दुखी मन मेरे
दुखी मन मेरे
जब से समाचार आया है कि दक्षिणी लेबनान में एक भवन के 60-70 फुट नीचे बंकर में छुपे हुए हिजबुल्ला के चीफ मुल्ला नसरुल्ला को इजरायल ने अमरीका की भूमि और संयुक्त राष्ट्र संघ के भवन से बटन दबाकर बम से उड़ा दिया है तब से मेरा दिल बहुत दुख रहा है । आंखें सावन भादों की तरह लगातार बरस रही हैं । मानसून भले ही रुक गया है लेकिन आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे हैं । बेचारे निहायत ही मासूम मुल्ला नसरुल्ला के ग़म में दिल ने धड़कना बंद कर दिया है । गला दुख से रुंध गया है । होंठों से बोल नहीं फूट रहे हैं । आंखें ही नहीं बरस रही हैं बल्कि नाक भी बहने लगी है । कोई माने या ना माने लेकिन सच बात तो यह है कि मुल्ला नसरुल्ला के मारे जाने का मुझे इतना दुख हुआ है कि मैं उस दुख को शब्दों में बयां नहीं कर सकता हूं । मुल्ला साहब के ग़म में मैंने रोटी पानी क्या सब कुछ छोड़ दिया है । बस, दुनिया छोड़ना बाकी रह गया है ।
मुल्ला नसरुल्ला के बारे में ये मत पूछना कि वह मेरा क्या लगता था ? माना कि वह हम भारतीयों का अब्बू नहीं था और न ही हमारा जीजा था । लेकिन हमारा रिश्ता तो मानवता का था । हम लोग तो "वसुधैव कुटुंबकम्कम" की संस्कृति में विश्वास करने वाले लोग हैं । हम भगवान महावीर , गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी के देश के लोग हैं जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं । और मुल्ला नसरुल्ला तो महात्मा गांधी से भी बड़ा अहिंसावादी था । वह इतना अहिंसक था कि जमीन पर भी नहीं रहता था । जमीन पर चलने के कारण कुछ कीटाणु , जीव वगैरह नहीं मर जायें , इस पाप से बचने के लिए ही वह जमीन से 60-70 फुट नीचे रहता था । था न सबसे बड़ा अहिंसावादी । "न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी" की तरह "न रहेंगे जमीन पर तो कैसे मरेंगे जानवर" रुपी एक नई कहावत उसी ने ईजाद की थी ।
हम भारतीयों का उससे केवल एक ही रिश्ता था । वही रिश्ता जो ओसामा बिन लादेन से था , वही रिश्ता जो हाफिज सईद से है और वही रिश्ता जो सद्दाम हुसैन से था । अब तो आप समझ ही गए होंगे ! नहीं समझे ? तो इसके लिए आपको सन् 2020 में जाना होगा । अब कुछ याद आया ? सन 2019- 2020 में दिल्ली में CAA के प्रोटेस्ट में यूं तो बहुत सारे नारे लगे थे । लेकिन उन नारों में एक नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ था जिसे आप सबने अवश्य सुना होगा "तेरा मेरा रिश्ता क्या ? या इलाही इलहिल्लाह" ।।
