Vinita Shukla

Others

5.0  

Vinita Shukla

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एक ढका छुपा सच

एक ढका छुपा सच

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सोमेश चौधरी के हाथ काँप रहे थे. वकील की नोटिस, थामकर रखना, मुश्किल हो गया. सरकारी आदेश था. रितेश भैया के निधन के बाद, भैया की चल- अचल संपत्ति, कानूनन, उन्हें मिल जानी थी. उनकी पत्नी सुनीति ने, पति को विचलित अवस्था में देखा तो फौरन पास आकर पूछा, "क्या हुआ, सब ठीक तो है?" इस पर वे कुछ नहीं बोले और चुपचाप नोटिस को, पत्नी की तरफ बढ़ा दिया. सुनीति ने सरसरी निगाह, उन कागजों पर डाली और करुण भाव से सोमेश को निहारा. कुछ देर मौन पसरा रहा. चुप्पी सुनीति ने ही तोड़ी," सोमेश...विवाह से लेकर अब तक, भूले से भी रितेश भैया का नाम, आपकी जुबान पर नहीं आया...पापा ने उनके बारे में पूछा तो आप कड़ाई से टाल गये. मेरी भी कभी हिम्मत नहीं हुई, पूछने की...और अब??" 

सोमेश फिर भी चुप ही रहे. वह रहस्यमय चुप्पी, खिजाने वाली थी. सुनीति फट पड़ीं, "ऐसा नहीं कि मुझे कुछ मालूम ना हो...इधर- उधर से पता चला कि किसी लड़की का चक्कर था. मैं इतने सालों तक जब्त किये रही पर...!!" "पर और ज्यादा जब्त नहीं कर पाओगी" बात को सोमेश ने ही पूरा किया. एक हल्की सी मुस्कान सजाकर, वह बोले, "तुम्हें सब कुछ बताने का, समय आ गया है... कुछ अंदाजा तो तुमको भी होगा; रिश्तेदारी में कोई शुभकार्य होता, या फिर दुःख मनाया जाता... तब रितेश भाई की झलक, मिल ही जाती; लेकिन मैं...! मैं उन्हें देखते ही, मुंह घुमा लेता. निःसंतान भैया कभी, हमारे बच्चों के सर पर, स्नेह से हाथ भी ना फिरा पाए...जब भाभी के देहांत हुआ तो भी, उनसे मिलने नहीं गया था. उनकी गिरती सेहत के बारे में पता था...लेकिन उन्हें देखने नहीं गया. वे दोस्तों और नौकरों के रहमोकरम पर चलते रहे...जबकि उनका छोटा भाई जीवित था..." कहते कहते सोमेश बहुत गम्भीर और भावुक हो गये.

पत्नी एकटक, अपने पति को ही देख रही थी. सुनीति के प्रश्नों का समाधान, सोमेश को करना ही था. वे आगे बोले, "मैं उसूलों का पक्का हूँ. रितेश भाई की जायदाद का, एक पैसा भी नहीं रखूंगा...सब गरीबों में दान कर दूंगा." उन्होंने पाया कि पत्नी की आँखों में, इस बात को लेकर, कोई आपत्ति ना थी. उसे तो बस, वह सब कुछ जानना था- जो वे सालों तक उससे छिपाते रहे! उन्होंने मेज से पानी का गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया. उनकी आँखें, शून्य में टिकी थीं. वे धीरे- धीरे पुराने समय को जीने लगे. यादें शब्दों का बाना पहनकर, जीवंत हो उठीं, "तब मेरी बैंक में, नयी- नयी नौकरी लगी थी. श्रुति भी मेरी ब्रांच में थी...हमारी नियुक्ति, साथ ही हुई थी."

 कहानी आरम्भ होते ही, उसकी संभावित नायिका- "तथाकथित" श्रुति, अस्तित्व में आ गयी थी! सुनीति की मुखमुद्रा, कठोर हो चली; फिर भी जाने क्यों...सोमेश की व्यग्रता, उन्हें उग्र होने से रोक रही थी. सोमेश बोलते रहे, "अपने संग काम करने वालों से, मेरी अच्छी पहचान हो गयी; लेकिन श्रुति सबसे खिंची- खिंची रहती. उसने खुद को, किसी अदृश्य लक्ष्मण- रेखा से, बाँध रखा था. उसका गहन- गम्भीर व्यक्तित्व, मेरे लिए एक पहेली था...जो मुझे जिज्ञासा से भर देता. ऑफिस में अलग- थलग पड़ जाने के कारण, वह अक्सर "गॉसिप" के निशाने पर आ जाती." इतना कहने के बाद, उन्होंने निश्वास लेते हुए, पत्नी को देखा.

