Prabodh Govil

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इरफ़ान ऋषि का अड्डा -5

इरफ़ान ऋषि का अड्डा -5

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करण और आर्यन हक्के- बक्के रह गए। वैसे तो नशा ज़्यादा गहरा हुआ ही नहीं था पर जितना भी हुआ था वो उतर गया। उन्हें पछतावा सा हो रहा था कि वो क्या समझे थे और यहां है क्या?

असल में उनके अलावा वो सभी लड़के गूंगे और बहरे थे, जो न तो कुछ बोल सकते थे और न सुन सकते थे। उन्हें समाज कल्याण विभाग के एक ऐसे छात्रावास से लाया गया था जहां उन्हें अब तक सरकारी खर्च पर निशुल्क रखा जाता था। इन बच्चों का सारा खर्च सरकारी कोश से मिलता था लेकिन केवल उनकी आयु अठारह वर्ष की होने तक ही यह प्रावधान था। उसके बाद या तो उन्हें किसी नौकरी से लगा दिया जाता था या नौकरी न लगने पर कोई रोजगार- परक काम सिखा दिया जाता था और उन्हें सरकारी सुविधा वाला ये हॉस्टल छोड़ना पड़ता था। ऐसे में कौशल का कोई काम सीखे लड़कों के लिए अपना रोजगार शुरू करने के उद्देश्य से कुछ ऋण राशि का भी प्रबंध था जिस पर बहुत ही कम, न के बराबर ब्याज ही लिया जाता था।

जो व्यक्ति यहां इन सब युवकों को लेकर बैठा था और उनकी शानदार दावत करके चुका था वो नौकरी देने के नाम पर ही उन्हें छात्रावास से चुन कर लाया था। उसने बाकायदा उनकी भर्ती की थी।

उस आदमी के साथ शाहरुख का संबंध इतना ही था कि उसने जो संस्था बनाई थी उसमें शाहरुख भी उसके साथ भागीदार था। शाहरुख ने उसी से कह कर अपने दोस्तों करण और आर्यन को भी काम - धंधे में लगाने के मकसद से वहां बुला लिया था। शाहरुख कई कामों में लगा हुआ बहु - धंधी आदमी था इसलिए उसने ये भी सोचा कि करण और आर्यन उसके प्रतिनिधि के तौर पर यहां रहेंगे तो उसे भी तमाम जानकारी मिलती रहेगी।

लेकिन यहां शुरू होने वाला काम क्या था ये अभी कोई नहीं जानता था क्योंकि काम अब तक था ही नहीं। जो कुछ प्लान था भी वो अभी तक उसी शख्स के दिमाग़ में था।

हां, शाहरुख को इतना ज़रूर बता दिया गया था कि इस धंधे में दिव्यांग लोगों का रहना बेहद फायदेमंद होगा। एक तो उनके नाम पर आसानी से काफ़ी रकम लोन के रूप में मिल सकेगी, दूसरे उन्हें सरकार सब्सिडी भी देगी जिससे सौ रुपए का काम अस्सी रुपए में होगा।

मूक- बधिर लड़के होने से उन पर नियंत्रण तो रहेगा ही साथ ही लोगों की सहानुभूति भी रहेगी और समाज में एक अच्छा काम होने का सकारात्मक संदेश तो जायेगा ही। ये सब दूरंदेशी भी जुड़ी थी।

ये सब जान लेने के बाद भी यह सवाल अपनी जगह बदस्तूर कायम था कि काम है क्या! आर्यन और करण भी केवल उतना जानते थे जितना उस व्यक्ति ने उन्हें बताया था और उन्होंने उकताते हुए बोरियत के साथ सुना था। हां, शराब की पार्टी लज्जतदार थी और सबको पसंद आई थी।

किसी भी नए काम की शुरुआत में जहां लोग भगवान का भजन - पूजन रखते हैं वहां मंहगी शराब बेरोजगारों को क्यों परोसी गई इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं था। सब इसी बात को लेकर शंकित थे।

