chandraprabha kumar

Classics

4.3  

chandraprabha kumar

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दण्डकारण्य गमन

दण्डकारण्य गमन

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श्री जनकनन्दिनी सीता का वन में रावण द्वारा हरण होने से पूर्व विराध राक्षस द्वारा हरण हुआ था श्री राम लक्ष्मण के सामने ही, जो बाद के हरण की पूर्वपीठिका सी थी। वाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में इसकी विस्तार से कथा आती है , जो संक्षेप में इस प्रकार है—

 चित्रकूट में भरत जी के लौट जाने पर कुछ समय बिताने के बाद श्रीराम को लगा कि यहॉं का स्थान जनाकीर्ण हो गया है, यहॉं बहुत जनों का आवागमन होने लगा है। उन्हें बहुत से अन्य कारण ज्ञात हुए जिससे उन्होंने वहॉं रहना उचित नहीं समझा। तो उन्होंने अन्यत्र जाने का निर्णय लिया। श्रीरघुनाथ जी सीता और लक्ष्मण के साथ वहॉं से चल दिये। वहॉं से वे अत्रि ऋषि के आश्रम में पहुँचे,वहॉं उनसे सत्कार पाकर वे आगे चले और दुर्गम वन में प्रवेश किया, मानो सूर्यदेव मेघों की घटा के भीतर प्रविष्ट हो गये हों।

     दुर्जय वीर श्रीराम ने दण्डकारण्य नामक महान् वन में प्रवेश किया। वहॉं बहुत से तपस्वी मुनियों के आश्रम देखे। श्रीराम का रूप,सुकुमारता और सुन्दर वेश को वनवासी मुनियों ने आश्चर्य चकित होकर देखा। उनको पर्णशाला में ठहराया और निवेदन किया," हम आपके राज्य में निवास करते हैं, अत: आपको हमारी रक्षा करनी चाहिये। आप नगर में रहें या वन में रहें, हम लोगों के राजा ही हैं। तपस्या ही हमारा धन है। "

    रात्रि में वहॉं विश्राम करके सूर्योदय होने पर ऋषियों से विदा ले श्रीरामचन्द्रजी पुन: वन में ही आगे बढ़ने लगे। वन के मध्यभाग में वहुत से रीछ व बाघ रहा करते थे। किसी जलाशय का दर्शन होना कठिन था। भयंकर जंगली पशुओं से भरे हुए उस दुर्गम वन में उन्होंने पर्वत शिखर के समान ऊँचे एक नर भक्षी राक्षस को देखा, जो भयंकर गर्जना कर रहा था। 

    वह राक्षस विकराल पेट वाला, विकट आकार का,विकृत वेश वाला, बेडौल और देखने में भयंकर था। उसने गीला व्याघ्र चर्म पहन रखा था। वह राक्षस यमराज के समान मुँह बाये खड़ा था। वह ज़ोर ज़ोर से दहाड़ रहा था।श्रीराम लक्ष्मण और सीता को देखते ही वह क्रोध में भरकर भैरव नाद करके पृथ्वी को कम्पित करता हुआ उनकी ओर दौड़ा। वह विदेहनन्दिनी सीता को गोद में ले कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया और राम लक्ष्मण से बोला-

   "तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो और हाथ में धनुष-बाण और तलवार लिये दण्डक वन में प्रविष्ट हो गये हो; जान पड़ता है कि तुम्हारा जीवन क्षीण हो चला है।तुम दोनों तपस्वी जान पड़ते हो ,फिर युवती स्त्री के साथ रहना कैसे संभव हुआ ? तुम दोनों कौन हो ?"

   अपने बारे में वह राक्षस बोला-" मैं विराध नामक राक्षस हूँ, और प्रतिदिन ऋषियों का मॉंस भक्षण करता हुआ हाथ में अस्त्र- शस्त्र लिये इस दुर्गम वन में विचरता रहता हूँ। यह स्त्री बड़ी सुन्दरी है, यह मेरी भार्या बनेगी ओर तुम दोनों का मैं रक्तपान करूँगा। "

यह सुनकर सीता घबरा गईं और थरथर कॉंपने लगीं। सीता को सहसा विराध के चंगुल में फँसी देखकर श्रीराम सूखे मुँह से लक्ष्मण से बोले- " सुख में पली हुई यशस्विनी सीता की यह अवस्था ! आज कैकेयी का अभिप्रेत सिद्ध हो गया। तभी वह कैकेयी अपने पुत्र के लिये केवल राज्य लेकर संतुष्ट नहीं हुई थी। जिस कैकेयी ने सर्वप्रिय मुझे वन भेज दिया, वह मँझली माता कैकेयी इस समय सफलमनोरथ हुई।वैदेही को दूसरा कोई स्पर्श कर ले, इससे बढ़कर दु:ख की बात मेरे लिये दूसरी कोई नहीं है। पिता मृत्यु के समय तथा अपने राज्य के अपहरण से भी उतना कष्ट मुझे नहीं हुआ था,जितना अब हुआ है।"

राम को शोक से ऑंसू बहाते हुए देखकर लक्ष्मण कुपित हो फुफकारते हुए बोले-

 "आप सभी के संरक्षक हैं ।मुझ दास के रहते हुए आप क्यों अनाथ की भॉंति संतप्त हो रहे हैं। मैं अभी अपने बाण से इस राक्षस का वध करता हूँ।"

 तदनन्तर विराध उस वन को गुँजाते हुए बोला-" तुम दोनों कौन हो और कहॉं जाओगे ?"