 वह आगे की बात सुनने को, आतुर जान पड़ती थी. सोमेश की आँखों में, एक विचित्र सी चमक आ गई. घटनाक्रम सहज रूप में, आकार ले रहा था, "विशेष तौर पर महिलाएं, उसे संदिग्ध पातीं थीं. वहां एक शेफाली नाम की असिस्टेंट थी जो बताती रहती कि श्रुति के घर में, उसकी पागल बहन है...और श्रुति भी कुछ- कुछ वैसी ही...!" सुनीति ने पति पर, गहरी दृष्टि डाली; पर वे तो कहीं और देख रहे थे...कुछ अन्यमनस्क से, खोये- खोये से; कथा का प्रवाह, फिर भी, अविछिन्न रहा... अतीत की बंद परतें खुलती चली गईं, " मेरा और उसका काउन्टर पास- पास था. मेरा काम- पैसे निकलवाने के लिए, फॉर्म भरवाना और उसका- खाताधारियों को, पैसे चुकता करना. वह मुझसे व्यक्तिगत दूरी बनाकर रखती; लेकिन साथ- साथ चाय पीते हुए, औपचारिक बातें करते हुए, कब हम एक- दूजे के करीब आ गये...पता ही ना चला!"

 सुनीति ने सायास, स्वयम को नियंत्रित किया. सोमेश की चोर निगाहें, उन्हें ही घूर रही थीं. पत्नी की तरफ से आश्वस्त होकर, पति ने आगे कहना शुरू किया, "बात शादी तक पहुँच गयी...श्रुति माता- पिता से मिलाने, मुझे अपने घर ले गयी..." बोलते हुए, उन्होंने सहमकर, सुनीति को पुनः देखा. वह विकल दिखी... किन्तु आक्रामक नहीं. सोमेश आगे बढ़े, " बैठक में, अभिशप्त सी नीरवता थी. मंद रौशनी वाले वाल- लैंप पर, क्रोशियानुमा कवर... उससे छितराता हुआ, परछाइयों का जाल ... बेमतलब ही चल रहा टी. वी. और... डाइनिंग व ड्राइंग- रूम के बीच, एक पारदर्शी पर्दा; परदे के दूसरी तरफ, कोई बुत बनी स्त्री!" 

मन्त्रचालित सी श्रीमती सोमेश चौधरी, पति के विवाहपूर्व, प्रणय- प्रसंग में, उलझती जा रही थीं! प्रसंग अपनेआप में, श्रोता को उलझाने वाला था, "हम लिविंग- रूम के, गद्देदार कोच पर, आसीन हो गये. श्रुति के इशारे पर नौकर, उसके पिता नंदन वर्मा को बुला लाया. वर्मा अंकल प्रथम दृष्टया, मृदुभाषी और व्यवहारिक इंसान लगे. हम बातचीत कर ही रहे थे कि परदे के पीछे वाले बुत में, हलचल सी हुई. क्षणांश में, वह अस्त- व्यस्त सी स्त्री; हमारे सामने, आ खड़ी हुई... मुझ पर उंगली तानते हुए बोली, "तुम...कौ...न? जाओ...य..हाँ से जा...ओ!" उसके वाक्य टूटे- फूटे थे और वह मुश्किल से, अपनी बात कह पा रही थी.

"मालिनी...जरा इधर आइये...बड़की मेहमान को परेशान कर रही है!" नन्दन जी ने आवाज को, थोड़ा  ऊंचा करके, सहधर्मिणी को बुलाया. बौखलाई हुई सी मालिनी आंटी, वहां आयीं और बड़की को खींचकर ले जाने लगीं. मेरे अभिवादन करने पर, वे पानी- पानी हो गई. बड़ी बेटी की विक्षिप्तता ने, उन्हें भी, अछूता नहीं छोड़ा था. उनके व्यक्तित्व में टूटने के चिन्ह, स्पष्ट देखे जा सकते थे. बड़की की ही भांति, आँखों के नीचे काले घेरे... मुचे हुए पल्लू को, कमर में खोंसे...नित्य ही वह जीवन से, नया युद्ध लड़ती रही होंगी. वर्मा अंकल ने मुझे आश्वस्त करने का प्रयास किया...यह कि धीरे- धीरे उनकी बड़ी बेटी, मुझे जानने लगेगी और फिर...बेअदबी नहीं करेगी!

