Meeta Joshi

Others

4.7  

Meeta Joshi

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गिरह

गिरह

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"सोमेश....चाय तैयार है....सोमेश.."


"मम्मा किसको आवाज़ लगा रही हो,पापा को!"


"अरे!..हा.. हा..."कह,जोर से हँस,पोर पर आए आँसू पौंछ लिए।

"बाईस साल से यही रूटीन रहा है,एकदम से आदत कैसे छूट जाएगी?"

"जानती हूँ मम्मी,आपने अपना पूरा फ़र्ज़ निभाया है।मैंने आपको तिल-तिल कर जलते देखा है।कैसे हम बच्चों के लिए आपने,अपनी हर खुशी दांँव पर लगा दी।"


"ऐसा नहीं है कि इन बाईस सालों में मुझे तकलीफें ही मिली हैं।तुम्हारा और गुड्डू का होना,तुम दोनों की तरक्की,इन सबमें मुझे मेरी तकलीफ कभी याद ही नहीं रही।"


"पर मांँ आपने खुदको पूरा खत्म कर लिया।"


"हांँ ये जो कह रही हो ना,आज की हर स्त्री यही कहेगी।जब आपकी परवाह नहीं थी तो छोड़ देना चाहिए था।पढ़ी-लिखी थी,बच्चों को पालती,स्वाभिमान से जीती।अपना मुकाम बनातीं।आप तो स्त्री शक्ति की कमजोरी का उदाहरण हो और भी न जाने क्या-क्या।पर बेटा, एक समय ऐसा आता है जब अपना नहीं,सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों का भविष्य सोचा जाता है।फिर कभी ऐसा भी नहीं रहा कि उनका किसी और के साथ....या मुझे कोई शारीरिक पीड़ा देते।बस स्वभाव था,जो कभी न बदला।"

"लेकिन मम्मा आपसी झगड़ों से मानसिक तनाव तो था ना।जबसे होश संभाला,हमेशा आपके मुँह से एक ही बात सुनी,"मुझे देख,उदहारण हूँ तेरा,कुछ बन जा,निकल जा इस घर से,अपना भविष्य बना,कल को कहीं मेरी तरह तेरी ज़िन्दगी भी एक कमरे तक सिमट के न रह जाए।"


"लंबे समय तक विरोध किया पर उनके लिए हमेशा ही दोस्ती,पहले नंबर पर थी,हमारा स्थान हमेशा दूसरे नंबर पर रहा।तुम दोनों हो गए।उसके बाद बहुत कोशिश की सामंजस्य बैठाने की लेकिन तब भी परिवार से ज्यादा हमेशा यारी-दोस्ती रही।बहुत साल कोशिश करने के बाद जब कुछ हाथ न लगा तो अपेक्षा करनी ही छोड़ दी।कईं मित्र कहते थे इस रिश्ते से क्या फायदा!एक ही छत के नीचे इंसान अपने स्वार्थ से जी रहा है और तुम बेवजह पिस रही हो....।"


"हांँ माँ सच ही तो है।"


"सच है बेटा पर अधूरा सच,किसी भी बात को आक्रोश में कहना बहुत आसान है।लोगों का क्या!जितने मुँह उतनी बातें।किस वजह से छोड़ती।वो खुशनुमा पल भी रहे है जो हमने साथ बिताए।कौन सी जिम्मेदारी थी जो उन्होने पूरी नहीं की।तुम बताओ!याद है कभी तुम्हें किसी चीज़ के लिए मना किया हो।कभी तुम पर हाथ भी उठाया हो।"


"लेकिन माँ वो कैसे दोस्त और उनके परिवार वाले थे!पापा उनके खास रहे और ये जानते-समझते भी की हमारी वजह से इसके परिवार में तनाव है वो उनसे लगातार सम्पर्क में रहे।"


"ये दुनिया ऐसी ही है बेटा।हर रिश्ते में स्वार्थ।जब खुद में कमी हो तो दूसरे को दोष क्या देना।शुरू से घर का ऐसा ही माहौल रहा है,अपनों से ज्यादा परायों की चिंता।ये समझ किसी के कहने से नहीं आती,जो महसूस करता है वो बदल जाता है।""बहुत बार सोचा जिस इंसान को सिर-दर्द से परेशान होता देख मैं इलाज की लाइन लगा देती हूँ वहीं अगले ही पल मुझे तड़पता देख वो मेरी तरफ आँख उठाकर देखता भी नहीं है।कोई इतना निर्मोही कैसे हो सकता है!क्या फायदा ऐसे इंसान की मौजूदगी का।"

"बहुत बड़ी गलती की आपने मम्मा।शुरुआत कहीं से तो करनी थी,स्कूल जॉइन करतीं।चली जातीं!क्या पता आपके कर्तव्य को ही वो आपकी बुजदिली समझते हों।"


