V. Aaradhyaa

Drama Classics Inspirational

3.4  

V. Aaradhyaa

Drama Classics Inspirational

हर सास पहले एक माँ होती है

हर सास पहले एक माँ होती है

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आभा ने काव्या की बात तो मान ली और अब दोनों में एक समझदारी का तंतु जुड़ता जा रहा था।

 " रिश्ते तब बनते हैँ, ज़ब उनको संभालकर रखा जाता है ! "आभा ने काव्या को समझाया तो एकबारगी काव्या को कुछ समझ नहीँ आया कि दीदी किस बारे में बात कर रही हैँ। आभास को गए हुए अभी एक सप्ताह ही तो हुआ है।" आ जायेगा ज़ब उसका गुस्सा उतर जायेगा। और माँजी तो उससे रूठकर नहीँ गई हैँ। इसके पहले भी तो माँजी दो तीन दिन के लिए अपनी बेटी के घर चली ही जाती थी।बस कुछ दिन को मन बहलाने ही तो गईं हैं।देखती हूँ, उनकी लाडली बेटी कब तक अपनी माँ को अपने घर पर रखती है। दो दिन में सबकी अक्ल ठिकाने लग जाएगी, हुह !"

सोचकर काव्या ने टी. वी. ऑन कर लिया।पर मन में बार बार आभा की बातें घूम रही थी कि," इस बार माँजी को काव्या के व्यवहार से बहुत तकलीफ हुई है, वह अब कभी काव्या के पास नहीँ जाना चाहेंगी !"

ना आएं , मेरी बला से।

काव्या ने सोचा फिर अपने लिए एक कप चाय बनाकर बालकनी में चली आई।

बाहर पार्क की तरफ देखते देखते वह जैसे अपनी गलती का मूल्यांकन करने बैठ गई।

शादी के बाद ज़ब वह आभास के साथ कुछ दिन ससुराल में रहकर नवी मुंबई आई थी तब यह छोटा सा फ्लैट और यह बालकनी उसे किसी स्वर्ग से कम नहीँ लगा था। उसका ससुराल उत्तर प्रदेश के एक गाँव समरपुर में था और मायका सीतापुर में। पहली बार बड़े शहर आकर वह अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझ रही थी।साथ ही ज़ब अपनी सहेलियों से आभास की और अपने किस्मतवाली होने की बात सुनती तो उसे खुद पर नाज़ हो आता।

अब काव्या खुद को सबसे एक बित्ता ज़्यादा समझने लगी थी।

शादी के एक साल तक सबकुछ ठीक चल रहा था।आभास सुबह नौ बजे ऑफिस निकल जाता और फिर शाम छः बजे तक काव्या के जो मन में आए वो करती। कभी सहेलियों से बतियाती, कभी फेसबुक पर अपनी फोटो डालकर सबके तारीफों के कमेंट्स सुनकर खुश होती, कभी पास के मॉल में जाकर कुछ शॉपिंग कर आती। इतनी स्वतंत्र तो वह मायके में भी नहीँ थी।

शाम को आभास के आने के पहले सज धजकर तैयार हो जाती। दिनभर का थकामांदा आभास अपनी नई नवली पत्नी का खिला खिला चेहरा देखकर खुश हो जाता। अक्सर रात के खाने के बाद दोनों हाथों में हाथ डाले दूर तक निकल जाते। शनिवार रविवार को आभास की छुट्टी होती तो सिलवासा में रहनेवाली आभास की बड़ी बहन यानि काव्या की ननद के घर हो आते तो कभी मूवी का प्रोग्राम बन जाता।.

कुल मिलाकर मधुमास सी ज़िन्दगी जी रही थी काव्या।पर....अचानक एक दिन काव्या के सारे सपनों पर तुषारापात हो गया ज़ब गाँव से खबर आई कि उसके ससुरजी यानि आभास के पिता का अचानक हृदयाघात की वजह से निधन हो गया।

आनन फानन में काव्या, आभास और उसकी ननद आभा और उसके पति विकास दोनों बच्चों के साथ गाँव को रवाना हुए। किसी तरह बाबूजी के अंतिम दर्शन हो पाए।