बाद में, श्रुति से पता चला कि बड़की लगभग पत्थर बन चुकी है. कोई भी संवेदना, कोई भी अनुभूति...उसे छू नहीं पाती....उसकी मुस्कान से, जुगुप्सा ही छलकती है और अनुभूति के नाम पर शेष है- मात्र हिंसा की भावना...! जब आंटी उसे नहलाने, धुलाने, कपड़े पहनाने और खाना खिलाने के उपक्रम करती हैं, उसके हाथों धुन दी जाती हैं! उसकी थमी हुई, बदनुमा ज़िन्दगी में, कुछ हलचल बनी रहे; इस वास्ते उसे, ड्राइंग- कम- डाइनिंग रूम की बेंच पर, परदे के पीछे... बैठा दिया जाता. टी. वी. भी चलता ही रहता. उधर से वह, यदा- कदा, परिचितों को आते- जाते देखती और उचटती हुई नजर, टेलीविजन पर भी डाल लिया करती. 

वह किसी भी अपरिचित, विशेषकर पुरुष को देखकर, भड़क उठती है. अपने पिता, घर के पुराने नौकर मंगल काका और जान- पहचान वाले पुरुषों के अलावा; कोई भी दूसरा, उसे दुश्मन जान पड़ता है. कभी यही बड़की, बहुत वाचाल और चंचल थी; स्मार्ट और फैशनपरस्त भी. पढाई में अव्वल...देखने- सुनने में आकर्षक और स्कूली गतिविधियों में भी आगे! अपने सहपाठियों और अध्यापकों के बीच खासी लोकप्रिय...!" तेजी से बोलते हुए, सोमेश जी की सांस उखड़ने लगी. सुनीति ने जग लेकर, पानी का गिलास भरा और चुपचाप, उनकी तरफ बढ़ा दिया. 

 सुनीति ने कहा, "कोई जल्दी नहीं है...हम इस बारे में, फिर कभी बात करेंगे. लगता है आप, अपनी बी. पी. की दवा लेना भूल गये हैं. मैं ले आती हूँ" बोलकर वे उठने लगीं तो पति ने हाथ पकड़कर, उन्हें रोक लिया और इशारे से जता दिया कि वह दवाई ले चुके थे. कुछ देर दोनों चुप रहे; फिर श्रीमती चौधरी, बेटे की व्हाट्स- एप चैट से मिली तस्वीरें, पति को दिखाने लगीं. उन तस्वीरों में, उनके पोता- पोती, वाटर- पार्क में मस्ती कर रहे थे. बेटी ने भी अपने पति संग, आउटिंग के स्नैप्स भेजे थे. लॉन्ग- ड्राइव के दौरान, उन्होंने प्राकृतिक नजारों को, अपने कैमरे में कैद किया था; लेकिन चौधरी जी का दिल, किसी "फोटो- शोटो" में नहीं लग रहा था! थोड़ी देर बाद, वे अखबार में डूब गये और श्रीमती जी घरेलू क्रिया- कलापों में.

शाम की चाय के समय, वे फिर, आमने- सामने थे. सोमेश ने कहा, "सुनीति, आज रात का खाना बाहर से आर्डर कर देते हैं." "लेकिन क्यों सोमेश...? मैंने पनीर को, मैरिनेट भी कर लिया है...आज के मेनू में, पनीर की सब्जी है ना?!" सोमेश फीकी हंसी हँसे और बोल उठे, "हाँ बाबा याद है...लेकिन तुमसे जो कहना था, वह अभी भी अधूरा है. कुलबुलाहट तुम्हारे अंदर है... और मेरे अंदर भी; तो क्यों ना कह- सुनकर, प्रकरण को, यहीं ख़तम किया जाए. रसोईं में जाओगी तो कुछ बता भी ना सकूंगा." पत्नी से अविलम्ब, मूक सहमति मिल गयी. उन्होंने ऑनलाइन निर्देश देकर, भोजन मंगवा लिया. 