"हर इंसान अपनी सोच से राय देता है।संस्कारों की गिरह थी जिससे बंधी रही।नहीं जानती थी एक ऐसी गिरह में उलझती चली जा रही हूँ जो कभी नहीं सुलझेगी।"


"छोड़ो मम्मा अब आ गई हो ना मेरे साथ।यही चाहती थीं ना तुम!"कुछ बन जा।है मेरी चिंता है तो ले जा मुझे यहाँ से।"अब पुराना सब भूल अपनी नई शुरुआत करो।"


अब माँ-बेटी की ढेरों बातें होतीं।सुनंदा देख रही थी सब कुछ होते हुए भी माँ के चेहरे पर कोई विशेष खुशी नहीं दिखती।आज ऑफिस से आई तो दोनों माँ-बेटी घूमने निकल गईं।सुनंदा जानती थी शांत समुद्र का किनारा उन्हें बहुत प्रिय है।


"माँ कितना शांत है ना ये किनारा।सारी नदियांँ इसमें आकर मिलती हैं पर ये इसी तरह शांति से सबको अपने में शामिल कर शांत प्रवाह से आगे बढ़ता रहता है।कितना घुल-मिल जाती हैं नदियांँ कि ये पता भी नहीं चलता कि कौनसी नदी का पानी है।अरे हाँ!पापा का फ़ोन आया था।"


समुद्र सी शांत माँ के चेहरे पर हज़ारों उद्वेलनाएँ थीं।पूछना चाहती थी पर शांत रही।


"सब ठीक है ना पूछ रहे थे।पैसों की जरूरत हो तो तुम्हारे और मम्मी के एकाउंट में डलवा दिए हैं।सुनंदा बताती-बताती रुक गई....।"उसे माँ के चेहरे पर अनगिनत सवाल दिखाई दे रहे थे।"और...और कुछ....।"

"नहीं माँ!बस इतना ही।"

माँ के चेहरे की मायूसी वो समझ रही थी।


"एक बात पूछूँ।क्या कभी तलाक का या अलग रहने का विचार मन में नहीं आया?मुझे याद है माँ आप अक्सर कहा करतीं,"हमारी जरूरत ही क्या है।छोड़ दो हमें,फिर घर को भी यारी-दोस्ती का अड्डा बना लेना।कितना तड़पती थीं तुम,मुझे अंदाज़ है मांँ क्योंकि उसका असर हम बच्चों पर भी होता था।हालांकि आपकी पूरी कोशिश होती हमें खुश रखने की।"


"तलाक लेना बहुत कठिन था बेटा।माँ-पापा,भाई सब मुझे ही शांत रहने को कहते क्योंकि वहांँ भी तो प्रेम और जिम्मेदारी से हर फ़र्ज़ निभाते थे।माँ कहतीं हर इंसान अलग स्वभाव का होता है।छोड़ना बहुत आसान है,जोड़ने की कोशिश करो।सोचो,शादी के दस पन्द्रह साल बाद की गई शुरुआत में क्या इतना कमा लोगी कि बच्चों को वो सारी सुविधाएँ दे सको।कल को भाई की शादी हो जाएगी और तुम्हें पीहर भी अपना नहीं लगेगा।लोग राय बहुत देते हैं सुनंदा,पर साथ खड़े होने वाला कोई नहीं होता।देख रही हूँ,आज समय बदल चुका है,माँ-बाप पहला शब्द यही कहते हैं,"किसलिए तुम्हें पैरों पर खड़ा किया।यदि सामने वाला ज्यादतियां कर रहा है तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाओ।"तब और अब में सोच का अंतर है और सबसे बड़ी बात जो मेरी सास कहा करती "बेटा ये सब मन की इच्छाएँ हैं।ये शुरू से ऐसा ही है,मैं तो मांँ हूँ,मेरी तरह तुम भी जिस-दिन अपने बच्चों के साथ जीना सीख जाओगी इससे अपेक्षाएं करना बंद कर दोगी,देखना तब ज़िन्दगी एक पटरी पर आ जाएगी और वही हुआ।मैं माँ के त्याग को आज समझ सकती हूँ।"माँ के मन के अथाह समुद्र में अनेकों विचार गोते खा रहे थे।

कुछ दिन बीते सुनंदा माँ को खुश रखने की भरपूर कोशिश करती।लेकिन कहीं कुछ कमी थी बाहर से खुश दिखने वाली माँ अंदर से....

