Devendra Tripathi

Tragedy

3.6  

Devendra Tripathi

Tragedy

एक प्रश्न

एक प्रश्न

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शाम के ७ बजे, चारो ओर अफरा तफरी... रेलगाड़ी को पकड़ने के लिए भागता हुआ हर इंसान... उदघोषक की आवाज की प्रतीक्षा करते हुए यात्री....चारो ओर चाय, खाना और पानी, कोल्डड्रिंक बेंचते हुए दुकानदार और रेलवे के कर्मचारी..... स्टेशन पर आती जाती तमाम रेलगाड़ियों की भीड़भाड़ से भरा हुआ खचाखच मुगलसराय का रेलवे स्टेशन... कहीं सुदूर इलाके से आयी हुई पाँच औरतें? जिनके पास सामान के नाम पर है तो केवल एक एक चावल की बोरी.....

बंगाल की ओर जाने वाली रेलगाड़ी की उदघोषणा होते ही, पाँचो औरते चावल की बोरियाँ अपने अपने सिर पर लादे, रेलगाड़ी की ओर भाग रही है...

स्टेशन पर रेलगाड़ी के लगते लगते पाँचों औरते प्लेटफार्म पर पहुंचकर अपनी बोरियों को फटाफट लादने लगती है। पाँचो के चेहरों पर एक अजीब सी चिंता साफ साफ झलक रही है..... देखकर ऐसा लग रहा है कि वे कुछ परेशानी में है। बोरियों को रेलगाड़ी पर लादने के बाद थोड़ा सुकून की साँस लेते हुए..अपने सूती साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछते हुए एक दूसरे से बात करती है-

पहली औरत- "चलो बहन अच्छा हुआ कि रेलगाड़ी मिल गयी नही तो हम आज घर न पहुँच पाते।"

दूसरी औरत- "लेकिन दीदी, अगर हमे गाँव के उस आदमी ने यह न बताया होता कि मुगलसराय की बाजार में चावल इतने सस्ते मिलते है, तो हम यहाँ कैसे आते??"

तीसरी औरत- "ये बात तो सही है, देखो यही चावल अपने गाँव मे ६० रुपया किलो मिलता है, लेकिन यहाँ तो ४० रुपये में ही मिल गया। किराया भाड़ा सबकुछ मिला लेंगे, तबपर भी हमारा १००-१५० रुपया बच गया।"

चौथी औरत- "लेकिन बहुत समय लग गया... हम तो सोंचे थे कि दोपहर तक लौट आएंगे, दीदी बताई थी कि एक घण्टा में रेलगाड़ी से मुगलसराय और मुगलसराय से तो हर घड़ी ही वापसी की रेलगाड़ी मिलती है.... लेकिन आज तो सब ट्रेन लेट हो गयी... हमको तो घर पहुँचने में रात हो जाएगी...."

पाँचवी औरत- "दीदी! आज ई १००-१५० रुपया के बचावे के चक्कर मे हमारा मर्द तो बहुत मारेगा हमको......"

दूसरी औरत पलटकर- "अरे मारेगा तो हमरा ही तो मर्द है, किसी दुसरे का तो है नही... उसका तो हक़ है मारने का......"

चौथी औरत- "बात तो सही कह रही हो तुम... मारेगा तो हमरा भी मर्द.. लेट जो हो गया... और अलग से अगर हम ये बताये कि हम पैसा बचा के लाये है, घर के लिए तो.... कलंक लगाकर घर से भी निकाल देगा।"

पाँचों औरतों के चेहरे पर चिंता की शिकन और परेशानी साफ झलक रही है.... रात के तकरीबन ८.०० बजे उनका स्टेशन आ गया, और जल्दी से अपनी बोरी उतारकर अपने गाँव की ओर निकल जाती है.........

यात्रा यहीं खत्म नही होती है, यहाँ से शुरू होती है, उनके प्रतिफल का... अगले और आधा घण्टे में सभी औरतें अपने गाँव पहुँचती है। ऐसा नही था कि जो रास्ते मे ये पाँचो महिलाएँ सोंच रही थी वो मिथ्या था... बिल्कुल वैसे ही घटित हुआ जैसे उन्होंने सोंचा था.....

हर घर के सामने खड़ा एक पुरुष, अपने हज़ारों सवालों से उनका दिल छलनी कर रहा था, लेकिन जबाब नही था..

ऐसा कौन सा चावल तुम लेने गयी थी? कहाँ इतना समय लग गया? किसके साथ गयी थी? कौन यार मिल गया था तुम्हारा? कहाँ से इतना पैसा बचा के लायी है? चावल खरीदने गई थी या खुद बिकने गयी थी?? कितने में अपने जिस्म को बेंच दिया तूने? मुझसे पेट नही भरता क्या जो शहर में मुँह मारने चली गयी?

साथ मे जिस्म पर लाठी और डंडों के अनेको निशान जो अपने घर की समृद्धि के लिए कुछ पैसों की बचत करने के लिए निकले थे।

बच्चों की आँखों मे ऐसे आँसू न आने पाए, ऐसा कुछ उनके बच्चों के साथ न घटित हो बस यही सोंचती हुई, कराहती हुई ये पाँचो औरते अपने भूखे बच्चों के लिए खाना बनाने लगती है, और उसी चावल की बोरी के चावल से अपने बच्चों का पेट भरती है जिसके लिए वो अभी कलंकित हुई है। ऐसे ही रोज न जाने कितनी औरतें अपने बच्चों के भविष्य को सँवारने के खातिर ऐसे दौर से गुजरती है.......

लेकिन यही औरते हमारे समाज और देश के लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न छोड़कर जाती है..... सोंचियेगा जरूर............





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