हक़ीक़त
हक़ीक़त
ये बात ही नमक अदा करने की थी,बस फर्क ये था कि मिट्टी का नमक अदा करें या माइ बाप बन बैठे उद्योगपति का ।
जब से किसान यूनियन ने इस बात को लेकर स्टैंड लिया था कि गाँव मे बनी फैक्ट्री से निकलता प्रदूषित पानी जमीन के भीतर और नहर में छोड़ना बन्द करवाया जाएगा तब से अखबार,लोग और लोकल लीडर अपने अपने स्तर पर यशोगान करने लगे थे ।करते भी क्यों नही । अखबारों को विज्ञापन,नेताओ को फण्ड और बदलती रहती सरकारों को धन की जो आपूर्ति फैक्ट्री मालिक से होती थी,उसने सबके मुंह मे शिकायत का कंकर छोड़ा ही नही था ।
कोई पत्रकार मुद्दा उठाता, कोई सरपंच बोलता या कोई कर्मचारी थोड़ा बहुत शोर करता तो उसे साम,दाम दंड भेद द्वारा मित्र बना लिया जाता । शहर गांवों की सामाजिक संस्थाएं,सभाएं सब मे फैक्ट्री मालिक के धन का प्रभाव था । दान की सबसे बड़ी पर्ची वहीं से कटती । सरकारी दफ्तरों,अफसरों से लेकर सरकार की हर तनी गर्दन तक उन्होंने धन के वैभव से झुकाव पैदा किया था ।
आखिरकार तीस साल पहले जहाँ केवल जंगल,रेगिस्तान और बियाबान था,लोग बाग देर रात सड़क पार करने से गुजरते थे, वहाँ एक फैक्ट्री ने पूरा माहौल बदल दिया था । देसी,बाहरी सब टाइप के मजदूर वहाँ रोजगार पा रहे थे । सुना है बीस एकड़ जमीन से शुरू हुआ फैक्ट्री का विकास तीस सालों में चार सौ एकड़ में फैल गया था । जमीन अधिग्रहण के समय भी बहुत धरना प्रदर्शन हुआ । बंजर और कम उपजाऊ जमीनों के तिगुने चौगने दाम देकर,किसान लीडरों को धन बल से तोड़कर और नेताओं को शेयर में हिस्सा देकर सब बाधाओं को दूर कर लिया गया ।
यूनियन बनाने वालों को डरा धमका कर वापस घर भेज दिया गया और एक आध को कही गायब भी करने की अफवाह उड़ी पर किसी की हिम्मत नही हुई कि शोर कर सके ।
धार्मिक,समाजिक और व्यापारिक संस्थाओं में फैक्ट्री मालिक का बड़ा वर्चस्व था । वो फैक्ट्री अब एक किले में तब्दील हो चुकी थी,जहां से उत्पादन की नई सीमाएं पैदा हो रही थीं । फैक्ट्री मालिक के दरबार मे हर ऊंचे और नीचे स्तर की अहमियत को दान और धन से तृप्त किया जा रहा था । आखिरकार इसकी एवज में फैक्ट्री मालिक को बेरोक टोक कुछ भी करने की छूट भी थी । सरकार किसी की भी बने,उसका पद और प्रतिष्ठा पक्की थी । कहा भी है कि व्यापारी की कोई राजनीतिक शत्रुता नही होती,उसकी सबको जरूरत पड़ती है । राजनीति का धन कुबेर के बिना काम चलेगा भी कैसे । रैली,आवभगत,ट्रांसपोर्ट,फंड,चुनाव खर्च सबकी सपोर्ट फैक्ट्री करती । सब उसे स्पोर्ट करते । सब अपने आंख कान,जबान और आत्मा मूंद कर चुपचाप यशोगान करते । मालिक अपना विकास तीव्र गति से करता । हजारों की तादाद में उसने रोजगार देकर खुद को लोगो का माई बाप साबित कर दिया था ।
अब सरकार एक बार फिर बदली थी । फर्क ये था कि इस बार न पक्ष था न विपक्ष था,ये एक नई पार्टी की सरकार बनी थी । तीसरा बदल पैदा हो गया था । इस समय एक बार फिर दर्जनों किसान,पर्यावरण हितैषि संगठनों में से दो चार ने फैक्ट्री की गलत व्यवस्थाओं के विरोध का बिगुल फूंक दिया था ।
फैक्ट्री का दूषित कैमिकल युक्त पानी अपना प्रभाव दिखाने लगा था । लोग कैंसर, दूषित पानी के प्रभाव से त्रस्त थे । बीमारियां अपना भयावह रूप फैला रही थी । फैक्ट्री का धुंआ, गैस और केमिकल की दुर्गंध ,आस पास की जमीनों का बंजर होना लगातार फैक्ट्री के फैलाव के समांतर फैल रहा था । जिधर को फैक्ट्री की जमीन बढ़ती,जमीन मालिक अच्छे दाम लेकर या मजबूरी में जगह छोड़कर आगे सरक जाते ।
रोजगार और फैक्ट्री के कारण पनपी दुकानें, व्यापार मिट्टी के नमक से ज्यादा रोजगार के नमक को महत्व देते थे । उन्हें मालूम था कि वे एक गम्भीर खतरे में जी रहे हैं पर रोजगार और बेकारी के बीच का भेद उन्हें बहुत अच्छी तरह मालूम था ।
किसान संगठन ने फैक्ट्री के सामने अनिश्चितकालीन धरना लगाने का ऐलान किया तो फैक्ट्री मालिक ने ब्रह्मास्त्र चलाते हुए कूट नीति का प्रयोग किया ।
उसने घोषणा की कि वो अपना सारा धंधा लोक हित मे सोचते हुए किसी अन्य राज्य में शिफ्ट हो रहा है और यह से अपना सारा कारोबार बंद कर रहा है ।
इस बयान से अखबारों में हाहाकार मच गया । लेखक,पत्रकार,नेता सब जिन्हें अपने कार्यक्रमो के लिए फैक्ट्री का ठंडा ए सी हाल उपलब्ध होता रहा ,चाय पानी की सेवा होती रही,प्रशस्ति पत्र मिलते रहे,वो सब खुलकर फैक्ट्री मालिक की सामाजिक उपयोगिता,दानशीलता,परोपकारी भावना पर बड़े बड़े बयान जारी किए और कहा कि यदि इस तरह देश का उद्योग जाता रहा तो देश रसातल में चला जाएगा । गाहे बगाहे रोजगार पाने वाले भी असुरक्षा की भावना से घिर गए और पक्ष में आवाज उठाने लगे ।
सवाल ये था कि जो लोग विरोध कर रहे थे,उन्होंने केवल एक वाटर ट्रीटमेंट प्लांट की मांग की थी ,जिसे आसानी से लगवाया जा सकता था । इसमें ऐसा क्या बड़ा मसला था कि फैक्ट्री मालिक ने पलायन करने का बयान दिया ।
लोग खीझ में थे कि ये पर्यावरण विदो और किसानो को बेकार में आन्दोलनजीवी बनने में क्या मजा आता है,पर उनके मन मे सवाल ये भी था कि अगर पानी,जमीन और हवा ही जीने लायक न रही तो रोजगार से हुई कमाई जीने के काम आएगी या बीमारियों से जूझते हुए मरने में ??
सवाल गम्भीर था ।