दुश्मनी
दुश्मनी
एक मित्र हैं बहुत पुराने शायद उस ज़माने के जब जवानी अपने शुरुआती दौर में थी। सुख दुख का एक लंबा समय हमने एक साथ गुजरने के बाद एक दिन जुदा हो गए। ऐसा नहीं है की हमेशा के लिए जुदा हो गए, बीच बीच में मुलाकात होती रही और एक दूसरे की खबर भी मिलती ही रहती है। परंतु लगातार एक साथ रहना और कभी कभार मिलना दोनों अलग अलग बातें हैं।
वैसे तो मित्र एकदम शांत स्वभाव के है शायद बर्फ भी उनके सामने गरम प्रतीत हो। कभी गुस्सा नहीं करते , मारपीट की क्या कहें कभी गाली गलौच भी नहीं करते। परंतु इरादे के बहुत पक्के है। एक बार जुबान से जो कह दिया उसे निभाना ही है।
उनके स्वभाव को देखते हुए यह मानना असंभव है की उनकी किसी से दुश्मनी हो सकती है। मेरी दुश्मनी किसी के साथ हो यह तो सामान्य बात है परन्तु मित्र की दुश्मनी किसी के साथ इस बात को हज़म करना असम्भव सा है। उनकी दुश्मनी एक व्यक्ति से हो गई। शायद इन हालात के लिए ही कहा जाता है की होनी बलवान है।
दुश्मनी उस वक्त शुरू हुई जब हमारे अलग होने का समय निकट था। हमें भी परवाह नहीं थी क्योंकि जानते थे की मित्र दुश्मनी निभा नहीं पाएंगे। यह उनके स्वभाव में ही नहीं है लिहाज़ा चंद रोज में ही सामान्य जिंदगी शुरू कर देंगे।
दुश्मनी भुलाई नहीं जा सकी और परवान चढ़ती चली गई। शायद इसका कारण यह रहा की मित्र ने जवाब नहीं दिया और सामने वाले व्यक्ति को हिम्मत बढ़ती चली गई और वो आगे ही आगे बढ़ता चला गया। यहां तक कि उसने मित्र के माता पिता और भाई बहनों तक को दुश्मनी के मैदान में घसीट लिया। मुझे खबर लगी तब मुझे यकीन था की अब मित्र को मेरे सपोर्ट की जरूरत आ पड़ी है लिहाजा मैं अपने काम धंधे दूसरों के हवाले करके मित्र के पास जा पहुंचा। जैसा मित्र का स्वभाव है उनका व्यवहार उसी के अनुरूप दिखाई दिया एकदम शांत परंतु अपने निश्चय पर अटल। मैंने समझाने की कोशिश की ताकि बीच बचाव करके दोनों की दुश्मनी का कोई शांतिपूर्ण हल निकाला जा सके। परंतु मित्र राजी नहीं हुए उनका कहना था की अब तो मैदान में उतर ही चुके है आखिरी सांस तक दुश्मनी निभाएंगे।
कई महीने प्रयास करने के बाद मैं लौट आया अपने काम धंधे पर। कई वर्ष गुजर गए मित्र की खबर मिलती रही ऊपरी तौर पर सब वैसा ही दिखता था परंतु अंदर ही अंदर मित्र का रुझान अध्यात्म की तरफ बढ़ता जा रहा है। सबको दुश्मनी में खींची हुए तलवारें दिखती थी परंतु मेरे जैसे कुछ विशेष मित्रों को वो दिखाई देता था जो मित्र के अंदर था। मित्र के अंतर में अब भी दुश्मनी थी परंतु उसका कोई महत्व नहीं रह गया था। उनका एक दुश्मन मौजूद था परंतु वो दुश्मन महत्वहीन था। एक तरफ दुश्मन के दिमाग में मित्र को उसके पूरे वंश के साथ मिटा देने की जिद्द थी वही दूसरी तरफ मित्र के लिए ना दुश्मन का कोई महत्व था और ना दुश्मनी का।
