sneh goswami

Others

4.0  

sneh goswami

Others

जो है सो है

जो है सो है

13 mins
202


शांतिरानी की जिंदगी अचानक इतनी अशान्त हो जाएगी, ऐसा पास पड़ोसियों ने तो क्या, खुद शांति ने भी नहीं सोचा था। अब तो जिंदगी में न शांति है, न रानियों जैसे ठाठ बाठ। सारी रात बीत गयी घर की चौखट पर बैठ कभी रोते, कभी ऊँघते हुए पर बंद दरवाजे को न खुलना था, न खुला और वह सारी रात लगातार यही सोचती रही थी कि आखिर उससे गलती हुई तो हुई कहाँ।

अद्वितीय सुंदरी न सही, पर दिलकश व्यक्तित्व की स्वामिनी थी शांति। घने काले घुंघराले बाल जब हवा से अटखेलियाँ करते तो देखने वाले देखते रह जाते। गेहुआं रंग के चेहरे पर चमकती त्वचा की आभा दृष्टि को बाँधने में समर्थ थी और रस भरे ओंठ मानो दो कमलदल। आवाज में सरस्वती का वास था। गाँव में आठवीं तक की पाठशाला थी तो आठवीं तक की पढ़ाई निर्विघ्न सम्पन्न हो गयी। उसके आगे गाँव में पढ़ने की न सुविधा थी, न परिवार को आगे पढ़ाने की जरूरत। शांति ने घर रह कर माँ – चाची और बुआ के साये में रसोई बनाना सीखा। स्वेटर बुनना भी काम चलाऊ आ गया और सिलाई मशीन चलाना भी। तो एक दिन उसे चादर तकिए के कपड़े के साथ रंग बिरंगे धागे थमा दिए गये और वह पूरे मनोयोग से उन पर तरह तरह के फूल बूटे काढ़ा करती।  

इसी सब के बीच ही एक दिन उसके हाथों में शगुन की मेहँदी लगी और सुहाग के गीतों – पंडितों के मंत्रोच्चार के बीच घूँघट ओढ़े  वह ससुराल पहुँच गयी। मायके में धन की कोई कमी नहीं थी तो यहाँ ससुराल में तो धन के अंबार लगे थे। ससुर लाला अमरनाथ की गुप्ता एंड संस के नाम से मंडी में आढ़त की दुकान थी। लाखों करोड़ों का लेनदेन। एक ही बेटा था किशनलाल जो काम सीखने के लिए एक फर्म में मुनीमगिरि कर रहा था । बेटी भी एक ही थी जिसकी शादी हुए दस साल हो चुके थे और वह अपने चार चार बच्चों के साथ अपनी गृहस्थी में पूरी तरह रम चुकी थी। पत्नी का देहान्त दो साल पहले अल्प बीमारी के चलते हो गया तो वे बेटे के लिए वधु की खोज में लग गये और यह खोज खत्म हुई शांति पर। देवली शहर से बीस मील की दूरी पर बसा एक छोटा सा गाँव था। हरियाली से भरपूर। शहर की छाया में बसे होने के कारण अधिकांश मकान पक्के थे। धरती उपजाऊ थी तो खेतों में भरपूर फसल होती।  इसी गाँव के चौधरियों की बेटी थी शांति।

शादी के अगले ही दिन अचानक गुड़ शक्कर के दाम रिकार्ड तोड़ बढ़े तो लाला अमरनाथ ने गोदाम में रखा स्टाक बेच तीन गुणा मुनाफा कमाया। मंडी से वापिस आते ही ससुर ने शांति के सिर से न्यौछावर कर सौ का नोट महरी को थमा दिया और बहु को दस तोले के कंगन पैर छुवाई में दिए। अपनी दोनों कलाइयों में चौबीस चौबीस चूड़ियों के आगे वह कंगन पहन जब शांति ने रसोई बनाई तो बाप बेटा दोनों निहाल हो गये। किशन ने पत्नी को नीलम जड़ी अँगूठी पहनाई थी।  

