V. Aaradhyaa

Comedy Romance Classics

4.2  

V. Aaradhyaa

Comedy Romance Classics

खट्टा मीठा तीखा प्यार

खट्टा मीठा तीखा प्यार

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427


"माँ !मैंने कहा ना... जब तक मैं अपना लक्ष्य नहीं पा लेती, मैं शादी का सोच भी नहीं सकती। फिर ये सब क्या है ? "

वैशाली नाराज होकर बोली।

अपनी लाडो की बात सुनकर कौशल्या जी हल्के से मुस्कुराई और बोली,

"वैसु बेटा !छोड़ ना ये जिद करना। शादी के लिए अब तो हाँ कह दो। तुझे तो पता है ना कि,तेरे पापा अगले साल रिटायर्ड हो जायेंगे। ऐसे में ये सरकारी तामझाम सब चले जाएंगे। अभी सरकारी बंगला है... अर्दली वगैरह हैं। शादी का सारा काम सब आसानी से निपट जाएगा। बाद में सारा इंतज़ाम करने में तेरे पापा के चप्पल जूते ही टूट जायेंगे !"

"वह तो ठीक है माँ ! लेकिन सिर्फ इस वजह से कि बाद में पापा के पास फैसिलिटी नहीं रहेगी, मुझे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर शादी करनी पड़ेगी ?

यह तो ठीक नहीं है ना... ? "

वैशाली की बात में भी दम तो था।

अंबाला छावनी में यह लास्ट पोस्टिंग थी कमांडेट चौधरी अशोक जी की।और इसके एक ही साल बाद उनकी भी रिटायरमेंट होनी थी।कुल मिलाकर उनकी सेवानिवृत्ति को बस साल भर रह गया था। ऐसे में अपनी दोनों पुत्रियों की शादी करने के बाद अब यह छोटी पुत्री वैशाली रह गई थी।वह चाहते थे कि रिटायरमेंट के पहले वैशाली के भी हाथ पीले कर दें।ताकि अभी जो स्टाफ है और जो फैसिलिटी मिली हुई है उससे बारातियों का स्वागत भी कर सकें और अभी के पोस्ट के तामझाम और रुतबे की वजह से लड़केवाले भी थोड़े उनके प्रभाव में रहेंगे और एक तरह से बेटी का हाथ भी ससुराल में ऊपर रहेगा।

खैर....यह तो थी दुनियादारी की बातें।जो पढ़ाकू वैशाली को कम ही समझ में आती थी। उसने अपने जीवन का ध्येय सिविल सर्विस को ही सोच रखा था।अपने पिता की तरह वह भी सिक्योरिटी डिपार्टमेंट में जाना चाहती थी।और इसके लिए आगे की पूरी रूपरेखा तैयार कर रखी थी।अभी उसका ग्रेजुएशन का फाइनल ईयर था। इसके बाद कोचिंग करने के बाद प्रतियोगी परीक्षा में बैठना चाहती थी। सलेक्शन होने के बाद ज्वाइन करने के बाद ही शादी का सोचती।पर, इन सब में कम से कम चार पांच साल लग जाते। और इतना समय ना तो उसके मम्मी पापा दे सकते थे और ना ही तात्कालिक समाज के मुताबिक यह बात किसीको समझ आती।शादी की जो उम्र की पच्चीस, छब्बीस तक की लड़कियां शादी की उम्र से बड़ी कहलाने लग जाती थी। एक तरह से मजबूरी ही थी कि वैशाली को शादी के लिए हाँ करनी पड़ी।

उसके माता-पिता ने उसे वैभव से मिलने के लिए कहा था। लेकिन वैशाली का ये सोचना था कि, जब बेमन से ही शादी करनी है तो लड़के से मिलकर भी क्या होगा ?

इतना ही काफी था कि वह अपनी पढ़ाई से बीस दिन की छुट्टी लेकर शादी के लिए मानी थी। अपने सपनों की कुर्बानी देकर उसने शादी को अपनाया था। ऐसे में उसे ना तो वैभव से मिलने का मन था और ना ही वैभव के बारे में कुछ जानने की कोई उत्सुकता थी। फिर भी जब उसके माता-पिता ने जब ये कहा कि,भले ही वैशाली ना मिलना चाहे पर वैभव अपनी होनेवाली दुल्हन से मिलना चाहता है, तो वैशाली मान गई।


वैसे वैशाली का छोटा सा दिल इस बात से बड़ी जोर से धड़का था कि वैभव ने शादी से पहले ही उसे "अपनी दुल्हन" कहा था। खैर...उसकी नाराजगी इस बात पर वैभव से बनी रही कि उसका रिश्ता वैशाली के लिए आया ही क्यूं ? खामखा उसकी पढ़ाई में व्यवधान पड़ा।