बाबूजी के यूँ आकस्मिक निधन से माँजी बिल्कुल टूट गईं थी। दुःख तो आभास और आभा को भी बहुत हुआ था।पर पति के असमय साथ छोड़ जाने का दुःख कितना दर्दनाक होता है यह माँजी से बेहतर कौन जानता था।इस उम्र में ज़ब जीवनसाथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तब बाबूजी माँ को छोड़कर चले गए थे। मितभाषी और सरल स्वाभाव की माँ को आभास और आभा ने बचपन से बाबूजी की परछाई की तरह ही साथ रहते देखा था। अपना दुःख सुख सिर्फ पति से बाँटनेवाली माँ अब बिल्कुल मौन हो गईं थी।तेरहवीं के बाद ज़ब सब वापस जाने की सोच रहे थे तो उस रात माँजी के सोने के बाद आभास और आभा ने निश्चय किया कि अब गाँव में माँजी को अकेले छोड़ना ठीक नहीं होगा।अतः वह आभास के साथ जाएंगी और अब वहीँ रहेंगी। आभा इस बात से आश्वास्त हुई कि अब उसका माँ से मिलने का ज़ब भी मन करेगा वह उनसे भाई के घर जाकर मिल लिया करेगी।सब अपनी अपनी बात रख रहे थे और इधर काव्या का मन एकदम बुझ गया था। उसे बखूबी पता था कि अब वह मुंबई में पहले की तरह नहीं रह पायेगी।भला सास के रहते बहू कैसे स्वतंत्र रह सकती है?

परन्तु काव्या ने अपने मन की बात किसी पर जाहिर नहीं होने दिया और सास को साथ ले जाने की तैयारी में जुट गई। वैसे भी आभास रिश्ते निभाने में माहिर था।उसके लिए रिश्ते से बढ़कर कुछ नहीँ था।माँजी को लेकर ज़ब वह लोग मुंबई पहुँचे तो उस रात सब आभास और काव्या के घर रुक गए। उसकी ननद आभा ने ही खाना बनाया। सब माँ को किसी तरह बहलाने की कोशिश कर रहे थे और इधर काव्या यह सोचकर परेशान थी कि अब वह खुलकर नहीं रह पायेगी।

कदाचित काव्या को अभी व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे कुछ नहीं सूझ रहा था।

दो दिन काव्या के घर रहकर आभा और विकास ज़ब बच्चों के साथ चले गए तो घर एकदम खाली खाली लगने लगा।

इसके पहले भी काव्या ज़्यादा दिन तक अपनी सास के साथ नहीँ रही थी सो उसे उनके स्वाभाव और रूचि के बारे में कुछ पता नहीं था और ना ही उसे सास में उनकी ज़िन्दगी में कोई रूचि नहीं थी। उसे सिर्फ अपनी ख़ुशी से मतलब था।काव्या के इस तरह सोचने और व्यवहार करने का एक कारण यह भी था कि उसकी माँ ने अपनी सास से बहुत दुःख उठाए थे।

ज़ब दादी माँ को बहुत सताती और काव्या अपनी माँ को चुपचाप रोते और सहते हुए देखती तभी से उसके मन में यह बात बैठ चुकी थी कि सास अच्छी नहीं होती।काव्या ने सोच लिया था कि वह कम से कम अपनी सास को खुद पर हावी नहीँ होने देगी।

इसलिए शुरू दिन से ही सास से दुर्व्यव्हार करना, पलटकर ज़वाब देना और उनसे एक दूरी बनाकर रखना शुरू कर दिया ताकि माँ जी अपनी हद में रहें और काव्या अपने मन की कर सके।शुरू शुरू में तो आभास को पता नहीँ चला पर कुछ ही दिनों में वह नोटिस करने लगा था कि काव्या माँ के पास ज़्यादा देर तक बैठती नहीं है और बस अपने काम से काम रखती है।

पहले उसने इशारों से फिर बोलकर काव्या को समझाने की कोशिश की फिर डायरेक्ट कहने लगा कि, उसे थोड़ा वक़्त माँ के साथ भी बिताना चाहिए। बाबूजी के जाने के बाद वह कितनी अकेली हो गईं हैँ पर काव्या सुनकर भी अनसुना कर देती।

माँ जी दिनभर चुपचाप अपने कमरे में पड़ी रहती। शाम को ज़ब आभास आ जाता तब उन्हीं के पास बैठता। तबसे रात सोने से पहले माँ के आसपास ही रहता जो काव्या को एकदम पसंद नहीं आता था।जितना आभास अपनी माँ से अच्छा व्यवहार करता काव्या उतना ही उनके साथ रुखा बर्ताव करती जाती। रात को ज़ब आभास उसके पास आता तो ताना कसती कि,"अभी मेरे पास क्यों आए हो, माँ के ही पास रहो!"