धीरे धीरे शांति अपनी नयी गृहस्थी में पूरी तरह रम गयी। प्रेमी पति दिन रात अपना प्यार न्यौछावर किए रहता। मुँह से बात बाद में निकलती, पूरी पहले की जाती। तरह तरह की सुच्चे सोने की तारों से जड़ी भारी साड़ियों से उसके बक्से अटे रहते। तरह तरह के जूते सैंडल खास आर्डर दे मंगवाए जाते। मनिहार हर रोज दरवाजे पर हाजिरी देने आता – न जाने कब मलकिनी बहुजी को सेनुर, महावर की जरूरत हो जाए। नाईन इतवार को स्पैशल सिर गूंथने आती और नहला धुला कर रचा कर मीढियाँ गूँथ सुंदर केश सज्जा कर जाती। घर में एक महरी और एक नौकर पहले से था, एक टहलुआ और रख दिया गया। किशन तो रसोई के लिए महाराज भी रख देता। एक मिश्राईन से उसने बात भी कर ली थी पर शांति को चौके में किसी ओर की उपस्थिति मंजूर ही नहीं थी। पति तलुए के नीचे हथेली टिकाने वाला हो तो खाना पकाना कहाँ भारी लगता है। वह रच रच कर एक से बढ़ कर एक सुस्वादिष्ट पकवान बनाती और सामने बैठाल कर मनुहार कर करके खिलाती। माँ पापा सुनते तो कालजे में ठंड पड़ जाती, रामजी को सौ सौ प्रणाम करते – हे राम जी, हे अंबा मैया ऐसे ही किरपा बनाए रखना।  

 जब कभी ये दोनों सड़क पर निकलते तो लोग राम सीता की जोड़ी से तुलना करते। ऐसा प्रेमिल जोड़ा दूर दूर तक दिखाई न देता था। आढ़त चल निकली थी और लक्ष्मी घर के हर दरवाजे खिड़की से घर के भीतर प्रवेश कर रही थी। शांति के बदन पर जेवर भी उसी रफ्तार से बढ़ते जा रहे थे। कोई तीज त्योहार ऐसा न जाता जब शांति को कोई जेवर न मिला हो। जिंदगी संतुष्टि से बीत रही थी।  शादी को चार साल पलक झपकते बीत गये कि एक दिन लाला अमरनाथ पोते का देखे बिना ही स्वर्ग सिधार गये।  

अब किशन लाल कर्ता हो गये। मुनीमगिरी छोड़ आढ़त पर बैठने लगे। चाँदी के दिन थे सोने की रातें। लक्ष्मी हर तरफ से दौड़ी चली आ रही थी। फिर एक दिन अचानक शांति को यह सब निरर्थक लगने लगा। सात बड़े बड़े कमरों, बाग बगीचों वाली कोठी उसे काटने को दौड़ती । कूलर, पंखे की हवा उसे असह्य लगने लगी। सामान से भरे घर में उसे घुटन होती। चार साल में अब तक उसकी गोद हरी नहीं हुई थी। साथ की सहेलियाँ गोद में दो दो बच्चे खिला रही थी। पड़ोस में उसके बाद ब्याह कर आई बहुएं एक एक बच्चे की माँ बन गयी थी। उसका चेहरा दिनों दिन पीला होने लगा। चौबीस घंटे सूनापन और उदासी उसे घेरे रहते। औलाद की कमी कई दिनों से किशन भी महसूस कर रहा था पर उसने कभी जताया नहीं था। पर अब वह शांति को दिखाने शहर के प्रसिद्ध डाक्टर के पास ले गया। कई तरह के टैस्ट और पूरी जाँच के बाद भी न कमी शांति में निकली, न किशन में। हँसते खेलते घर को किसी की नजर लग गयी थी। डाक्टर ने लाख तसल्ली दी थी कि घबराने की कोई बात नहीं। हो जाता है कभी कभी ऐसा। खुश रहो, वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा। पर अब इन दोनों की रातों की नींद गायब हो गयी। अक्सर किशन सोच में पड़ जाता – इतनी जायदाद क्या ऐसे ही लावारिस हो जाएगी। कब मिलेगा इस घर को वारिस।  शांति को गाँव की वे निःसंतान औरतें याद आती जिनके लिए अपने ही लोग निपूती, बाँझ, औतरी, बदनसीब जैसे विशेषण लगाते थे। औरतें उन्हें देखते ही अपने बालकों को छिपाने लग जाती। क्या उसे भी ऐसे ही बोल सुनने पड़ेंगे, सोचते-सोचते उसकी आँखों में आँसू आ जाते।  

