Vinita Shukla

Drama

4.5  

Vinita Shukla

Drama

कैंड- प्रोडक्ट

कैंड- प्रोडक्ट

10 mins
494


पैकैजिंग इंस्टिट्यूट में आये अभी गिनती के तीन दिन भी नहीं हुए थे, कि अमृता दी से टकराते टकराते बची. वे माइक्रोबायोलौजी लैब से, परखनली में कोई सैम्पल लेकर आ रही थीं. शायद उसे ‘वे’ करने (उसका भार नापने के लिए) केमेस्ट्री लैब जा रही होंगी. उनकी और मेरी, दोनों की चीख निकलने वाली थी. शुक्र है, सैम्पल छलककर बाहर नहीं गिरा और परखनली भी नहीं टूटी; नहीं तो बेवजह का बवाल खडा हो जाता. जो भी हो, उन्होंने जल्द ही खुद को संभाल लिया और मेरा खेद भरा चेहरा पढकर मुस्करायीं. “न्यू बैच से हो?” मैं अभी भी असमंजस में थी, इसलिए बस सहमति में सर हिला दिया.” इस पर वह रहस्यमय तरीके से फुसफुसाकर बोलीं, “ सीनियर लड़कों से बचके रहना, वो तुम लोगों की खिंचाई (रैगिंग) करना चाहते हैं.


यह मेरी उनसे पहली मुलाक़ात थी. बाद में तो अक्सर ही ‘टकराना’ हो जाता. धीरे धीरे उन्हें जानने लगी. ज्यादातर छात्र उन्हें भोंदू और ‘बैकवर्ड’ समझते थे पर उनकी विशेषताओं को किसी ने न समझा. एक घुटन भरे माहौल में रहकर भी, जीवन को सहज रूप से जीने का गुर, शायद उन्हें ही आता था. उनकी सरल स्मित, सीधी- सच्ची बातें और बिना लाग लपेट के अपने विचारों को व्यक्त करना, मुझे प्रभावित अवश्य करता था. अमृता के अलावा सीनियर बैच में और भी लडकियां थीं पर एक गुरूर सा था उनमें - सीनियर होने का गुरूर. वे सब अमृता दी की तरह सलवार- सूट नहीं पहनती थीं. एक से एक आधुनिक परिधान पहन, इतराती फिरतीं. ‘टिपिकल’ घरेलू किस्म की लड़की थी अमृता.


और यही गुण कदाचित मुझे उनसे जोड़े रखता. पहनावे और रहन सहन आदि में, मै भी पारंपरिक मूल्यों की समर्थक थी. परिवार से यही संस्कार मिले थे- इसी से. उनकी आलोचना करने वाले छात्र- छात्राओं का कहना था , ‘इसके पिता इंस्टिट्यूट में सीनियर लेक्चरर हैं – तभी तो इसे एडमिशन मिला है. पास होने का जुगाड भी हो जाता है.’ यह सच था कि अमृता वर्मा औसत दर्जे की छात्रा थीं; परन्तु अपने स्तर पर, वो ठीक ठाक नंबर ले ही आतीं थीं. कक्षाओं में हमें खाद्य- पदार्थों की पैकेजिंग के पुराने और नए तरीके सिखाए जाने लगे. जिसमें कैनिंग (डब्बाबंदी) और पौस्चुराइज़ेशन पुरानी; तथा हाई टेम्परेचर पैकेजिंग व एसेप्टिक पैकेजिंग नयी तकनीकें थीं.


रैगिंग के खत्म होने पर, जूनियर स्टूडेंट्स के लिए स्वागत- समारोह आयोजित हुआ. उसमें सीनियर और जूनियर छात्रों की अन्त्याक्षरी हुई और टाईटिल दिए गए. सभी शिक्षकगण भी मौजूद थे. अमृता दी आयीं थीं; पर वे कुछ सहमी सहमी और उलझन में लग रही थीं. जल्दी ही वापस चली भी गईं, अपने पिता के साथ. समारोह के दौरान, जब उनको टाईटिल दिया गया; प्रेक्षागृह में हंसी की लहर दौड पडी- “मिस वर्मा: ‘कैन्ड प्रोडक्ट’”. उस हंसी में शामिल नहीं हो पाई थी मैं! ऐसा नहीं कि मुझे, कैन्ड प्रोडक्ट (डब्बाबंद उत्पाद) का मतलब न पता हो; अलबत्ता वह उपाधि, दी पर किस तरह फिट बैठती थी- ये समझ ना पायी.