अब समझ में आ गया कि अपना रिश्ता मुल्ला जी के साथ कैसा था ? भारत में दूसरे लोगों को बहुत अधिक सम्मान देने का प्रचलन है । ओसामा बिन लादेन को यहां कुछ जड़ खरीद गुलाम "ओसामा जी" और विश्व शांति दूत जाकिर नाइक को "जाकिर साहब" कहकर बुलाते हैं । इतना ही नहीं शांति के सबसे बड़े देवता हाफिज सईद और दाऊद इब्राहिम को भी "हाफिज साहब" और "दाऊद साहब" कहकर बुलाया जाता है । किसी का मान सम्मान करना तो कोई हम भारतीयों से सीखे । और तो और गिलानी , यासीन मलिक जैसे लोगों के नाम भी हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अदब से लिये जाते थे और वे इन लोगों से गले मिलकर स्वयं को बहुत गौरवान्वित महसूस करते थे ।
लेकिन आजकल क्या है कि गद्दी पर एक तानाशाह बैठा हुआ है । हमारी गांधीवादी पार्टी ने तो पाकिस्तान, चीन , अमरीका सबसे मदद मांग ली कि इस तानाशाह को गद्दी से हटाकर महान गांधीवादियों को गद्दी पर बैठा दिया जाये लेकिन यहां की जनता बड़ी कृतघ्न है । वह मान ही नहीं रही है । लेकिन कभी न कभी तो गांधीवादियों का दिन भी आएगा । जिस दिन "युवराज" गद्दी पर बैठेगा उसी दिन 1984 की तरह पूरे देश में सामूहिक नरसंहार होगा । तभी तो लोकतंत्र और संविधान सुरक्षित होगा ।
ऐसा नहीं है कि मुझे मुल्ला नसरुल्ला की मौत पर ही दुख हुआ हो । मुझे तो ओसामा जैसे शांतिदूतों की मौत पर भी बहुत दुख हुआ था । उस दिन भी मैं जार जार रोया था और आज भी रो रहा हूं । मुझे तो उस दिन भी बहुत ज्यादा दुख हुआ था जब लेबनान में 5000 पेजर बम एक साथ फटे थे । जिसमें हिजबुल्ला के भाईजान बुरी तरह ज़ख़्मी हुए थे । किसी का पिछवाड़ा उड़ गया था तो किसी की आंखें चली गई थीं । जिसने अपनी जिस जेब में वह पेजर रखा था , उसी जेब में विस्फोट हो गया था । जिन्होंने पैंट की आगे की जेब में वह पेजर रखा था तो उनका पूरा का पूरा "अगवाड़ा" ही जड़ से साफ हो गया बताया । लो कर लो बात ! कोई ऐसा भी करता है क्या ? अरे , साफ ही करना था तो हाथ साफ कर लेते , मुंह साफ कर लेते लेकिन गोटियां , डंडा सब कुछ उड़ा दिया , ये तो बड़ी नाइंसाफी है ।
बेचारे हिजबुल्ला वाले भाईजान जिनका "अगवाड़ा" साफ हो गया है , वे अब क्या करेंगे ? वे तो 72 हूरों की कामना से "दीन" की खिदमत शांति पूर्ण तरीके से AK 47 हाथ में लेकर और बम कमर में बांध कर कर रहे थे । धरती को चपटी बनाने के लिए दिन रात मेहनत करके बच्चों को पैरों से कुचल रहे थे । महिलाओं की नग्न परेड करवा रहे थे और उनसे सामूहिक दुष्कर्म कर रहे थे तथा उन्हें अपने पैरों से कुचल रहे थे । मानवता का अंत करने के लिए ही तो वे "यमदूत" बने थे । लेकिन अब भाई लोग कह रहे हैं कि जिनके पास आगे कोई"सामान" नहीं होता है उन्हें 72 हूरें भी घास नहीं डालती हैं । ऐसे लड़ाकों के लिए तो यह बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई थी । अब वे दोनों तरफ से गये । न तो 72 हूरें मिलीं और न ही जन्नत । लाहौल विला कुव्वत । ऐसी जिंदगी का क्या करना है अब !