महातेजस्वी श्रीराम ने उत्तर दिया," हम महाराज इक्ष्वाकु कुल के क्षत्रिय कारणवश इस समय वन में निवास करते हैं। तुम कौन हो, जो दण्डकवन में स्वेच्छा से विचर रहे हो ?"

यह सुनकर विराध ने सत्यपराक्रमी राम से कहा,"मैं जव नामक राक्षस का पुत्र हूँ, मेरा नाम विराध है। मैनें तपस्या करके ब्रह्मा जी से यह वरदान लिया है कि किसी भी शस्त्र से मेरा वध न हो। कोई भी मेरे शरीर को छिन्न भिन्न न कर सके। तुम दोनों इस युवती स्त्री को यहीं छोड़कर तुरन्त भाग जाओ,मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूँगा। यह सुनकर श्रीराम की ऑंखें क्रोध से लाल हो गईं और वे बोले,"तू मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा"।

     यह कहकर भगवान् श्रीराम ने उस राक्षस को बाणों से बींधना आरम्भ किया जो गरुड़ और वायु के समान महावेगशाली थे, वे बाण विराध के शरीर को छेदकर रक्तरंजित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। घायल हो जाने पर उस राक्षस ने विदेहकुमारी सीता को अलग रख दिया और हाथ में शूल लेकर राम और लक्ष्मण पर तत्काल टूट पड़ा। राम लक्ष्मण ने उस पर प्रज्वलित बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी,पर वे बाण राक्षस के अँगड़ाई लेते ही उसके शरीर से निकलकर पृथ्वी पर गिर पड़े। तब दोनों भाइयों ने तलवार से उस पर बलपूर्वक प्रहार किया। 

आघात से घायल होकर निशाचर विराध ने दोनों भाइयों को बालकों के समान उठाकर अपने दोनों कन्धों पर बिठा लिया और भयंकर गर्जना करता हुआ वन की ओर चल दिया। 

 श्रीराम और लक्ष्मण को राक्षस लिये जा रहा है-यह देखकर सीता अपनी दोनों बाँहें उठाकर ज़ोर ज़ोर से रोने चिल्लाने लगीं और राक्षस से बोलीं," तुम मुझे ही ले चलो किन्तु इन दोनों वीरों को छोड़ दो "।

सीता की यह बात सुनकर राम और लक्ष्मण राक्षस का वध करने में शीघ्रता करने लगे। लक्ष्मण ने उस राक्षस की बायीं और श्रीराम ने दाहिनी बॉंह बड़े वेग से तोड़ डाली। इससे मेघ के समान काला राक्षस व्याकुल हो गया और मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। बहुसंख्यक बाणों से घायल और तलवारों से क्षत-विक्षत होने पर तथा पृथ्वी पर बार-बार रगड़ जाने पर भी वह राक्षस नहीं मरा। 

तब श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा,"यह राक्षस तपस्या से अवध्य हो गया है। इसे शस्त्र के द्वारा नहीं जीता जा सकता ।इसे पराजित करने के लिये गड्ढा खोदकर दबाना होगा"। यह कहकर श्रीराम एक पैर से विराध का गला दबाकर खड़े हो गए। 

यह बात सुनकर विराध बोला," आपका बल इन्द्र के समान है ।मैं आपके हाथ से मारा गया। पहिले मैं आपको पहिचान नहीं सका ।अब जान गया कि आप ही श्रीराम हैं,ये महाभागा सीता हैं, और ये आपके छोटे भाई महायशस्वी लक्ष्मण हैं। मुझे कुबेर के शाप के कारण इस राक्षस शरीर में आना पड़ा। मैं तुम्बुरु नामक गन्धर्व हूँ। कुबेर ने कहा था कि श्रीराम तुम्हारा वध करेंगे, तब तुम शाप से छूट जाओगे। आपकी कृपा से मुझे उस भयंकर शाप से छुटकारा मिल गया, अब मैं अपने लोक को जाऊँगा। "

विराध ने यह भी कहा," यहॉं से आगे सूर्य के समान तेजस्वी महामुनि शरभंग का आश्रम है, आप वहॉं शीघ्र चले जाइये, वे आपके कल्याण की बात बतायेंगे।" ऐसा कहकर बाणों से पीड़ित हुआ महाबली विराध उस शरीर को छोड़कर अपने लोक को चला गया। 

इस प्रकार उस राक्षस का वध करके सीता को साथ लेकर श्रीराम व लक्ष्मण निर्भय हो उस महान् वन में आनन्द मग्न हो विचरण करने लगे। श्रीराम ने सीता को हृदय से लगाकर सान्त्वना दी और शीघ्र शरभंग मुनि के आश्रम पर गये। 


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