एक नई दीपावली
एक नई दीपावली
रसोईघर की खिड़की से बाहर झांकते हुए शकुंतला देवी मन ही मन बडबडाईं,"इस शहर का मौसम भी अजीब हो गया है। अब बताओ भला अक्टूबर के अंत में दिवाली के आसपास कब बारिश होती थी। कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा।" यह कह कर वो फिर से व्यस्त हो गई मिठाई और मठरियां बनाने में। मिठाई की खुशबू पूरे रसोईघर में फैली हुई थी।
कमला, जो शकुन्तला देवी के यहां बर्तन सफाई का काम करती थी बोली,"अम्मा, आप पिछले दो घंटे से रसोई में खड़े हो। जाकर थोड़ा आराम कर लीजिए वरना बिमार पड़ जाएंगे।"
"अरे! कमला, मेरे पास आराम करने की फुर्सत कहां है। वो सब कल आ रहे हैं और एक हफ्ते तक यहीं रहेंगे। इस बार की दिवाली यादगार साबित होगी। सच, सबके साथ इतने सालों बाद!!" शकुन्तला देवी की प्रसन्नता चरम सीमा पर थी।
"कौन आ रहे हैं अम्मा?" कमला ने पूछा।
"ओह! लो मैं तो तुम्हें बताना ही भूल गयी। मैं भी कितनी भुल्लकड़ हो गई हूं। अविनाश और अनिरुद्ध दोनों आ रहे हैं अपने परिवार के साथ। मेरे दोनों बेटे अपने परिवार के साथ इस बार की दिवाली यहीं मनाएंगे। और तुझे तो पता है कि उन दोनों को मेरे हाथ की मिठाइयां कितनी पसंद हैं।" शकुन्तला देवी उत्सुकता से मिठाई बनाती हुई बोली।
"अम्मा, बुरा मत मानना पर पिछले तीन साल से आपके दोनों बेटे हर बार आने का वादा करते हैं दिवाली पर, लेकिन आते नहीं।" कमला के स्वर में शकुन्तला देवी के लिए चिंता साफ झलक रही थी।
"कमला, पिछले साल सिद्धांत का बोर्ड था। इसलिए अविनाश उसकी पढ़ाई में विघ्न नहीं चाहता था। इसलिए नहीं आए वो लोग।"
"अच्छा, और उससे पिछले साल क्या था? तब किसका बोर्ड था? तब क्यों नहीं आए सब?" कमला ने कटाक्ष करते हुए कहा।
"तेरी याद्दाश्त तो मुझसे भी कमज़ोर है। उस साल श्रया, अनिरुद्ध की पत्नी कितनी बिमार थी, और अविनाश को एक ज़रुरी मीटिंग के लिए अमेरिका जाना पड़ा था।" शकुन्तला देवी ने कमला को उत्तर देते हुए कहा।
"हर साल कोई ना कोई बहाना। अम्मा वो लोग आना ही नहीं चाहते। आप बेकार ही...." कमला कुछ और बोले इससे पहले शकुन्तला देवी ने उसे रोकते हुए कहा,"क्या कुछ भी बोलती है तू कमला। अरे! परिवार में सौ तकलीफ़ें होती रहती हैं। ऐसे किसी की नीयत पर शक नहीं करते। चल जल्दी से बच्चों का कमरा साफ़ कर दे।"
शाम का खाना खाने के बाद शकुन्तला देवी अपनी आरामदायक कुर्सी पर बैठ गई। ये कुर्सी कुछ बरस पहले उनके दोनों बेटों ने उन्हें जन्मदिन के उपहार स्वरूप दी थी।
और देते हुए कहा था,"मां, अब आप बस आराम करो। अब हम काम करेंगे। आप सिर्फ अपने पोते-पोतियों के साथ खेलो।"
पर एक साल बाद दोनों बढ़िया नौकरी के चक्कर में बैंगलुरू चले गए। आज सात साल होने को आए। वो दोनों वहीं बस गए। अपने घर भी बना लिए। शकुन्तला देवी एक-दो बार रह कर आईं थीं वहां पर बहुओं के व्यवहार से मन बहुत आहत हो गया। इसलिए वापस अपनी छोटी सी दुनिया में आ गई।
कुर्सी पर बैठी शकुन्तला देवी अपने अतीत के सफर पर चल पड़ीं। बहुत कम उम्र में ही उन्होंने अपने पति को खो दिया था। बच्चों और घर की ज़िम्मेदारियां उन पर आ गई। पर बहुत खूबसूरती से उन्होंने सब कुछ संभाला। एक व्यक्ति के वेतन में दो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा, राशन-पानी का खर्चा बहुत ही मुश्किल था। पर उन्होंने सब कर दिखाया।