 आत्माराम ने अपने कुलपुरोहित को बुलवा भेजा और इस विपत्ति का उपाय पूछा – पंडितजी ने पत्रा देख बताया कि कुंडली में पितरदोष लगा है। पूरे विधिविधान से पितरपूजा सम्पन्न की गयी। भारी दान - दक्षिणा लेकर पंडितजी मुदितमन विदा हुए पर न पितर पसीजे, न देवता। शांति के व्रत उपवास दिनोंदिन बढ़ते जा रहे थे।  

इस बीच शांति के भाई बसंतलाल का रिश्ता तय हुआ। लड़की पसंद करने किशन लाल और शांति ही गये थे। पतली दुबली, गोरी चिट्टी, चंचल हिरनी जैसी आँखों वाली चंचलकुमारी उन्हें पहली नजर ही भा गयी। धूमधाम से सगाई हुई और महीने भर बाद शादी संपन्न हो गयी। चंचलकुमारी दुल्हन बन मायके में आ गयी और चार महीने बीतते न बीतते गर्भ से हो गयी तो शांति ने सुख का साँस ही लिया था। माँ न सही, बुआ तो वह बन रही है। उसके जैसी पीड़ा मदन को सहनी नहीं है, यह विचार उसे उत्साहित कर देता।  

वह दिन गिन रही थी कि कब उसे खुश खबर मिले और जब मदन ने बेटा होने की सूचना दी तो मारे खुशी के उसके पैर जमीन पर ही नहीं पङ रहे थे 1 बाजार जा उसने ढेर सारे झबले, खिलौने, चाँदी के नजरिए और भी न जाने क्या क्या खरीदा। सामान से लदी फंदी वह भतीजा देखने पहुँची तो भाई भाभी दोनों संकुचित हो गये – जीजी इतना सब तो इसके बच्चों के लिए भी ज्यादा रहेगा। वह मंद मंद मुस्कुरा कर रह गयी। मुन्ना को नाम भी बुआ ने दिया था ओम। उसके बाद तो मौका मिलते ही वह मायके जाने को तैयार हो जाती। ओम को गोदी में झुला लोरियाँ सुनाती। उसको घुटनों पर लिटा झूला झुलाती। उसे खिलाते खुद बच्चा बन जाती।  

 ओम अभी साल का भी नहीं हुआ था कि चंचल के पैर फिर से भारी हो गये और वह एक और बेटे की माँ बन गयी। प्रसव इस बार शहर के ही दामी प्राइवेट अस्पताल में ही सम्पन्न हुआ। और सबसे बड़ी बात यह कि पैदा होते ही चंचल ने बच्चे को शांति और किशन की गोद में डाल दिया। शांति को हैरान परेशान देख चंचल इतनी तकलीफ में भी मुस्कुरा उठी – आज से यह तुम्हारा है जीजी। मेरे पास ओम है न। मारे खुशी के शांति गदगद हो गयी। कृतज्ञता से भर उसने भाभी को गले लगा लिया।  

घर आ दम्पत्ति ने छटी पर सत्यनारायण की कथा करा पड़ोसियों और रिश्तेदारों को एक बङी सी दावत दी थी। विशाल पंडाल सजाया गया। तरह तरह के पकवान बने। बच्चे का नाम रखा गया माधव।  सब मेहमान तृप्त हो बच्चे को आशीष देकर विदा हुए। शांति ने भाभी को जबरन एक महीना रोक लिया था। खूब सेवा टहल की थी उसकी। सवा महीने बाद ही चंचल वहाँ से ऱुखसत हो पायी।  

शांति को माधव के रूप में दिल बहलाव के लिए खिलौना मिल गया था और भाई से तो प्यार पहले ही था, चंचल उसके ज्यादा करीब हो गयी। अब अक्सर या तो वह देवली चली जाती या दस पंद्रह दिन में चंचल मिलने चली आती। किसन मजाक उड़ाते – बच्चे से मिलने गैया आ गयी और चंचल लाल गुलाब हो जाती। कभी कभार बसंतलाल भी साथ आ जाता,पर काम काज के चलते उसे जल्दी जाना भी होता तो चंचल को भी जाना पड़ता । इसलिए वह धीरे धीरे ओम को कंधे से लगाए कपङे का हाथ से सिला थैला ले अकेली ही चली आती। दोनों बच्चे दिनों दिन बड़े होने लगे थे। यशोदा और देवकी दोनों की ममता पा खूब स्वस्थ रहते।  

