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Vijay Erry

Thriller Others

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Vijay Erry

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दूसरा चेहरा

दूसरा चेहरा

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 दूसरा चेहरा 

लेखक: विजय शर्मा एरी

शहर की चकाचौंध भरी शामें हमेशा धोखा देती हैं। नेहरू प्लेस की ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच जब सूरज डूबता है, तो लगता है जैसे सोने की परत चढ़ी हुई दीवारें भी अचानक अपना असली रंग दिखाने लगती हैं।

अंकित मेहरा इसी शहर का सबसे चमकदार चेहरा था। तीस साल की उम्र में उसके पास तीन स्टार्टअप, दो लग्ज़री गाड़ियाँ, एक पेंटहाउस और अनगिनत फॉलोअर्स थे। इंस्टाग्राम पर उसकी हर तस्वीर लाखों लाइक्स बटोरती। लोग उसे “यंग आइकॉन” कहते। कॉलेज की लड़कियाँ उससे ऑटोग्राफ माँगतीं, निवेशक उससे हाथ मिलाने को तरसते।

पर किसी को नहीं पता था कि ये चेहरा नकली है। बिल्कुल नकली।

असल में अंकित मेहरा मर चुका था।

तीन साल पहले।

वो रात अभी भी रिया को सताती है।

दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस-वे पर तेज़ रफ्तार बीएमडब्ल्यू। बारिश। फिसलन। एक ट्रक ने अचानक ब्रेक लगाया। अंकित ने स्टीयरिंग घुमाई, गाड़ी डिवाइडर से टकराई और पलट गई। सीट बेल्ट ने उसकी जान नहीं बचा सकी। गर्दन टूट गई। अस्पताल पहुँचते-पहुँचते उसकी साँसें थम चुकी थीं।

रिया उसकी गर्लफ्रेंड थी। नहीं, सच कहें तो वो उसकी होने वाली पत्नी थी। दोनों ने शादी की तारीख भी तय कर ली थी। अंकित की मौत के बाद रिया टूट गई थी। महीनों तक कमरे में बंद रही। खाना छोड़ा। नींद की गोलियाँ खाकर सोने की कोशिश करती।

फिर एक दिन डॉक्टर विक्रम सक्सेना उसके घर आए।

विक्रम दिल्ली के सबसे बड़े कॉस्मेटिक सर्जन थे। उनका क्लीनिक साउथ एक्स में था, जहाँ बॉलीवुड के सितारे भी लाइन लगाते थे। विक्रम और अंकित अच्छे दोस्त थे। कॉलेज के दिनों से।

विक्रम ने रिया के सामने एक फाइल रखी।

“रिया, अंकित ने मरने से छह महीने पहले मेरे पास आकर एक अजीब सा काम करवाया था। उसने अपना पूरा चेहरा, आवाज़, यहाँ तक कि फिंगरप्रिंट तक का सिलिकॉन मास्क बनवाया था। बिल्कुल हू-ब-हू। उसने कहा था, ‘विक्रम, कभी ज़रूरत पड़े तो काम आएगा।’ मैंने मज़ाक समझा था।”

रिया ने फाइल खोली। उसमें अंकित का चेहरा था। जीवित। हँसता हुआ। सिलिकॉन का बना हुआ।

विक्रम ने धीरे से कहा, “अगर तुम चाहो… तो अंकित वापस आ सकता है।”

पहले रिया को लगा ये पागलपन है। लेकिन फिर उसने सोचा, दुनिया को क्या पता अंकित मर चुका है? सोशल मीडिया पर उसकी आखिरी पोस्ट को तीन साल बीत चुके हैं। लोग तो बस अफवाहें उड़ा रहे थे कि वो विदेश में सेटल हो गया है।

रिया ने हामी भर दी।

अगले छह महीने भयानक थे।

विक्रम ने रिया को सिखाया। कैसे चलना है, कैसे बोलना है, कैसे हँसना है। अंकित की हर छोटी आदत। वो बायें हाथ से चाय की चम्मच घुमाता था। दायें गाल पर हल्का सा डिम्पल आता था जब वो शरमाता था। रिया ने सब कुछ कॉपी किया।

फिर ऑपरेशन हुआ। चेहरा बदला। आवाज़ बदली। फिंगरप्रिंट तक। सिलिकॉन मास्क इतना परफेक्ट था कि माँ भी धोखा खा जाए।

और एक दिन “अंकित मेहरा” वापस लौटा।

इंस्टाग्राम पर पोस्ट डाली, “तीन साल का ब्रेक खत्म। अब फिर शुरूआत।”

लाखों लाइक्स। हजारों कमेंट। “वेलकम बैक ब्रो!” “कहाँ गायब थे यार?”