वे उठे. खिड़की की चिक को बंद किया और बल्ब जला दिया. यूँ लगा, मन के किसी वर्जित क्षेत्र में, प्रवेश के पहले...किसी अप्रिय बात को, छेड़ने से पहले... उसकी भूमिका गढ़ रहे हों. "हाँ तो मैं कहाँ था..." वे अभी भी, अनमने ही जान पड़ते थे, "मैंने बताया था कि कैसे श्रुति से, मेरा सम्पर्क हुआ और हमारा सम्बन्ध... प्रगाढ़ बना..." कहते कहते वे झेंप गये; किन्तु इस बार, पत्नी के चेहरे को, पढ़ने की, चेष्ठा नहीं की. कथा संभवतः, नये पड़ाव से होकर, गुजरने वाली थी, "मैं लखनऊ में था...रितेश भाई और शीतल भाभी कानपुर में. उन दिनों, भाई ही मेरे आदर्श थे... रितेश चौधरी एडवोकेट- अपने समय के, नामी वकील! बाऊजी के देहांत के बाद, उन्होंने ही मुझे और माँ को संभाला था...माँ के जाने के बाद तो... मैं पूरी तरह, उन्हीं के भरोसे था" सोमेश मुस्करा उठे; कितु उस स्मित में, निहित दर्द और विद्रूपता, छुपे ना रह सके!

सुनीति, सोमेश संग, अनकही सी पीड़ा में...डूब- उतरा रही थीं, "श्रुति के साथ, विवाह की सहमति लेने, मैं कानपुर गया...वैसे भी...भैया और भाभी से मिले, हफ्तों बीत गये थे. कानपुर जाने वाली बस में सवार होकर, मैं मानों, हवा की सवारी कर रहा था...मन बल्लियों उछल रहा था; किन्तु भीतर, एक संग्राम छिड़ा था...अनेकों प्रश्न और प्रतिप्रश्न उभर आये थे- कैसे वे लोग, श्रुति के बारे में पूछेंगे और मैं कैसे उनको जवाब दूंगा. उन्हें कैसे बताऊंगा कि मेरी प्रेयसी पर, एक पगली बहन का, दायित्व भी है... इस बात को लेकर, भैया, भाभी ने आनाकानी की तो श्रुति को क्या मुंह दिखाऊंगा ?! 

वह तो आँख मूंदकर, मुझ पर विश्वास करती थी... अपने परिवार की गोपनीय बातें, मुझसे साझा करने लगी थी; इसी से उसने, बड़की उर्फ़ रीनू के बारे में, और भी, बहुत कुछ बताया था...यह कि वह बहुत खिलंदड़ी थी; अपने को किसी भाँति, लड़कों से कम नहीं आंकती थी. दादी उसको समझातीं कि वह लड़की की तरह, शील- संकोच, ओढ़े रहे; यह भी कि जींस- पैंट और टी. शर्ट लड़कियों के लिए नहीं बने थे...लेकिन...!" "लेकिन...?!" सुनीति की बेचैनी, चरम पर थी. पत्नी की आकुलता ने, पति को उकसा दिया था. वे जल्द से जल्द, दिल को, हल्का कर देना चाहते थे.

इसी से, कहते चले गये, "उसका मेलजोल लड़कों से था. उनके साथ उठना- बैठना...पढाई और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना और यदा- कदा टिफिन शेयर करना...उसकी सहेलियां भी थीं किन्तु वह उनकी सोच को, संकुचित पाती... एक दिन, वह स्कूल से नहीं लौटी. परिवार वाले हैरान थे और पुलिस में रिपोर्ट, लिखाने ही वाले थे कि वह बदहवास सी, घर पंहुची...उसकी कमीज की बांह फटी थी, सर से खून निकल रहा था...और घुटने छिले हुए...!" एक अल्प- विराम के बाद, सोमेश पुनः बोलने लगे, "दादी ने अनहोनी के निशान, देख लिए थे और वे उसे रह- रहकर कोसने लगीं... यह कि, माँ- बाप से मिली छूट का नतीजा, रीनू का सर्वनाश बनकर, सामने आया था; यह भी कि लड़कों से दोस्ती, कभी फलती नहीं." 

"माता- पिता को आशंका थी कि किसी ने, उनकी भोली बेटी के, विश्वास को छला था. वह अपने साथियों, अध्यापकों और स्कूल के स्टाफ पर पूरा भरोसा करती थी. पहले से ही, दादी की शिकायत रही कि वह, कक्षा के बाद भी, एकांत में; किसी साथी या शिक्षक के साथ, पाठ्यक्रम के सवाल सुलझाती रहती. इस बात का संकेत उन्हें, उसकी बातों से, कई बार मिल चुका था...उन्होंने चेतावनी भी दी...किन्तु...!