तो आलोक समझाता,"देखो काव्या, बाबूजी के जाने के बाद माँ नितांत अकेली हो गईं हैं, तुम्हारा यूँ नाराज़ होना ठीक नहीं!"तो काव्या खीझकर कहती कि,

"अगर जानती तुम बदल जाओगे तो तुमसे शादी ही नहीं करती। तुम्हें तो सिर्फ अपनी माँ से मतलब है, मैं तो जैसे कुछ हूँ ही नहीं तुम्हारे लिए!"

आभास को समझ नहीं आता कि वह काव्या को कैसे समझाए।उस दिन आभा भी आई हुई थी। माँ जी उसके और बच्चों के आने से बहुत खुश थी। तभी आभा ने उससे कहा..."मैं तो थोड़ी देर में चली जाऊँगी काव्या, पीछे से माँ एकदम अकेली पड़ जाएंगी काव्या। तुम थोड़ा इनसे बातचीत करते रहो और थोड़ा माँ का ख्याल रखा करो काव्या "

बस दिनों से खुद को रोकते रोकते काव्या फट पड़ी,

"बाबूजी के बाद यह सब नाटक चल रहा है। मेरी तो ज़िन्दगी बर्बाद हो गई। आभास भी दिनभर माँ, माँ की ही रट लगाए रहते हैं,ऐसा लगता जैसे माँजी नहीं बल्कि मैं विधवा हुई हूँ। आपदोनों को मुझसे इतनी शिकायत है तो माँजी को ले जाइये अपने साथ !"बस इस बात ने आग में घी का काम किया और आभा माँजी को लेकर जाने लगी तो साथ में आभास भी चल दिया था।

उनके जाने के दो तीन दिन तो काव्या तनी रही पर अब धीरे धीरे उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था। उसने दो एक बार फोन भी किया पर आभास ने ना उसके फ़ोन का जवाब दिया और ना ही उसे पलटकर फोन किया।रात भर काव्या सोचती रही तो कुछ तो परिस्थितियों का और बहुत हद तक अपनी गलती नज़र आई।

अगले दिन वह एक निश्चय के साथ उठी और सिलवासा निकल पड़ी।

वहाँ जाकर सबसे पहले माँजी से माफ़ी माँगी।फिर आभा और आभास से माफ़ी माँगकर उन्हें मनाकर घर ले आई।काव्या के सरल हृदय सीधे सच्चे ससुराल वाले लोगों ने बड़े प्यार से अपनाया था,अब काव्या की बारी थी इस परिवार को अपनाने की।

अब....काव्या समझ चुकी थी कि, कोई ज़रुरी नहीं कि अगर उसकी माँ को ससुराल अच्छी नहीं मिली तो कोई ज़रूरी नहीं है उस अनुभव को अपने जीवन में उतारकर अपना जीवन भी ख़राब कर ले।माँजी को घर लाकर काव्या को बहुत अच्छा लग रहा था।

माँजी ने उसे प्यार से दुलारते हुए कहा,"बहुत अच्छा किया बेटा, जो तुम मुझे अपने घर ले आई। वहाँ बेटी दामाद के घर कब तक पड़ी रहती। एक संकोच, एक लिहाज़ तो होता ही है !"माँजी की बात सुनकर काव्या भावुक होकर बोलीं,माँजी, ये घर आपका है, हम आपके घर में रहते हैँ। मैं भी आपके घर में रहती हूँ !"

"सही कह रही है काव्या, हम सब आपके हैँ माँ!"

बोलते हुए आभास ने कमरे में प्रवेश किया।"हम दोनों आपके हैं, आप इस घर की मालकिन हैं !"

स्मूवेत स्वर में आभास और काव्या बोले तो माँ को दोनों पर बड़ा प्यार आया।

आज काव्या आभा की भी शुक्रगुजार थी कि सही वक़्त पर आभा की चुभती बात ने काव्या की गृहस्थी को बिखरने से बचा लिया।हर सास सास बनने से पहले तो एक मां होती है। और हर बहु बहु बनने से पहले एक बेटी होती है। बस सास बहू में भी अगर मां बेटी जैसा रिश्ता बन जाए तो जिंदगी कितनी खूबसूरत हो जाए और घर खुशियों से और प्यार से महकता रहे। सास बहू का रिश्ता वैसे तो बड़ा खूबसूरत बन सकता है बस एक को समझदार होने की और दूसरे को ममतामई होने की जरूरत है।

काव्या ने समय रहते अपनी सास के रूप में छुपी मां को पहचान लिया था और उसकी गृहस्थी संभल गई थी।


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