बहरहाल...सबने जोर दिया तो सगाई के समय में भी उसने वैभव से औपचारिक बातें ही की थी।बातें क्या थी कि ... वौशाली वैभव के सवालों का जवाब दिया। उन बातों में उसे एक बात बहुत इंटरेस्टिंग लगी कि वैभव को चटपटी चीजें खाने का बहुत शौक था।खासकर के डोसा और गोलगप्पे का तो वह दीवाना था। इधर चाट और गोलगप्पे की शौकीन थी वैशाली।

अमूमन तौर पर लड़के गोलगप्पे कम ही खाते हैं और खाते भी हैं तो उसे खुलकर नहीं बताते। लेकिन वैभव ने बताया कि उसे पानीपुरी बहुत पसंद है। वह हमेशा पानी पूरी खाना पसंद करता है और वैभव की इसी बात पर वैशाली को जोर से हंसी आ गई।क्योंकि वैशाली भी जान देती थी गोलगप्पों पर।उसका बस चले तो वह नाश्ते में गोलगप्पे खाए,लंच में और डिनर में भी।और इसके अलावा जब भी उसे भूख लगे वह गोलगप्पे और चाट से ही अपना पेट भर ले।

जब वैशाली ने वैभव को यह बात बताई तो वैभव हंसते हुए बोला,

"अच्छा.... आपको भी इतना पसंद है। मुझे तो गोलगप्पे इतने पसंद हैं कि मैं दिन भर खा सकता हूं,रात भर भी खा सकता हूँ !"

"मैं तो गोलगप्पे का बहुत बड़ा फैन हूं !"

"अरे...मेरा तो ऑलटाइम फैवरेट गोलगप्पा है। " वैशाली बोली।

फिर एक दिन दोनों का प्रोग्राम बना गोलगप्पे खाने का।

अब उनकी छोटी सी प्यारी सी गोलगप्पे वाली दोस्ती कभी कभी के छोटे छोटे टेलीफोन के कॉल में बदल गई थी।

वैसे तो वैभव और वैशाली की अरेंज मैरिज थी।

अरेंज मैरिज में दोस्ती क्या ...जान पहचान भी मुश्किल से ही हो पाती है।

लेकिन यहां वैभव जो अभी-अभी सी.आर.पी.एफ. में भर्ती हुआ था और एक तो उसकी उम्र भी कम थी और दूसरे इसके पहले उसने एक आध लड़कियों से सिर्फ़ बातें ही की थी। कोई डेटिंग सेटिंग का उसे कोई अनुभव नहीं था।इधर वैशाली भी पढ़ाई को समर्पित थी तो दोनों की बातें अक्सर पढ़ाई को लेकर ही होती थी या खाने पीने को लेकर होती थी। खासकर गोलगप्पे के स्वाद पर भी दोनों देर तक बात करते और अब उनके रिश्ते में भी पानीपुरी का चटपटा स्वाद एहसास बनकर उभरने लगा था। कभी प्यार मुनहार की बातें भी कर देता वैभव तो वैशाली शरमा जाती थी। इन चंद महीनों में ही वैभव वैशाली के बारे में बहुत कुछ जान गया था।उनकी जब कभी बात होती वैशाली अपने बारे में ही बताती रहती थी।पहले वैभव के बारे में कुछ पूछने या जानने का उसका मन नहीं था।उसके अंदर की विद्रोही लड़की यह कहती थी कि,

"यह शादी जबरदस्ती हो रही है तो क्या ही बात करना ! "

लेकिन अब वैशाली वैभव के बारे में जानने को भी उत्सुक रहने लगी थी।

खैर .... उनकी शादी की तारीख अगले पांच महीने बाद की निकली थी। इन पांच महीनों में बातचीत से दोनों एक दूसरे के बारे में काफी कुछ जान गए थे।

शादी के बाद सिर्फ सात दिन ही ससुराल में रही थी वैशाली। पर उन सात दिनों में वैभव ने उस का खास ख्याल रखा था। अलबत्ता उसकी सास थोड़ी कड़वी ओर कठोर मिजाज की थी। उसे अपनी बहू का चौका में हाथ भी ना लगाना कुछ समझ नहीं आया था। सिर्फ पहली रसोई के रस्म में में सूजी का हलवा बनाया था। जो ज्यादा चीनी होने की वजह से इतनी सख्त बन गई थी कि हलवे की जगह बर्फी लग रही थी। वैशाली की परसास ने कहा,

"अरे...रे ....पढ़ने वाली लड़की है। खाना बनाना क्या ही सीखा होगा। ऊपर से घर में इतने नौकर चाकर हैं तो शायद ही कभी चौके में जाती होगी !" वैसे भी वैभव उनका लाडला पड़पोता था तो वैशाली उन्हें प्यारी लगनी ही थी।

लेकिन वैशाली की सास ने यह कहकर मुंह बिचकाया कि,

"कोई बात नहीं।अभी बहुरिया अनाड़ी है।मैं उसे सब कुछ सिखा दूंगी !"