पत्नी की आँखों में झांकते हुए, चौधरी जी, पुनः बोलने लगे, "क्या पता स्कूल में, या फिर रास्ते में... कुछ ऐसा- वैसा घटा हो. रीनू की सहेलियों से पूछा तो पता चला, कक्षा के बाद, वह उनके संग नहीं आयी. उन्होंने भी सोचा कि वह अकेले ही, घर चली गयी होगी. उसकी साइकिल भी नदारद थी. परोक्ष रूप से पूछताछ के बाद, नंदन वर्मा शांत पड़ गये. मामले को ज्यादा खोदते तो बेटी की बदनामी होती. इधर दादी के आरोपों और परिस्थितियों की क्रूरता के बीच, रीनू गुम होती चली गई. ग्लानि इतनी रही कि उसका बोलना- चालना, अध्ययन और खेलकूद- सब पीछे छूटता गया और वह इंसान से, एक बेजान मूरत बन गई." 

"उसकी मनोचिकित्सा..??" पूछते हुए श्रीमती चौधरी, हंकलाने सी लगीं. चौधरी जी ने खुद को संभाला और उत्तर दिया, "रीनू का परिवार, साधारण आय- वर्ग में आता था. उन लोगों को मानसिक - चिकित्सा और मंहगे आधुनिक इलाज की, जानकारी न थी; ना ही वे, रोगिणी के, आत्मविश्लेष्ण का महत्व समझते थे. सरकारी- अस्पताल के मनोरोग- विभाग में, डॉक्टर संग; उन्होंने बेटी की, चार- पाँच बैठकें कराईं... किन्तु रीनू, अपनी मानसिक- शिथिलता से उबर नहीं सकी. दादी के ताने, उसके अपराध- बोध को, और भी गहरा रहे थे. मन का चक्रव्यूह, महाभारत के चक्रव्यूह से भी अधिक जटिल होता है. बरसों बाद, किसी शुभचिंतक मनोविज्ञानी ने, दादी को इस बात के लिए, कटघरे में खड़ा किया; किन्तु तब तक तीर, कमान से निकल चुका था. बड़की की हालत, बेकाबू हो चुकी थी..

बडकी के परिवार ने तो पहले ही, इस मर्ज को लाइलाज मान लिया...बेटी का हश्र, कुछ भगवान पर और कुछ समय पर, छोड़ दिया था...कहते भी हैं- "वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है" और फिर रीनू के इलाज को लेकर, लोग तरह- तरह की बातें बना रहे थे...सो अलग! इधर बड़की, अपने नाम से ही नफरत करने लगी. इस कारण घरवालों ने, उसे रीनू कहकर, बुलाना बंद कर दिया." इतना बताकर, चौधरी जी शांत हो गये. " श्रुति का क्या हुआ सोमेश?" सुनीति पूछे बिना रह नहीं पाईं. "सौत रह चुकी स्त्री के लिए, इतनी सोच...! " सोमेश ने विचार किया और कहानी का छूटा हुआ सिरा, फिर से पकड़ लिया, "हाँ तो मैं बता चुका था कि कानपुर जाते समय, मेरा मन उत्साह से भरा था. मैंने श्रुति और उसके माता- पिता को बोला कि अपने प्रिय भैया, आर. के. चौधरी, अधिवक्ता को साथ लेकर ही लौटूंगा.

 रितेश भाई के बारे में, खोलकर कुछ नहीं कहा. सोचा था कि वे अपने भव्य व्यक्तित्व का, स्वतः परिचय देंगे... मेरे भावी ससुरालियों के लिए, वह एक सुखद आश्चर्य होगा...कि उसका अलग ही प्रभाव पड़ेगा!" पत्नी अपने पति के मुख पर, चढ़ते- उतरते रंगों को देख रही थी. पति इससे बेखबर, अतीत की धारा में, बहते रहे, "शीतल भाभी ने श्रुति को लेकर, मेरी खूब खिंचाई की. वहां मेरे चचेरे भाई सौमित्र भी मौजूद थे. जैसे ही भाभी, खाना पकाने गईं; सौमित्र भैया, रितेश भाई की टांग खींचने लगे. उन्होंने खुलासा किया कि रितेश भाई भी, प्रेम के, पक्के खिलाड़ी रह चुके थे...कि वे बचपन से ही रसिक स्वभाव के थे... उनकी एक नहीं, बल्कि कई सारी "चाइल्डहुड स्वीटहार्ट्स" थीं! मिसाल के तौर पर, उन्होंने अपने मोबाइल पर, रितेश भाई की, कई तस्वीरें दिखाईं.

