minni mishra

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दर्पण झूठ न बोले

दर्पण झूठ न बोले

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“कहाँ चले महाशय, इतना सज -संवरकर ?”


“आज भाषण देना है, संवरना तो पड़ेगा ही न! तुम्हें पता है, आजकल लोग सुनने के लिए कम, देखने और दिखाने के लिए अधिक आते हैं ?”   आईने के सामने फेसवाश लगाते हुए साहेब ने दो टूक जवाब दिया। 


“ साहेब, भाषण पढ़कर देख लीजिये, वरना स्टेज पर आपको दिक्कत होगी.”


“अरे, चुप हो जा ! प्रोफेसर मैं हूँ,और सिखाता तू है !”


“मैं तुम्हारा दर्पण हूँ, इसलिए तुम्हारी प्रतिष्ठा का ख्याल रखता हूँ। वरना हमेशा की तरह खामोश रहकर ही तुम्हारी दुर्दशा का आस्वादन करता.” फेश्वाश के छीटें से परेशान शीशे ने झल्लाते हुए कहा.


“प्रतिष्ठा..और सफलता.!हा..हा..हा..आजकल पैसों से ही सभी कुछ मेनेज हो जाता है. पैसा दिया, भाषण लिखा मिल गया, हा..हा..” हँसते हुए, प्रोफेसर साहेब कोट पहनकर कॉलेज के लिए निकल पड़े.


“अरे...प्रोफेसर साहेब क्या हुआ, रुक क्यों गये ?  लगता है, आपका भाषण , भीड़ में कहीं खो गया ! देखिये,देखिये , कहीं आसपास ही गिरा होगा !”  


दर्शकदीर्घा से एक आवाज आई.   


 पसीने से तरबतर प्रोफेसर साहेब के कानों में ‘भाषण पढकर देख लीजिए.. वरना स्टेज पर ..' दर्पण की आवाज गर्म लाख़ की तरह कानों में पिघलने लगीं ।


                


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