिया फिर बगैर देखे, अपने सारे सपनों के साथ जोर से हवा में उछाल दिया और संतोष के साथ बोला- ‘‘जय महाराष्ट्र’’

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