एक दिन चंचल ने कहा – जीजी तुम्हारा बेटा तो पढ़ेगा शहर के बड़े से नामी दामी स्कूल में। खूब गिटपिट अंग्रेजी बोला करेगा। मेरा ओम ... आगे का वाक्य उसने जान बूझ कर अधूरा छोड़ दिया था।

उस रात शांति ने किशन से ओम के दाखिले की बात की थी। किशन ने जब बिना किसी किंतु परंतु के ओम का दाखिला करा दिया तो उसे संतोष ही हुआ था। अगले ही दिन दोनों बाजार जाकर उसके लिए स्कूल की वर्दी, जूते, किताबें खरीद लाए। दोनों बच्चे यहाँ थे तो चंचल भी यहीं रहने लगी। सामने के बरामदे में एक कमरा उसके लिए ठीक कर दिया गया।

 शांति को यह सब कुछ अजीब सा तो लगा पर अपने मन का वहम समझ वह चुप रही। चंचल से उसने इतना ही कहा – चंचल गाँव में माँ और भाई को रोटी की दिक्कत होती होगी। चंचल मुस्कुरा दी थी – दीदी उन लोगों से पूछ कर ही आई हूँ। बीच- बीच में जाती रहूँगी। वह शांत हो गयी थी।  घर में बाकी कामों के लिए तो नौकर थे ही, रसोई बनानी होती, उसमें चंचल अक्सर हाथ बँटा देती। शांति का अधिकांश समय बच्चों के साथ बीतता। दिन भर तो बच्चे शांति के इर्द – गिर्द मंडराते ही, रात में भी कहानी सुनते सुनते वहीं शांति के पास ही सो जाते। किशन भी शांति को बच्चों के साथ मगन देख बाहर बैठक में सो जाता।  

एक दिन चंचल ने शांति से कहा – दीदी आपसे बात करनी थी। मैंने गाँव जाना है, पर बच्चों का स्कूल है वैसे भी आपसे हिले है गाँव में इनका मन नहीं लगेगा। रो रो कर हल्कान हो जाएंगे। आप रख लोगी। शांति ने हामी भर ली और चंचल तैयार हो कर चली गयी पर जब घंटे भर बाद किशन भी जाने की तैयारी करने लगा तो उसका माथा ठनका – आप कहाँ जा रहे हो जी सवाल सुनते ही किशन भड़क गया – जाते हुए को टोकना जरूरी है ? जा रहा हूँ जहन्नुम। तुझे एतराज है ? और बैग उठा कर घर से निकल गया।  

जोर से खोले गये किवाड़ के पल्ले देर तक झूलते रहे थे। उनके टकराने की आवाजें देर तक माहौल में गूंजती रही थी। शांति डाँट खा कर लुटी पिटी आने वाले तूफान की आहट को सुनने की कोशिश कर रही थी। शाम तक अपने आप को रोक पाना मुश्किल लगा तो वह ननद के पास गयी। ननद को मन का सारा संशय कह सुनाया और उम्मीद से उसका चेहरा देखने लगी। ननद ने धैर्य से शांति की बात सुनी और आँखें बंद कर बैठी रही। कोई दो मिनट बाद उसने आँखें खोली। शांति की हथेली अपने दो हाथों में दबाई और धीरे से कहा – सुन बहु। जो मेरे भाई को खुश रखे, जो भाई को भाए, मेरे लिए तो वही भाभी है।  

“ क्या जीजी “ ? शांति के गले से चीख निकली, “ इसका मतलब आप इनके रिश्ते के बारे में जानती हैं।"  

उत्तेजना से उसका चेहरा लाल हो गया था। वह उठ खड़ी हुई। बिमला पुकारती रह गयी – भाभी चाय तो पीती जाओ पर शांति के सुन्न हो चुके दिमाग तक एक भी आवाज नहीं पहुँची। गिरती पड़ती वह घर कब पहुँची ओर कब उसने ताला खोला। उसे कुछ नहीं पता। इतनी देर से रोकी हुई रुलाई बाँध तोड़ बह निकली। रोते रोते उसकी घिग्गी बँध गयी। उजाले से अँधेरा छा गया। रात दस्तक देने लगी। उसे पता ही नहीं चला।  दो घंटे रो - रो कर जब वह थक गयी तो वह खुद ही उठी। वाशबेसिन पर जा कर हाथ मुँह धोया। एक गिलास भर पानी पिया। कमरे के बाहर दोनों बच्चे डरे सहमे रो रहे थे। महरी उन्हें चुप कराने की असफल कोशिश कर रही थी।  उसने महरी से ओम को ले लिया। महरी को दोनों बच्चों के लिए दूध और बिस्किट लाने के लिए कहा। महरी ने सारा सामान ला दिया तो उसने उसे घर जाने को बोल दिया।  