वे अधिकतर, स्कूल और कॉलेज के ग्रुप- फोटोग्राफ थे. एक में रितेश चौधरी की डिबेट- पार्टनर, तो दूसरी में उनकी क्विज- पार्टनर...एक तीसरी फोटो में, वह हेडबॉय के रूप में सुशोभित थे और बगल में, उनकी दोस्त, हेडगर्ल के तौर पर, आधिकारिक "पोज़" दे रही थी. लम्बे अरसे तक सौमित्र, भैया के हमजमात रहे...इसलिए उनकी रग- रग से वाकिफ थे...अचानक भाभी के आने से, महफिल में, खलबली मच गयी. आनन- फानन में, मोबाइल छिपा दिया गया. दोनों बड़े भाइयों ने, एक- दूसरे को आँख मारी. हास्य का गुंजार कहीं ना था, तो भी वातास में, उसकी मूक स्वरलहरी, ध्वनित हो रही थी. जाने क्यों, मैं उस शरारत में, शामिल नहीं हो पाया; एक भारीपन सा महसूस हुआ...शायद अपने प्यार के, अनिश्चित भविष्य को लेकर...!" 

कथा का इंद्रजाल, सुनीति को, अपने लपेटे में ले चुका था. सोमेश भी, विगत की यात्रा में, आगे बढ़ चले, "भाई मेरी प्रेमकहानी में, सहयोग देने को, राजी हो गये. मैंने उन्हें बतला दिया कि बड़की से सावधान रहना होगा. वह कभी भी हमला कर सकती है. इस पर उन्होंने मुझे, परेशान न होने को कहा. मैं स्वयम चाहता था कि भाई उस पगली को ना देखें. स्त्रीसुलभ लज्जा छोड़, वह पैर खोलकर  बैठती...सलवार का ऊपरी भाग, बहुधा, उघड़ा ही रहता. मालिनी आंटी, उसके कुरते को खींचतीं...फिर...कमर और घुटने के बीच फैलाकर, उस "खुलेपन" को ढांप देतीं... दुपट्टा ठीक कर, बेटी की गरिमा बनाये रखने का, जतन करतीं. यह जरूर था कि इस "हिमाकत" के लिए, उससे अक्सर मार खा जातीं! 

खैर...हम श्रुति की ड्योढ़ी तक पंहुच गये. भाई "हीरो वाले" अंदाज़ में, अपना परिचय दे ही रहे थे कि काली मैया जैसे बाल बिखेरे, बड़की प्रकट हुई. उसने आव देखा न ताव, भाई का कॉलर पकड लिया..और...और वह चिल्लाई, "रितेश...रितेश चौधरी ही हो ना तुम!".उसकी आँखों से अंगारे बरस रहे थे. उसका वाक्य बिलकुल स्पष्ट था...ना कहीं शब्द अटके और ना ही स्वर बाधित हुआ...मुझे २४० वोल्ट का झटका लगा था...स्मृति में, भाई के स्कूल वाली, हेडगर्ल कौंध गयी- रिनी वर्मा...रिनी वर्मा और रीनू- अद्भुत साम्य...मुझे तस्वीर देखते ही लगा था...!" सुनीति, विस्फारित नेत्रों से, सोमेश को देख रही थी.

बोलते समय, वे हांफ से रहे थे; मानों आवाज़, उनके मुंह से नहीं...पृथ्वी के, दूसरे किसी छोर से, आ रही हो, " भाई औचक ही बोल पड़े, "रिनी!!"... और अपना कॉलर छुडाकर, तीर की तरह, वहां से निकल गये...रीनू सोफे में धंस गई और दहाड़ें मारकर रोने लगी. रुलाई के स्वर, बरसों बाद, उसके अंतस से फूटे थे. उसने सदा की तरह, दोनों पैरों को खोल नहीं रखा था, बल्कि आपस में सटा लिया था...जिस दुपट्टे को वह बारम्बार फेंक देती थी, उसे कसकर देह से चिपका लिया था...वह काँप रही थी। चौधरी जी, जो कहना था... कह चुके थे. पत्नी का सांत्वना भरा हाथ, उनके कंधे पर था. डिलीवरी बॉय, खाना ले आया और कॉल- बेल, बजा- बजाकर थक गया; किन्तु पति- पत्नी में से, किसी ने भी, वह घंटी नहीं सुनी...वे दूसरी ही दुनियाँ में थे!



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