आज माँ को सरप्राइज देने का सोच सुनंदा ऑफिस से जल्दी आ गई।दो दिन की छुट्टी ले,भाई के पास जाने का विचार था।

चुप-चाप इंटर लॉक खोल माँ के कमरे के बाहर जा खड़ी हो गई।वो फोन पर व्यस्त थीं।

"काली,कल फ़ोन नहीं उठाया तूने।क्या खाना बनाया साहब के लिए?सुन अरबी माँगें तो बिल्कुल मत बनाना।शौक में खा लेंगे,फिर सारे दिन गले में खुजली से परेशान रहेंगे।उनके गर्म पानी की केटली बिस्तर के पास वाली मेज पर रख देना।खाने से पहले जबरदस्ती फ्रूट काटकर रखना,नहीं उनको तो जग-सेवा से फुर्सत ही नहीं मिलेगी।"


काली हँसते हुए बोली,"भाभी सब काम वैसे ही करती हूँ जैसे आप चाहती हो।सालों से आपके काम कर रही हूँ इतना तो समझ ही गई हूँ।"


"हाँ रे,तू है तो निश्चिंत हूँ।"


"एक बात कहूँ भाभी,आप वापिस आ जाओ।जहाँ इतने साल बीत गए कुछ समय और निकल जाएगा।इस घर को आपकी जरूरत है।आपकी बिना यहांँ सब अधूरा हैं।"


"जानती हूँ पर जिसे होनी चाहिए उसे नहीं।एक बार झूठे मुँह भी....।"


"ऐसा क्यों सोचती हो भाभी।ऐसा नहीं है कि भैया आपको याद नहीं करते।कल कह रहे थे,"इतनी दूर से भी उसके निर्देशों पर चलती है।थोड़े दिन तो मन का खा लेने दे।"


सुनंदा देख रही थी माँ ने आँसू छलकाने शुरू कर दिए।बातों से इतना तो समझ ही रही थी कि माँ को आज भी पापा की उतनी ही चिंता है।"माँ" कह पुकारा तो जल्दी से फ़ोन रख आंँसू पौंछे।


"अरे इतनी जल्दी आ गई???हाँ माँ समान पैक करो,दो-दिन की छुट्टी लेकर आई हूँ।घूमने चलेंगे।"


पूछने पर सरप्राइज है कह बात टाल दी।


"अरे हम कहाँ जा रहे हैं?कुछ तो बता।"


"जा तो भाई के पास रहे थे लेकिन अब जगह बदल दी माँ।"


कुछ घंटों के सफर के बाद गाड़ी घर के आगे खड़ी थी।सुनंदा माँ के चेहरे की चमक महसूस कर पा रही थी।

भाई भी आया था।पापा आज समय पर घर आ गए।दो दिन माँ कहाँ व्यस्त रहीं पता ही नहीं चला।कल निकलना था।आज पापा को थोड़ा बुखार था।

सुनंदा ने देखा माँ जाने के नाम पर कुछ अनमनी सी थी।सारे दिन पापा के इर्द-गिर्द घूमती रहीं।


"सुनंदा कुछ दिन यहाँ रह लूँ,चेंज हो जाएगा।अचानक गए थे तो सबसे मिलना भी नहीं हो पाया था।"


वो मुस्कुरा दी,वजह जानती थी।जानती थी माँ हर चीज से समझौता कर चुकी है।वो अपनी इस छोटी सी गृहस्थी में लाखों गिरह पड़ जाने के बाद भी खुश है।


सुनंदा जाने लगी तो माँ हँसते हुए बोली,"बेटा मुझे माफ़ कर देना पर गुलज़ार साहब ने क्या खूब कहा है उनके शब्दों का अर्थ जिस दिन समझोगी मुझे गलत नहीं मानोगी।

"इंसानी रिश्तों का क्या है....

बड़े नाजुक से होते हैं।

इनकी गिरहें खोलना बेहद मुश्किल है,

जितना खोलो उतनी ही उलझती जाती हैं

और किसी रिश्ते को यूँ ही खत्म कर देना आसान नहीं,

कितनी यादें दफन करनी पड़ती हैं उसके साथ....।"


सुनंदा माँ को गले लगा प्यार की झप्पी दे चली गई।दूर तक मांँ अपने मन के साथी को जाता देखती रही।सच ही तो है।किसी को हाथ देना और हाथ देकर ऊपर खींचना दोनों में बहुत अंतर है।एक औरत तन-मन-धन से अपने परिवार को पूर्ण समर्पण देती है,बदले में प्यार और सम्मान चाहती है।यदि आप किसी का साथ नहीं दे सकते,समय के साथ खुदको बदल नहीं सकते तो आने वाली का जीवन बर्बाद न करें पति-पत्नी का रिश्ता एक मजबूत रिश्ता है।लाखों थपेड़ों के बाद भी इसकी गिरह खोलना आसान नहीं।



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