कितनी बार उनके ऑफिस के सदस्य शहर से बाहर घूमने जाने का प्रयोजन करते। पर शकुन्तला देवी कभी नहीं गई। बच्चों की ज़िम्मेदारी थी उन पर। और वह फ़िज़ूल खर्च भी नहीं करना चाहती थीं। दोनों बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त हो इसके लिए उन्होंने ऑफिस में ओवरटाइम किया, शाम को घर पर ट्यूशन लीं और आचार-पापड़ का छोटा सा बिजनेस भी शुरू किया। कई मुसीबतों का सामना करते हुए उन्होंने अपने दोनों बेटों को इस लायक बनाया कि आज वो बड़ी कम्पनियों में ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं। कल वो सबको एक साथ देखेंगी, इस खुशी ने उनकी आंखों में आंसू ला दिए।
वो अपनी यादों में खोई हुई थीं कि अचानक फोन की घंटी से उनकी तंद्रा टूटी। फोन के स्क्रीन पर उनके बेटे अविनाश का नाम फ़्लैश हो रहा था। शकुन्तला देवी थोड़ा घबरा गई। समय देखा रात के नौ बज रहे थे। मन ही मन सोचने लगीं कि 'इस समय अवि का फोन। हे भगवान! सब ठीक तो है ना।'
कांपते हाथों से उन्होंने फोन उठाया। उधर से अविनाश की आवाज़ आई,"क्या मां, इतनी देर लगा दी आपने फोन उठाने में।"
"अवि? सब ठीक है ना बेटा? तुम्हारे आने की खुशी में मैंने इतनी सारी मिठाइयां बनाकर रखी हैं। बस तुम सब जल्दी से आ जाओ।" शकुन्तला देवी ने एक छोटे से बच्चे की तरह उछलते हुए कहा।
"मां, उसी बारे में बात करनी है....वो क्या है मां कि मुझे ऑफिस की तरफ से सिंगापुर के फ्री एयर टिकट मिले हैं।अब सब ज़िद्द कर रहे हैं कि उन्हें सिंगापुर जाना है। अगले साल सिद्धांत की बारहवीं की पढ़ाई है तो अगले साल तो हम कहीं निकल ही नहीं सकते। और फिर अगले साल अनिरुद्ध की बिटिया के भी तो बोर्ड हैं। तो हमने सोचा...कि इन सबको इस साल घुमा लाते हैं। तो... मां हम दिवाली पर नहीं आ पाएंगे... हैलो... मां... मां आप सुन रहे हो ना?" अविनाश ने संकोच वश कहा।
शकुन्तला देवी की आंखों में आंसू तैर रहे थे जो बस झलकने को बेताब थे। पर उन्होंने किसी तरह अपने आंसुओं को पोंछते हुए दृढ़ता से जवाब दिया,"सुन रही हूं बेटा। तो तुम अगले साल भी दिवाली पर नहीं आओगे?"
"मां, अगले साल सिद्धांत की बारहवीं और परी की दसवीं की परीक्षाएं हैं। कैसे आ पाएंगे सब। पर मैं और अनिरुद्ध दो दिन के लिए आपसे मिलने ज़रुर आएंगे। मां, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप हमारी परेशानी को समझ सकेंगी।"
"हां, हां बेटा, मैं ही तो समझूंगी। मैं नहीं समझूंगी तो और कौन समझेगा। चल तू जा और बच्चों को मज़े करवा। यही तो दिन हैं उनके। ठीक है रखती हूं।" यह कह कर उन्होंने फोन रख दिया। आंखों से अश्रुओं की धारा बह निकली।
वहीं अपनी कुर्सी पर बैठ वो कुछ समय शून्य में देखती रहीं। मन में ना जाने कितने विचार उथल-पुथल मचा रहे थे। आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मन में एक ही सवाल रह-रह कर उठ रहा था,"ऐसा क्या मांग लिया मैंने? सिर्फ एक हफ्ता सबका साथ ही तो चाहा था। अपनी ज़िंदगी से एक हफ्ता भी मेरे बेटे मेरे लिए नहीं निकाल सकते। मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी उनकी खुशियों और ख्वाहिशों को पूरा करने में निकाल दीं। और वो मेरी खुशी के लिए एक हफ्ते का समय भी नहीं निकाल पाए?"