लेकिन काम चाहे कितना भी कष्टप्रद या जोखिम - भरा हो, यदि उसमें आप अकेले नहीं हैं, आपके साथ कई लोगों का एक पूरा का पूरा समूह हो तो खतरा बहुत हल्का हो जाता है और सभी का डर कम हो जाता है। फिर यहां तो लगभग सभी सत्रह साल से लेकर उनतीस साल की उम्र के युवा लड़के थे। ऐसे समूह में तो हर तरह की जिंदगी के लिए रिस्क ले पाने का जज़्बा कुछ ज्यादा ही होता है। लोग सफ़ल होना ही चाहते हैं। सपने तो सबके पास होते ही हैं।

आर्यन और करण को जल्दी ही ये भी पता चल गया कि यहां रहने वाले अधिकांश युवक गरीब या तंगहाल परिवारों से ही आए हैं। बल्कि कुछ के पास तो परिवार थे भी नहीं। कहीं मां का अभाव, तो कहीं पिता की कमी, कहीं शिक्षा की कमी तो कहीं पैसे की गैरहाजिरी।

लो, ज़िंदगी मिले भी और इतने अभावों के साथ। ये तो दुनिया के तमाम सफ़ल और बुद्धिशाली लोगों की भी असफलता है। बड़े- बड़े कामयाब लोग किसी की आधी - अधूरी जिंदगी को क्यों स्वीकार करें?

लेकिन दुनिया की सबसे प्यारी और खूबसूरत बात यही तो है कि यहां कोशिशें कभी कम नहीं होतीं। कोई न कोई तो उन कमियों को दूर करने के पीछे पड़ा ही रहता है जो इंसान का जीना हराम करती हैं।

यही सब भाव और विचार समय- समय पर वहां भी सबको आते थे।अब लगभग रोज का यही नियम हो गया था कि सुबह नौ बजते- बजते करण और आर्यन यहां आ जाते और फिर तीन - चार घंटे के लिए बातचीत, सीखने- समझने के ये दौर चलते। कभी- कभी उन्हें दोपहर बाद देर से भी बुलाया जाता था और वो शाम तक वहां रहते।

बाकी के लड़के तो सरकारी छात्रावास में रहे बेघर पंछी ही थे। उनके घर- परिवार जो भी थे, जैसे भी थे, दूर- दराज के गांव शहरों में थे।

अतः वो सब वहीं रहते थे। उसी इमारत में ऊपरी मंज़िल पर दो बड़े- बड़े कमरों में सबको रहने की जगह दे दी गई थी। छत पर एक तरफ़ रसोई में सबका रोटी- पानी बन जाता। अपने- अपने घर से उन लड़कों का ताल्लुक न के बराबर सा ही था। कोई किसी की खोज खबर लेने न तो जाता, और न ही कहीं से आता।

आर्यन और करण शाहरुख से जब भी मिलते तो उससे यही पूछते कि ट्रैक्टर का कुछ पता चला या नहीं? बाकी चोरियों के भी कोई सुराग मिले या नहीं? शाहरुख उनकी बात एक कान से सुनता और दूसरे से उड़ा देता। शाहरुख बात का रुख पलट कर यह जानने की कोशिश करता कि वहां का काम कैसा चल रहा है। शाहरुख उस जगह को "अड्डा" कहता था।

करण और आर्यन उसके मुंह से अड्डा सुन कर खुद भी अपने इस नए काम की जगह को अड्डा ही बोलने लगे थे।

उन दोनों के घर पर उनके पिता और बाकी सब लोग ये देख कर हैरान रह जाते कि ये आवारा फिरने और इधर- उधर मटरगश्ती करते रहने वाले लापरवाह लड़के इतने मनोयोग से किस काम में जुटे हैं जो रोज़ समय से वहां आते- जाते हैं। पर सबको तसल्ली थी कि नया जो कुछ भी होगा वो पुराने से तो अच्छा ही होगा।

आज आर्यन और करण काम से लौटे तो बहुत खुश थे। उत्साहित भी। आज उन्हें अड्डे से बहुत से रुपए दिए गए थे।



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