लेकिन समय के साथ साथ, ऑडीटोरियम के उन ठहाकों और ‘मिस वर्मा’ के लाल पड़ते चेहरे का राज मुझ पर खुलता जा रहा था. उनका बड़ा भाई, जो संस्थान में ही क्लर्क की पोस्ट पर कार्यरत था, न जाने क्यों उनकी निगरानी करता रहता. किसी सहपाठी लड़के से सामान्य बात भी करतीं; तो उन्हें, उसकी वक्र दृष्टि का सामना करना पड़ता. उनके पिता आर. एन. वर्मा, प्रतिष्ठित पद पर होते हुए भी; निरे दकियानूसी थे. बेटी को सहपाठियों के साथ ‘एजुकेशनल टूर’ पर जाने नहीं दिया. साथ पढ़ने वाले लड़के भी, होते ही उसमें- संभवतः इसी कारणवश. परन्तु कोर्स के लिए यह अनिवार्य था, लिहाजा वे हमारे बैच के साथ टूर पर गईं. वर्मा सर भी साथ गए, हमारे गाइड बनकर (या फिर दी पर नजर रखने के लिए!). उनका काम हमारा मार्गदर्शन करना था पर दरअसल वे बेटी अमृता की गतिविधियों को परखते रहते. मजाल नहीं थी, कि वह किसी जूनियर लड़के के साथ भी- दो घड़ी बतिया लें; जबकि वे सब उनके लिए, छोटे भाई के समान थे. वर्मा सर के व्यवहार का यह घटियापन, मुझे बहुत अखरता. ना जाने कैसे अमृता, उन्हें झेलती होंगी!


इस दौरान वे मेरे और भी करीब आ गईं. पढाई व पाकशास्त्र पर, सामान्य चर्चा होती थी हमारे बीच. हमने साथ साथ कई फैक्ट्रियों का दौरा किया और वहाँ उत्पादों की पैकेजिंग के बारे में जाना. खाली समय में वह, सहेलियों के बारे में बात करतीं पर अपने कुनबे के बारे में कुछ न बतातीं .अपनों की तंगदिली और निम्न मानसिकता के बावजूद; वे इस सन्दर्भ में मौन ही रहतीं. यह गुण तो, अपनी मां से ही मिला होगा उनको. निःसंदेह उनकी माता बहुत सहनशील रही होंगी! ‘ओवर प्रोटेक्टिव’ तथा शक्की- मिजाज, भाई और पिता का संरक्षण उन पर; “कैन्ड प्रोडक्ट” का ठप्पा लगा चुका था. डिब्बाबंद उत्पाद की तरह, उन्हें संरक्षित जो रखा जा रहा था!! शैक्षणिक-अभियान से वापस आने के बाद, हमें विभिन्न औद्योगिक इकाइयों द्वारा अपनाई गई; पैकेजिंग की रिपोर्ट तैयार करनी थी.


सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि हर छात्र को, किसी नयी पैकेजिंग तकनीक पर शोध-पत्र प्रस्तुत करना था. यह शोध; संस्थान के ही, किसी शिक्षक के निर्देशन में होना था. प्रिंसिपल ने मुझे गाइड करने के लिए, वर्मा सर को चुना. सुनकर मैं फूली न समाई. वे संस्थान के, सबसे अधिक विद्वान गुरु थे! परन्तु जल्द ही यह उत्साह क्षीर्ण पड गया. एक दिन मेरे क्लास की अस्मिता, मेरे पास आई और फुसफुसाकर बोली, “ देख सुधि, तेरे जो गाइड हैं ना वर्मा सर, बहुत लूज कैरक्टर हैं....उनके बारे में कई ‘ऐसी- वैसी’ बातें सुनी हैं. सीनियर गर्ल्स ने तुझे ‘वार्न’ करने को कहा है, बोला है कि इंस्टिट्यूट की टाइमिंग्स के बाद उनके साथ अकेले मत रुकना......”


पहली बार डरते हुए ही, आर. एन. वर्मा के कमरे में गई थी. पर धीरे धीरे यह डर जाता रहा; क्योंकि उनके कमरे में एक अधेड स्टेनो सदा मौजूद रहती. इसके अलावा अमृता दी, उधर आया जाया करतीं. सर पढाने के अलावा वहाँ मैनेजमेंट का काम भी देखते थे. वे संस्थान की जरूरी नोटिसों को, उस स्टेनो से टाइप करवाते. सुलेखा नारायण नाम था उसका. सुदूर दक्षिण भारत की रहने वाली थी. राजनाथ वर्मा के ढीले चरित्र का कहर, मुझ पर तो नहीं टूटा; पर उनका उस स्टेनो के साथ, असामान्य सम्बन्ध अवश्य उजागर होने लगा था. वह साधिकार उनसे पैसों की मांग करती; कभी बच्चों की फीस, तो कभी दवाइयों के लिए. ऐसे में सर, मेरी तरफ चोर नजरों से झेंपते हुए देखते और धीमे से रुपये निकालकर उसके हाथ में रख देते.


