Arunima Thakur

Tragedy Inspirational

4.0  

Arunima Thakur

Tragedy Inspirational

जाने दो ..हमें क्या..

जाने दो ..हमें क्या..

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180


"उमा लाओ जरा पानी पिला दो" रमाकांत जी बोले।

पानी लाकर देते हुए उमा बोली, "आ गए आप ? आप भी ना कहा ठोकर खाते घूमते है। इस उम्र में यह अदालत पुलिस...।"

रमाकांत जी कुछ बोले नहीं सिर्फ आँखें बंद करके कुर्सी की पीठ से टेका ले कर बैठ गए।

"क्या हुआ आज ?" उमा ने उत्सुकता से पूछा।

"कुछ नहीं। कुछ भी नहीं। वही हर बार जैसा। परिवार के दबाव में आकर उसने बोला, उन पति पत्नी के बीच में कोई समस्या नहीं है। मुझे गलतफहमी हुई थी।"

"मैं तो पहले ही कहती थी। तुम ही नहीं मानते हो। बस जहाँ सुना, भाग कर पहुँच जाते हो।"

"तो बोलो क्या करूँ ? औरों की तरह आँखें मूँद लूँ। नहीं होता मुझसे, नहीं हो पाता।"

"मैंने कब कहाँ आँखें मूँद लो। पर जो मांगे उसकी मदद करो। हर कोई मदद के लायक नहीं होता है।"

"मांगने पर भी मदद कहाँ मिलती है ? और कभी कभी मदद मांगने की हिम्मत भी कहाँ होती है" कहकर, पानी पीकर, एक जोर की उचश्र्वास लेकर रमाकांत जी अपनी अतीत की यादों में खो गए।


सालों पहले जब वे छोटे से थे शायद नवीं कक्षा में। उनकी बड़ी बहन के ससुराल से खबर आई उसके ना रहने की। जिद करके पापा के साथ वह भी गये थे पर बहन की अस्थियाँ तक देखने को नहीं मिली। 

लौटते वक्त पूरे रास्ते उन्हें कुछ दिन पहले आयी बहन का आँसुओं से भरा चेहरा और सिसकते हुए शब्द याद आ रहे थे। कैसे वो रो रो कर मम्मी से कह रही थी, मुझे उस नरक में वापस मत भेजो। 

वह सो रहे थे, शायद लघुशंका या बहन की सिसकियों पता नहीं किसके कारण वो जग गये थे। जगने के बाद उसने यह सब सुना। उसकी मम्मी कह रही थी, "इतना तो लड़कियों को सहना ही पड़ता है। अब वही तेरा घर है। यहाँ रहेगी तो चार लोग बातें बनाएंगे। और कब तक मैं तुझे रख पाऊंगी। कल को रमा की पत्नी आएगी। तुझे ही एडजेस्ट करना पड़ेगा। अभी कर या तब करना।

नन्हा रमा सोचता रह गया इस घर की बेटी होकर भी दीदी के लिए इस घर में जगह नहीं है। और मम्मी जिस बहु के डर से दीदी को नहीं रख पा रही है, उस बहु की हैसियत से दीदी की ससुराल में भी जगह नहीं है।

वह सुबह उठ कर मम्मी से बोला भी, "मम्मी मैंने कल ही राखी बंधवा कर दीदी से दीदी की रक्षा का वायदा किया है। मत भेजो दीदी को।"

"जा भाग अभी तू बच्चा है। दूसरों के चक्कर में नहीं पड़ते" मम्मी बोली। 

आज तो वह बड़े हो गए है पर आज भी पुलिस, अदालत, समाज, परिवार वाले उन्हें यही समझाते है "दूसरों के चक्कर में नहीं पड़ते।"


रमाकांत जी को एक गहरी टीस है कि काश उनकी दीदी के अड़ोस पड़ोस में रहने वाले किसी ने भी तो दीदी के घर में होने वाली घरेलू हिंसा के लिए पुलिस में शिकायत की होती तो शायद आज दीदी जिंदा होती। 

पर समाज की विचारधारा वर्षों बाद आज भी वही है "जाने दो हमें क्या।" 

सिर्फ समाज नहीं परिवार की विचारधारा भी नहीं बदली है। रमाकांत जी कितनी बार अपने अड़ोस पड़ोस या जिसका भी सुन पाते है कि वह घरेलू हिंसा से पीड़ित है, तुरन्त पुलिस में खबर करते है। 

पहले तो पुलिस वाले भी मजाक उड़ाते थे। आज तो बहुत इज्जत देते है। रमाकांत जी को समझाते भी है कि साहब हमारे आपके करने से कुछ ना होगा। लड़कियों को हिम्मत चाहिए कि वे सामने आए और उससे भी अधिक उनके परिवार वाले उनको सपोर्ट करने के लिए आगे आये।

 आधे से ज्यादा मामलों में तो लड़कियाँ ही केस वापस ले लेती है । बाकी आधे मामलों में परिवार मायके के दबाव में झुक जाती है।

पर रमाकांत जी ना जाने किस मिट्टी के बने है या शायद आज भी उन्होंने "जाने दो हमें क्या" बोलना और सोचना नहीं सिखा है। 

वह बस अपनी दीदी की याद सीने से लगाये घूमते है और कोशिश करते है शायद किसी लड़की को बचा पाए। उनकी तरह किसी और लड़की के भाई को यह अफसोस न हो, कि किसी अड़ोसी पड़ोसी ने सही समय पर उसकी बहन की मदद नहीं की।


क्या आप भी सोचते हैं... जाने दो हमें क्या...? 

अगर हाँ, तो सोचिएगा, इस सोच के साथ समाज नहीं बदलेगा। समाज और सरकार को गाली दे कर नहीं, अपने आप को बदलने से समाज बदलेगा।



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