साथ में उन्होंने वैशाली को यह भी कह दिया कि,

"जल्दी से इंतिहान देकर आओ और अपना घर गृहस्थी संभालो। घर की बहू बाहर रहे या फिर छात्रावास में जाकर पढ़ाई करे या कुछ और। कुछ ठीक नहीं लगता हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ। वह तो वैभव ठीक से लड़कियों की कमी नहीं थी एक-एक रिश्ते आ रहे थे।

बस..... जानकी जी ने यही कर दी ना अपमान वाली बात।कर दिया ना वैशाली का मूड खराब।जो भी बात वह थोड़ा वैभव के लिए उसके परिवार के लिए अच्छा सोच रही थी वैभव को अपनाती जा रही थी वह फिर से बिदक गई ।

खैर... शादी के बाद पूरे बीस दिन बाद हॉस्टल आई थी वैशाली।

"ओह....कितने लेक्चर हो गए ? कितनी पढ़ाई छूट गई !"

सोचकर सुबह से शाम तक वैशाली अपनी पढ़ाई में लगी रही।उसे देखकर लगता ही नहीं था कि उसकी शादी हुई है। और वह बीस दिन बाद आई है। इतनी जल्दी फिर से अपने पुराने रूप में आ गई की शादी जैसी घटना को दूसरे बिल्कुल मामूली समझ कर अपने आप को सामान्य दिखाने की पूरी चेष्टा करने लगी।

ऊपर से तो वैशाली शांत दिख रही थी पर मन ही मन में कई बार उसे वैभव की याद आती थी।एक सखा की तरह वैभव उसकी जिंदगी में प्रवेश कर चुका था। इसके अलावा उसने ससुराल में भी वैशाली का बहुत ख्याल रखा था जो रह रहकर नकचढ़ी वैशाली की यादों में आकर परेशान करता था।उसके शालीन व्यक्तित्व और बेहद मधुर स्वभाव का जादू अब वैशाली पर चलने लगा था। अपने सपनों के बारे में अपने भविष्य के बारे में अपनी पसंद नापसंद के बारे में तो अब वह भी कुछ कुछ जानने लगी थी।

जो सबसे महत्वपूर्ण बात वैशाली को वैभव के बारे में पता चली, वह ये कि...वैभव ने सिर्फ वैशाली से दोस्ती नहीं की थी बल्कि उसके सपनों से भी दोस्ती की थी। वह उसे लगातार अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित भी करता रहता था।वैशाली की अथक तपस्या और मेहनत रंग लाई।उसका सिविल सर्विसेज में सिलेक्शन हो गया। उसके बाद हुई उसकी एक बहू के रुप में फाइनल विदाई।पर अब उसकी सास की हिम्मत ही नहीं पड़ी कि अपनी आई.ए.एस. बहू को घर का काम ना आने का ताना देती या उससे रसोई का काम करवाती। फिर भी वैशाली ने उनसे घर गृहस्थी के काम सीखे। दरअसल अपना सपना पूरा हो जाने के बाद वैशाली बहुत विनम्र हो गई थी।

कालांतर में संजोग से दोनों की पोस्टिंग जब एक ही जगह हुई तब उन्होंने अपना गृहस्थ जीवन शुरू किया।प्यार व नोक झोंक से भरा हुआ जीवन उन्हें हमेशा इस बात की याद दिलाता था कि, जब एक दूसरे के सपने सच करने में मदद करो तब वह रिश्ता बहुत गहरा होता है। जिससे रिश्ता इस बात से नहीं बन जाता की शादी हो गई तो निभाना ही पड़ेगा। बल्कि पति पत्नी दोनों को ही एक दूसरे का ख्याल रखना पड़ता है।खास करके एक-दूसरे के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने में जो मदद करे, वही तो हमसफर है,वही तो है जीवनसाथी, जो किस्मत से वैशाली को वैभव के रूप में मिला था।आज भी जब वैभव और वैशाली गोलगप्पे खाते तो उन्हें उस दिन की बात याद आती है,जब उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी।

और उनके खट्टे मीठे तीखे प्यार की शुरुआत हुई थी.

वैशाली और वैभव का यह एक ऐसा मौन समर्पण था जिसमें शब्दों की जरूरत नहीं थी। प्रेम एक अहसास ही तो है इसमें शब्दों से ज्यादा भावनाओं की जरूरत होती है।जब मन मिल जाते हैं तो दो ह्रदय एक दूसरे के लिए समर्पित हो जाते हैं।


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