वो औरत शायद विधवा या परित्यक्ता थी; पर रहती बड़ा बन ठनकर थी! आँखों में काजल की तिरछी रेखा, होठों पर लाली और चेहरे पर क्रीम- पाउडर की परतें. बाद में पता चला कि वर्मा और उसका सम्बन्ध, बहुत पहले ही बन चुका था. पत्नी के रहते हुए भी, एक जिम्मेदार शिक्षक; ऐसा खेल, खेल रहा था! संस्थान में यह बात सबको पता थी. वर्मा सर को देख, अब एक लिजलिजा एहसास होता मुझे. वहीँ पर उनकी बेटी पढ़ रही थी, बेटा नौकरी कर रहा था और वे- वे खुल्लमखुल्ला...! सुबह सुबह वह, अपने कमरे में रखी; भगवान की तस्वीरों के आगे माथा टेकते और हाथ जोड़कर अगरबत्त्ती जलाते. मन से मैले आदमी के पास ही, धार्मिक आडम्बर ज्यादा होता है. अमृता दी पर तरस आने लगा था मुझे. एक तरफ उनका अग्रज; जो दहेज के लिए बिकने को तैयार था और दूसरी तरफ उनके पिता- जो अपने ही चाल चलन को, सुधार नहीं पा रहे थे. ये खोटे लोग ही; उनके जासूस बने हुए थे! सच है: जो खुद बुरा होता है, वही दूसरों पर शक करता है. शायद यह डर- कि संभवतः, चरित्रहीन की बेटी जानकर, कोई दी पर बुरी निगाह रख रहा हो.


अमृता के दुरूह जीवन -पथ पर, अभी और ठोकरें भी बाकी थीं. एक दिन जब, वह पढकर वापस घर लौटी; वहाँ बवाल मचा हुआ था. तरह तरह का दोषारोपण, व्यंग्य- बाण उनकी प्रतीक्षा में थे....यहाँ तक कि हाथ उठा लिया गया उन पर. दूसरे दिन जब वे मुझसे मिलीं, उनकी आखें सूजी हुई थीं. कहने लगीं, “सुधि, अभी के अभी तू चल मेरे साथ” फिर वे मुझे लगभग खींचते हुए ले गईं. मैंने पूछा भी, “क्यों दी?!” पर उन्होंने कोई उत्तर न दिया. हम सीधे संस्थान की प्रोसेसिंग यूनिट के सामने जा कर रुके. उन्होंने आव देखा न ताव; सामने केबिन पर लगी कॉल –बेल जोरों से दबा दी. मैं हतप्रभ थी. यह तो वहाँ के नए इंचार्ज का केबिन था. हडबडाते हुए एक सुदर्शन नवयुवक बाहर निकला.


“श्रीधर जी” उन्होंने आवाज धीमी करके उस युवक से कहा, “ आपसे एक जरूरी बात करनी थी”. इस पर वह ‘तथाकथित’ श्रीधर सहम सा गया और उसने हमें भीतर आने का मौन संकेत दिया. केबिन में प्रवेश करते ही दी फट पड़ीं, “ आपने विवाह का जो प्रस्ताव मेरे घर भेजा था, उसकी मुझे ज़रा भी भनक नहीं थी”


“देखिये अमृता जी......!” युवक आगे भी कुछ कहना चाहता था पर अमृता ने उसे अनुमति नहीं दी. वह बोलती चली गईं, “मेरे घरवाले, इस सबके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराते हैं .....वे सोचते हैं कि मेरा हाथ है इसके पीछे” वे क्रोध से हांफने लगी थीं. उनकी हालत देखकर, श्रीधर की बोलती बंद हो गई. आग्नेय नेत्रों से उसे देखते हुए, दीदी ने चेतावनी दी, “ मेहरबानी करके, दोबारा इस तरह की चर्चा न करें.....एग्जाम पास हैं –और मैं पढ़ना चाहती हूँ!!”


इतना कहकर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और धडधडाते हुए वहाँ से चल निकलीं. मैं हतप्रभ थी और श्रीधर का चेहरा देखने लायक. तन्हाई में जब हम साथ बैठीं , तो दी की आँखों से आंसू निकल पड़े. पहली बार वह खुल गई थीं मुझसे. आसुओं में डूबे उनके शब्द, मन की अथाह व्यथा के वाहक बन गए. उन्होंने कांपते हुए स्वरों में जो बताया; उसका सारांश यह था कि श्रीधर उनकी सादगी और शालीनता पर मर मिटा. उसने किसी संबंधी के जरिये, उनके यहाँ विवाह- प्रस्ताव भेजा था. गैर- जाति के लड़के की धृष्टता, परिवारवालों को अखर गई. वे पहले ही मान बैठे कि अमृता का जरूर उसके साथ, कोई चक्कर चल रहा होगा; जबकि दीदी ने तो कभी उस व्यक्ति से बात तक नहीं की!