पर बहुजी आपका खाना। महरी असमंजस में थी।

मेरा खाना आज बिमला जीजी भेजेंगी। तू निश्चिंत होकर जा। महरी चली गयी। रात भर रोकर मन कुछ हल्का हुआ और मजबूत भी। सुबह नित्य की तरह वह उठी। ओम को स्कूल के लिए तैयार किया।  पूरा दिन तरह तरह से मन ही मन सवाल जवाब सोचती रही। चंचल आए तो क्या पूछना है और कैसे 

चंचल तीसरे दिन अकेली ही पहुँची। शांति ने बिना किसी भूमिका के पूछा – गाँव तो तुम गयी नहीं कब से चल रहा है ये सब जान गयी हो तो क्यों पूछना चाहती हो मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहती हूँ सच सुनना चाहती है तो सुनिए, अभी हम मन्नत देने शाकम्भर माता गये थे। मुझे यहाँ छोड़ आढ़त पर गए हैं। और ये आज से नहीं, शादी के बाद से ही चल रहा है । अब तो पूरे चार साल हो गये। पहले जबरदस्ती चला। अब मैंने मान लिया। बसंत यह सब जानते हैं। और सबसे बड़ा सच ये कि दोनों बच्चे भी बसंत के नहीं, उन्हीं के हैं। चाहो तो टैस्ट करा लो। मैं झूठ नहीं बोल रही। कम से कम आप से तो मैं झूठ कह ही नहीं सकती। यह कह वह सिर झुकाए भीतर चली गयी।  

शांति चक्कर खा गिरते गिरते बची। मतलब भाई ने जो है, उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया है। तभी एक बार कुछ बात चलने पर फीकी सी हँसी हँस कर बोला था – क्या फर्क पड़ता है।  कहीं भी रहें, बीबी बच्चे तो मेरे ही कहलाएंगे।  किशन के चेहरे का रंग कुछ पल के लिए उड़ गया था। तब तो उसने ध्यान ही नहीं दिया था पर आज हर बात उसे स्पष्ट दिख रही है। बसंत का ठहाका लगाकर हँसना और उसकी आँखों में पानी आ जाना। किशन का नजरें झुका लेना। चंचल का चाय बनाने के बहाने वहाँ से उठ जाना।  हर बात के भीतर छिपे रहस्यों को आज वह समझ पा रही है। उस दिन तो यह सब उसने सोचा ही नहीं था।  

 अब वह क्या करे क्या भाई की तरह चुप रह जाए और देखते बूझते सब कुछ सह जाए ( बहुत मुश्किल होगा ) या शोर मचाए और सारे जान पहचान वालों को इकट्ठा कर ले ( सिवाय दोनों घरों की बदनामी के कुछ हासिल नहीं होगा, अभी कम से कम समाज के लिए यह बसंत की ही पत्नी है जिसे यह निभा तो रही है। दुल्हिन तो बसंत की न है ) या सब छोड़ छाड़ कर कहीं दूर चली जाय। ( पर दूर जाय तो कहाँ औरत खास तौर पर घर से निकली अकेली औरत की समाज में जो दुर्दशा होती है, सोच कर ही रुह काँप उठती है। फिर कहाँ रहेगी। गुजर कैसे करेगी )। वैसे घर छोड़ कर जाए क्यों पिछले नौ साल से इस घर को सँवार रही है। ऊपर से ब्याहता वह है। घर उसका, पति उसका। कानूनन गोद लिया माधव उसका दत्तक पुत्र। तो एक नाजायज संबंध को चलते रहने देने के लिए वह अपना वर्तमान और भविष्य क्यों बिगाड़े। पति पर अपना अधिकार जमाना छोड़ दिया था। अब नये सिरे से शुरु कर शांति। इसलिए जो है, सो है और वह निश्चिंत होकर काम काज में खो गयी ।



Rate this content
Log in