ये सोचते-सोचते शकुन्तला देवी को कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। पूरी रात उन्होंने उस कुर्सी पर बिता दी। सुबह कमला की घंटी से उनकी आंख खुली।
शकुन्तला देवी को देख कमला थोड़ा घबरा गई। उनकी तबीयत बिल्कुल ठीक नहीं लग रही थी। आंखें सूजी हुई थीं और चेहरा मुरझाया हुआ सा था। कमला को यह समझते देर नहीं लगी कि इस बार भी उनके बेटों ने दिवाली पर ना आने का कोई ना कोई बहाना बनाया होगा। कमला कुछ पूछती इससे पहले शकुन्तला देवी बोलीं,"कमला एक कप चाय बना कर दे। सिर दर्द से फटा जा रहा है।"
शकुन्तला देवी अपनी बालकनी में बैठ गई। वहां से पार्क का सारा नज़ारा दिखता था। कमला उनके लिए चाय-नाश्ता ले आई। शकुन्तला देवी धीरे-धीरे चाय पीने लगीं और पार्क में लोगों को देखने लगीं।
उन्हें नन्ही सी प्रिया दिखाई दी। बच्चों संग भागती-दौड़ती। अभी साल भर पहले की ही तो बात थी जब उसकी मां का अचानक देहांत हो गया था। उस समय बेचारी बच्ची को कुछ समझ नहीं आ रहा था। गुमसुम और शांत हो गई थी। पर अब धीरे-धीरे उसकी हंसी वापस आने लगी थी।
फिर उन्हें मिसिज मजुमदार दिखीं। अपनी मंडली के संग बैठी कीर्तन कर रही थीं। कुछ समय पहले उन्होंने एक सड़क हादसे में अपने बेटे और पति दोनों को खो दिया। ज़िन्दगी उस वक़्त थम सी गई थी उनके लिए। पर अब सब सामान्य हो रहा था।
मिस्टर मिश्रा को कुछ वक़्त पहले बहुत तेज़ दिल का दौरा पड़ा था। उनके दोनों बेटे अमेरिका में हैं। उस समय उनके पास दोनों में से कोई नहीं था। सिर्फ पड़ोसी ही थे। आज वो स्वस्थ हो कर फिर से टहल रहे हैं।
इन सबको देख कर शकुन्तला देवी के दिमाग में अचानक एक बिजली सी कौंधी। वह सोच में पड़ गई,"ज़िन्दगी कभी किसी के लिए नहीं रुकती। ये तो निरंतर चलती रहती है। वो छोटी सी बच्ची प्रिया, मिसेज मजुमदार, दोनों ने अपने सबसे निकटतम रिश्ते को खो दिया पर आज वो फिर से एक नयी शुरूआत कर रहे हैं। मिस्टर मिश्रा अपनों के साथ ना होते हुए भी इतने बड़ी बिमारी से अकेले लड़े और आज स्वस्थ हैं। वो सब अपने दुख, तकलीफ़, ग़म और परेशानियों को पीछे छोड़ आगे बढ़ रहे हैं।
और मैं, मैंने अपनी ज़िंदगी को जैसे रोक ही दिया है। क्यों मैं हर वक़्त सिर्फ यही सोचती हूं कि मैंने क्या - क्या किया अपने बच्चों के लिए, कितनी कुर्बानियां दीं। और मेरे बच्चे बदले में मुझे क्यों कुछ नहीं दे पा रहे? आखिरकार मुझे उनसे क्यों कुछ चाहिए? उनकी अपनी ज़िंदगी है। अपने परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियां हैं। मुझे तो खुश होना चाहिए कि वो अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभा रहे हैं।
रही बात मेरी, तो आज से मैं वो ज़िन्दगी जीने की कोशिश करुंगी जो ज़िम्मेदारियां निभाते- निभाते पीछे छूट गयी थी। कोई आए या ना आए दिवाली तो इस बार मनाऊंगी और वो भी वैसे जैसे कभी मनाना चाहती थी।"
शकुन्तला देवी के लिए उस दिन एक नया सूरज उगा था। जो उन्हें निराशा के अंधकार से निकाल कर उजाले तक ले आया। उस दिन उन्होंने एक नया दीप प्रज्जवलित किया जो नयी उम्मीद और आशाओं से प्रकाशमान था।
दिवाली वाले दिन शकुन्तला देवी अपनी कुछ खास सहेलियों के साथ वैश्नोदेवी के मंदिर में थीं। सुबह-सुबह भवन पर उन्होंने अपनी सहेलियों के साथ माता के अद्भुत और अलौकिक दर्शन किए। वहां से भैरो मंदिर के दर्शन कर शाम को सबके साथ अर्धक्वारी रुके। वहां रात को दीप प्रज्जवलित किए। कितना अनुठा और विहंगम दृश्य था। सब तरफ दीप ही दीप प्रज्जवलित थे। इतना अद्भुत नज़ारा देख सबकी आंखें भर आईं और सबने मिलकर यह तय किया कि अब से हर दीपावली वो सब यहां माता के दर्शन को आएंगे।
और साथ ही एक और वादा किया अपने आप से कि अब ज़िन्दगी में पलट कर नहीं देखेंगे। कोई उनके पीछे खड़ा हो या ना खड़ा हो वो सिर्फ अपने पथ पर आगे बढ़ेंगे। अपनी ज़िंदगी को एक नया मकसद देंगे। पूरी ज़िन्दगी उन्होंने अपनों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाया था। पर अब वक़्त था अपने प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने का।
उस दीपावली उन सबने मिलकर एक नयी उम्मीदों से भरी दिवाली मनाई। जिसका प्रकाश उन सबके जीवन को उजाले की ओर ले गया।