इण्डियन फ़िल्म्स 3.1
इण्डियन फ़िल्म्स 3.1
आन्या आण्टी और अन्य लोग..
हमारी मंज़िल पर रहने वाली आन्या आण्टी को, मैं और मम्मा न जाने क्यों उसके ‘सरनेम’ शेपिलोवा से ही बुलाते हैं। ये ‘सरनेम’ उस पर एकदम फिट बैठता है, वो इस भली औरत की अच्छाई को गहराई से प्रकट करता है।
तो, वो खूब तेज़ और चतुर है,ऊँचाई करीब एक सौ सत्तावन से.मी थी (उसने ख़ुद ही बताया था, वो बेहद पतली थी, चंचल, तीखी, उत्सुक आँखें और बेहद मज़बूत, हालाँकि, पतले-पतले हाथ थे उसके। हाथ तो उसके वाकई में बेहद मज़बूत थे , क्योंकि वो हर रोज़ काफ़ी दूर से चीज़ों से , खाने पीने के सामान से और सब्ज़ियों से, और ख़ुदा जाने और भी किस किस चीज़ से भरे हुए बड़े-बड़े थैले लाती थी। ये सब किन्हीं आण्टियों के लिए, अंकल्स के लिए, दादियों और दादाओं के लिए, जो या तो उसके परिचित होते थे, या सिर्फ जान-पहचान वाले। आन्या आण्टी उनकी मदद करती है, क्योंकि वे “जीवन के कठिन हालात में हैं।"
वैसे मैं और मम्मा तो कठिन हालात में नहीं रहते हैं, मगर, शेपिलोवा की नज़र में,हमें भी मदद की ज़रूरत है, क्योंकि हम लगातार काम करते रहते हैं। और वह बाज़ार से हमारे लिए सब्ज़ियाँ, फल और हर वो चीज़ ले आती ह, जिसकी, उसके हिसाब से हमें ज़रूरत होती है। पैसे हम, बेशक, देते हैं, मगर मैं पूरे समय सोचता हूँ कि ख़ुद भी, आमतौर से, बाज़ार जाकर खीरे और टमाटर ला सकता हूँ। मगर आन्या आण्टी कुछ और ही सोचती है:
“रचनात्मक प्रक्रिया के लिए सम्पूर्ण समर्पण और आंतरिक शक्तियों की बेहद एकाग्रता की ज़रूरत होती है!”
मतलब , हमारी पडोसन शेपिलोवा की राय में, अगर मैं दिन का कुछ हिस्सा कहानी या लघु उपन्यास लिखने में खर्च करता हूँ, तो बचे हुए समय में टमाटर खरीदने में कोई तुक नहीं है। मैं उससे बहस करता, मगर वो बिल्कुल फ़िज़ूल होता। आन्या आण्टी ज़िद्दी है, फ़ौलाद की तरह। किसी भी तरह से उसे मोड़ नहीं सकते। और अपनी बात वो हमेशा मनवा लेती है चाहे कितनी ही बाधाएँ क्यों न आएँ।
मिसाल के तौर पर ये देखिए। कुछ दिन पहले मम्मा ने आन्या आण्टी से कहा कि वह उससे ऊनी जैकेट और कुछ और भी चीज़ें अपने ऐसे परिचितों के लिए ले ले जो बहुत अमीर नहीं है, जिन्हें ये उपयोगी लगें (ये तो आपको पता ही है, कि शेपिलोवा की ढेर सारे लोगों से पहचान है)। मगर आन्या आण्टी को ख़ुद ही ये भूरा ऊनी जैकेट बहुत पसन्द आ गया। उसने फ़ैसला कर लिया कि उसे अपने लिए रख लेगी। और इतवार की सुबह करीब साढ़े आठ बजे , मतलब, जब हम अभी सो ही रहे होते हैं, दरवाज़े की घण्टी बजती है।
“तानेच्का, ये मैं हूँ,” दरवाज़े के पीछे से शेपिलोवा चिल्लाती है।
मेरी मम्मा, जिनका नाम तान्या है, दरवाज़ा खोलती है।
“मैंने आपको जगा तो नहीं दिया ??! नहीं? मैं अभी अभी बाज़ार से आई हूँ, ये रहे खीरे, टमाटर, संतरे, सेब, खट्टी कैबेज! ले लीजिए। और वो, भूरा वाला जैकेट, मैं अपने लिए रखना चाहती हूँ, चलेगा? मैं उसके लिए आपको पैसे देना चाहती हूँ। ज़रूर देना चाहती हूँ, क्योंकि वो चीज़ ऊनी है,बेशक महँगी और बढ़िया है!”
और कुछ भी कहने का मौका दिये बिना उसने एक हज़ार रूबल्स बढ़ा दिए, उस पुराने जैकेट के लिए, जिसकी मम्मा को बिल्कुल ज़रूरत नहीं थी,और उसके लिए शेपिलोवा से पैसे लेना बहुत बुरा होता।
“कैसे पैसे!” मम्मा को ताव आ गया। “आन्या! ये बात सोचो भी मत! मैंने यूँ ही वो सब दे दिया था, वो बिल्कुल ग़ैरज़रूरी चीज़ें हैं!”
“मगर जैकेट तो बेहद ख़ूबसूरत है!” अपमानित होकर आवाज़ चढ़ाते हुए आन्या आण्टी बहस पे उतर आई। “कम से कम पाँच सौ लीजिए!”
“नहीं!”
“तीन सौ!”
“नहीं!” मेरी मम्मा भी इस हमले से गड़बड़ा गई।
“एक सौ , ख़ुदा के लिए!”
“बस, आन्या आण्टी,” मैं बीच में टपका। “ख़ुदा के लिए यहाँ से जाइए। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।”
हताश होकर वो दरवाज़े की तरफ़ जाती है , मगर लैच घुमाने से पहले मुड़कर कहती है:
“कोई बात नहीं। मैं कोई और रास्ता निकालूँगी।” और सोच में डूबकर सिर हिलाती है।
दूसरे दिन शाम को एक बड़ा भारी , शायद एक लिटर का, लाल कैवियर का (स्टर्जन मछली के अण्डों का व्यंजन) डिब्बा लाती है, जिसके लिए इस धमकी से भी पैसे नहीं लेती, कि हमारी दोस्ती ख़तम हो जाएगी। इस कैवियर की कीमत, मेरे ख़याल से एक हज़ार से भी ज़्यादा होगी। आन्या आण्टी ने अपनी बात पूरी कर लीऔर समझ सकते हैं कि उसने जैकेट की कीमत चुका दी...