Ira Johri

Abstract

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Ira Johri

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खुशियों के दीप

खुशियों के दीप

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"सुनो आज शाम समय पर घर आना याद है न ।"

"कैसे भूल सकता हूँ आज का दिन। आज ही तो हमारे जीवन में बहार आई थी।"

अब कोई खास दिन हो और दोस्तों के साथ महफ़िल न सजे यह तो हो नहीं सकता। इस सोच के तहत हमने आज के दिन को यादगार बनाने के लिये शाम के समय अपनों को बुला लिया।

जानें कहाँ फंस कर इन्हें देर पर देर होती जा रही थी उधर जिन्हें मैं अपना समझ हर सुख दुःख में इनकी खिलाफत में भी शामिल करने से बाज नहीं आती थी। ऐसे में हमारे प्यार की खिल्ली उड़ा व उलाहने दे कर हृदय छलनी कर रंग में भंग कर बिना इनका इंतजार किये दावत उड़ा चलते बनें ।

सबके मध्य अपमानित महसूस कर दग्ध हृदय से कमरे में आ स्वयं की इहलीला समाप्त करने के लिये ज्यों ही फाँसी का फन्दा तैयार किया तभी द्वार पर कदमों की आहट से रुक कर बाहर देखने लगी ।

हमने देखा ये आये सन्नाटा देख कुछ सहम से गये। अन्दर आने पर जो हमने कुछ कहने के लिये मुँह खोला इन्होंने हमारा हाथ पकड़ मुस्कुराते हुये कहा।" सब बड़े समझदार हैं। अब आखिर आज के दिन हम लोगों के बीच में उनका क्या काम। उनको फिर कभी दावत दे देंगे ।आओ आज हम अपना यादगार दिन मनाते हैं। मुझे और पास खींच हाथों में हाथ ले वो आगे बोले याद रखो वो हमारे अपने कभी हो ही नहीं सकते जो हमारी मुश्किलों को समझने की जगह हमारे लिये मन में ईर्ष्या रख हमें उलाहना दे हमें आहत करने से पीछे नहीं हटते। "

इधर मन का मैल धीरे-धीरे पिघल रहा था। मैं उनकी बांहों में समाती जा रही थी उधर पैरों से फाँसी के फंदे को पैर से पर्दे के पीछे सरकाती भी जा रही थी। 

हम दोनों के मुस्कुराने से घर के दरो दीवार की आँखों में खुशियों के दीप जगमगाते साफ नज़र आ रहे थे।



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