कोई नहीं जान पाया।

शुरू-शुरू में सब मजेदार लगा। रिया को लगा वो अंकित को वापस पा रही है। वो उसके कपड़े पहनती, उसकी गाड़ी ड्राइव करती, उसके दोस्तों से मिलती। अंकित का बिज़नेस फिर से खड़ा हो गया। निवेशक लाइन लगाने लगे।

लेकिन रातें भयानक थीं।

जब वो आईने के सामने खड़ी होती और चेहरा उतारती, तो एक अजनबी औरत उसे घूरता। उसकी अपनी सूरत भूल चुकी थी वो।

धीरे-धीरे अंकित का चेहरा उसका हो गया।

लोग कहते, “अंकित, तुम पहले से भी ज़्यादा हैंडसम लग रहे हो।”

रिया मुस्कुराती और कहती, “थैंक्स यार।”

फिर आरुषी आई।

आरुषी अंकित की पुरानी दोस्त थी। कॉलेज की। वो एक पत्रकार थी। तेज़ तर्रार। शक करने में माहिर।

एक दिन आरुषी ने अंकित को कॉफ़ी पर बुलाया।

“अंकित, तुम बदल गए हो।”

“बदलना तो बनता है ना यार, तीन साल विदेश में रहा।”

“नहीं। तुम्हारी हँसी बदल गई है। पहले तुम हँसते वक्त नाक सिकोड़ते थे। अब नहीं करते।”

रिया का दिल बैठ गया।

आरुषी ने छानबीन शुरू की। पुरानी तस्वीरें निकालीं। वीडियो देखे। फिर एक दिन वो रिया के पेंटहाउस पर पहुँची।

“रिया कहाँ है?” उसने सीधा सवाल किया।

“कौन रिया?”

“जिसने मेरे दोस्त को मार डाला और उसका चेहरा चुरा लिया।”

रिया डर गई। उस रात उसने विक्रम को फोन किया।

“आरुषी को खत्म करना होगा।”

विक्रम हँसा, “पागल हो गई हो? मैं डॉक्टर हूँ, कातिल नहीं।”

“तो मैं कर दूँगी।”

अगले दिन आरुषी गायब हो गई।

पुलिस ने केस दर्ज किया। शक अंकित पर गया। मीडिया में खबरें छपीं, “यंग आइकॉन का काला सच?”

अंकित ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। रोया। कहा, “आरुषी मेरी अच्छी दोस्त थी। मुझे नहीं पता वो कहाँ है।”

लोगों ने सहानुभूति दिखाई। केस ठंडा पड़ गया।

लेकिन रिया अब चैन से सो नहीं पाती थी।

रात को उसे लगता, कोई उसे देख रहा है। आईने में अंकित का चेहरा मुस्कुराता और कहता, “तू मुझे मार नहीं सकती। मैं तुझ में ज़िंदा हूँ।”

एक रात उसने चेहरा उतारने की कोशिश की। सिलिकॉन चिपक गया था। खींचा तो खून निकलने लगा। विक्रम ने मना किया था, “पाँच साल तक नहीं उतार सकती। स्किन के साथ जुड़ जाएगा।”

रिया चीखी। रोई। फिर खुद को गोली मार ली।

सुबह नौकरानी ने लाश देखी। चेहरा आधा उतरा हुआ था। नीचे रिया की असली सूरत दिख रही थी। खून से सना हुआ।

पुलिस आई। विक्रम को गिरफ्तार किया गया। उसने सब कबूल कर लिया।

मीडिया में हेडलाइन बनी, “नकली चेहरा: प्यार की भयानक कीमत”

अंकित मेहरा हमेशा के लिए मर गया। इस बार सच में।

और दिल्ली की चकाचौंध भरी शामें फिर वही हो गईं।

सोने की परत चढ़ी दीवारें अपना असली रंग दिखाने लगीं।

क्योंकि इस शहर में हर चेहरा नकली होता है।

कुछ लोग बस इसे उतार नहीं पाते।

(शब्द संख्या: लगभग १५२०)


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