"ऐसे भी कोई करता है क्या ? ये तो मौत से भी अधिक बुरी स्थिति है । यदि मौत हो जाती तो कम से कम 72 हूरें तो मिल जातीं । फिर उनके साथ रंगरेलियां मनाते । मगर इस कम्बख़्त नेतान्याहू ने सारा गुड़ गोबर कर दिया" । एक भाईजान ने खैराती पत्रकार के आगे दुखड़ा रोया तो खैराती पत्रकार बिलखने लगा ।
"मुझे तो इसमें मोदी की साज़िश नजर आती है" । उस खैराती पत्रकार ने कहा । मोदी का नाम कुछ लोगों के लिए संजीवनी बूटी का काम करता है । यह नाम मरते हुए लोगों को जिला देता है । वह भाईजान भी "मोदी का मुरीद" था इसलिए उसने मोदी का नाम सुनकर वहीं पर स्यापा शुरू कर दिया
"मरजा मोदी मरजा ! जाकर कहीं पे मरजा" । ऐसा स्यापा वह तथाकथित किसान आन्दोलन में भी कर चुका था ।
भाईजान के साथ साथ रबिश कुमार जैसा पत्तलकार "खैराती लाल" भी स्यापा करने लगा । ये बेचारे खैराती पत्तलकार सन 2014 से ही स्यापा कर रहे हैं पर ईश्वर इनकी एक नहीं सुन रहा है । लगता है कि इनकी दुआओं में दम नहीं है ।
भाईजान मरजा मोदी मर जा नारा लगा रहा था लेकिन उसको एक बात समझ में नहीं आई कि हिजबुल्ला के सरगना को मारने में मोदी कहां से आ गया ? वैसे तो अधिकतर भाईजान अनपढ़ या अनपढ़ टाइप के ही होते हैं । जो पढ़े लिखे इंजीनियर, डॉक्टर , सी ए वगैरह भी होते हैं तो उनकी सोच भी बहुत ही शांतिप्रिय "बम, बंदूक" वाली ही होती है इसलिए ये भाईजान अनपढ और पढे लिखे सब एक जैसे हैं । अब इनके भेजे में यह बात कैसे घुसे कि एक आदमी दिल्ली से लेबनान में बैठे हुए हिजबुल्ला चीफ को कैसे मार सकता है ? उसने संशय का निवारण करने के लिए खैराती लाल से पूछा ही लिया
"खैराती लाल जी , एक बात तो बताइए कि लेबनान में बंकर को उड़ाने में मोदी का क्या योगदान है " ?
भाईजान के भोलेपन को देखकर खैराती लाल बोला "हे भाईजान , आप तो बहुत ही भोले हैं । आप हिटलर मोदी को नहीं जानते हैं । वह यहां बैठे बैठे ही सब कुछ कर सकता है । अच्छा चलो, पहले एक बात बताओ । ओलंपिक में "म्हारी पहलवान छोरी" को गोल्ड मेडल नहीं मिला । क्यों ? क्योंकि मोदी नहीं चाहता था इसलिए । मोदी ने ही ओलंपिक कमेटी को फोन करके उसको डिसक्वालिफाई करवाया था । जब मोदी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता ओलंपिक में अपने प्रभाव से अपनी विरोधी पहलवान को डिसक्वालिफाई करा सकता है तो वह क्या नहीं कर सकता है ? वह रूस को कहकर रूस यूक्रेन युद्ध रुकवा सकता है । वह इजरायल से कहकर बेचारे भाईजानों को बचा सकता है । लेकिन वह ऐसा नहीं करेगा । क्योंकि वह यही चाहता है । अब तो सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डालनी पड़ेगी जिसमें माननीय सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया जाएगा कि वे संयुक्त राष्ट्र संघ को आदेश दे कि वह यूक्रेन और अरब देशों के भाईजानों के नरसंहार को रोके । बस, अब यही विकल्प शेष रहा है । हालांकि अब सुप्रीम कोर्ट भी वह नहीं रहा जो पहले हमारी सारी मांगें मान लेता था लेकिन हम जायें भी तो कहां जायें" ?
अब भाईजान और खैराती पत्तलकार दोनों मिलकर रोने लगे । उन दोनों को ऐसे बिलखते हुए देखकर मेरा दुख और भी अधिक बढ़ गया । बस, तब से इस मन को समझा रहा हूं कि
दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना
जहां रहे मोदी , वहां नहीं रहना।