ऊपर से मित्र बेशक एक सामान्य कामकाजी व्यक्ति दिखते परंतु अंतर में पूरी तरह अध्यात्म में डूबे व्यक्ति बन चुके थे। दुश्मन मित्र के सामने एक से बढ़कर एक चुनौती पेश करता रहा और मित्र हर चुनौतियों से हंस कर पार निकलते रहे। जो चुनौतियां एक वक्त में मित्र के पसीने छुड़वा रही थी आज वही मित्र को हंसने के अवसर प्रदान करती। पता नहीं मित्र हर चुनौती पर क्यों हंसते थे शायद इसीलिए की अब दुश्मन द्वारा दी गई चुनौती उनके लिए मायने नहीं रखती थी या शायद अब वो सब चुनौतियों उनको मामूली लगती हो।
इस सबके बावजूद मरते दम तक नहीं झुकने की जिद्द अपनी जगह कायम रही।
एक दिन खबर मिली की दुश्मन के जंवाई की मृत्यु एक्सीडेंट में हो गई। दिल को सुकून मिला की चलो आखिर दुश्मन जो लगातार नए नए तरीके से हमले कर रहा था अब कुछ शांत होगा। खबर सुकून देने लायक थी शायद इसीलिए मित्र को तुरंत फोन कर डाला। मित्र को भी खबर लग चुकी थी और उनको सुकून पहुंचा या नहीं यह तो पता नहीं परंतु मित्र से बातचीत करके पता चला की मरने वाला पीछे छोड़ गया बूढ़े मां बाप, एक छोटा बच्चा और बस और कुछ नहीं। कमाई करने वाला एकमात्र जरिया चला गया और मित्र को अब बच्चे का भविष्य की चिंता थी। दुश्मन के दोहते की चिंता। इच्छा हुई कि अपना सिर पीट लिया जाए।
खेर कुछ वक्त और गुजरा और हर गुजरे साल के साथ दुश्मन कमजोर पड़ता चला गया। अगले पांच साल में दुश्मन का दूसरा जंवाई, दुश्मन का लड़का, दुष्मक का पोता, दुश्मन का एक दोहता और दो अन्य व्यक्ति भी मृत्यु द्वारा शिकार कर लिए गए।
दुश्मन पूरी तरह से खत्म हो चुका था अगर कुछ बचा तो एक बूढ़ी पत्नी, 2 विधवा लड़कियां, 1 दोहता और खुद दुश्मन। संभव है की दोहता बड़ा हो जाए या वैसे मुझे जो लगता है वह यह की अगले एक दो सालों में वो भी खत्म हो जाएगा। कुछ भी कहना मुश्किल है।
कभी कभी जो बात मुझे अचरज में डालती है वो यह की ये कैसी दुश्मनी थी जिसने मित्र को सन्यासी बना दिया और दुश्मन को पूरी तरह खत्म कर दिया।
मित्र ने कोई हथियार नहीं उठाए परंतु फिर भी दुश्मन पूरी तरह खत्म हो गया। दुश्मन मित्र के खिलाफ हर हथियार का इस्तेमाल कर के देख चूका परन्तु कुछ खास बिगाड़ नहीं पाया। बल्कि मित्र पहले से भी अधिक शांत दिखाई देते है। क्या यह दुश्मन को उसके कर्मों का फल मिला ?
कभी कभी मेरे मन में यह ख्याल भी आता है की शायद मित्र ने अपने चेहरे पर मुखौटा लगा लिया और अंदर ही अंदर दुश्मन को दुश्मन को पूरी तरह खत्म कर दिया। कुछ भी कहना मुश्किल है।
कहना मुश्किल है की यदि यह दुश्मनी नहीं होती तब भी क्या दुश्मन इसी तरह समाप्त हो जाता ?
दुश्मन के पास अब हमला करने के ना तो साधन बचे है और ना ही आदमी और शायद हिम्मत भी नहीं। दूसरी तरफ मित्र के लिए दुश्मन और दुश्मनी दोनों महत्वहीन हो गई।
सब तरफ शांति दिखाई देती है बस दुश्मनी अभी भी कायम है और जो आखिरी साँस तक रहने वाली है।