जो भी हो; मैं श्रीधर शर्मा के आकर्षक व्यक्तित्व से, प्रभावित हुए बिना न रह पायी. सोच रही थी- इस सम्बन्ध में बुराई ही क्या है! अच्छा-ख़ासा, खाता-कमाता लड़का और फिर दहेज का भी कोई झंझट नहीं. लेकिन यह सब अमृता से कौन कहता? सो चुप ही रही. परन्तु यह बात, औरों से छिपी ना रह सकी. व्यक्तिगत तौर पर, श्रीधर को जानने वालों की प्रतिक्रिया थी- ‘हीरे जैसा लड़का ठुकरा दिया वर्मा जी ने’ या ‘बड़े दुर्भाग्यशाली हैं वो!’ संस्थान के लोगों ने ही, बहुधा ऐसा कहा; वह भी अमृता को सुनाते हुए. लेकिन दीदी ने सुना – अनसुना कर दिया. खैर....जैसे तैसे एग्जाम निपटे. सुनने में आया कि दी का रिश्ता, तय कर दिया गया था. ( कदाचित उनके और श्रीधर के संभावित मेलजोल की, आशंका से ग्रस्त होकर). उन्होंने इस गठजोड़ को, सर झुकाकर मान लिया. होने वाला वर प्रतिष्ठित व्यापारी था और थोडा- बहुत पढ़ा लिखा भी. मैं दी के विवाह का कार्ड मिलने की प्रतीक्षा कर रही थी. रोज लैटर बॉक्स देखती पर निराशा ही हाथ लगती. फिर एक दिन वे खुद ही आ गयीं ...वह भी अपनी माँ के साथ. मेरे लिए यह एक सुखद आश्चर्य था. उनके संस्कारित व्यक्तित्व की शिल्पी, उनकी माता को देखने का सुअवसर जो मिला.


मेरी ममा ने उन्हें, बेटी का सम्बन्ध तय होने की बधाई दी तो वे गंभीर हो गयीं. शब्दों में, एक अजाना आक्रोश उमड़ पड़ा, “बहनजी...जीतेजी वह रिश्ता मैं नहीं होने दूंगी” सुनकर मैं और ममा सकते में आ गये. उन्होंने स्पष्ट किया, “पता चला है कि वो लडका दुहाजू है...यही नहीं; पहली बीबी को मार दिया, सुना कम दहेज़ लायी थी. ‘पुलिस -उलिस’ सबके मुंह बंद करवा दिए... सब पैसे की माया है बहनजी!” आंटी की इस बात से, माहौल बहुत गंभीर हो चला था. एक भारीपन सा छा गया, दिलोदिमाग पर. किन्तु आक्रोश अभी भी शांत नहीं हुआ था, “क्या बताऊँ बहनजी, इसके पिता और भाई तो- उनकी शानोशौकत देखकर लट्टू हो गये हैं! सब कुछ जानकर भी...अमृता को उसके साथ...” कहते कहते उनका गला रुंधने लगा. “ भाभीजी...” ममा ने उन्हें सांत्वना देने के लिए मुंह खोला पर बोल नहीं फूटे.


लेकिन हम कहाँ जानते थे कि समाधान भी आंटी के पास ही था! तभी तो दी इतने शांत भाव से, सब देख सुन रही थीं. ‘श्रीमती वर्मा’ ने जब रहस्य से पर्दा उठाया, हम रोमांचित हो उठे. इतने टेढ़े मेढ़े कथानक का ऐसा दिलचस्प अंत!! अफसाने का अंजाम, ड्रामाई अंदाज़ में, जाहिर हो गया, “मैंने सोचा है कि उस भले लड़के से...क्या नाम है उसका- हां श्रीधर! उससे ही इसका...” कहते कहते वे रुक गयीं और उन्होंने बेटी के रक्तिम मुख को निहारा; फिर मुस्कुराते हुए बोलीं, “एक दिन इसने हिचकते हुए बताया कि यह भी उसे...” उन्हें आगे कुछ कहने की जरूरत न थी. कुछ ही घंटों के भीतर, अमृता और श्रीधर का गठबंधन होना था; कोर्ट में. वर्मा सर और उनके बेटे को, इस बात की हवा तक नहीं थी! गवाही के लिए, मुझे और श्रीधर के एक दोस्त को चुना गया. अमृता के द्रोह को उसकी ‘गऊ जैसी माता’ ने संबल दिया; समय से लड़ने की ताकत दी. ‘कैंड प्रोडक्ट’ वाली पुरानी पहचान से, वे उबर आई थीं. अब न तो वे ‘कैंड’(डब्बाबंद) रहीं और ना ही ‘प्रोडक्ट’(उत्पाद)... अब उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व था!!!



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