Ranjana Jaiswal

Tragedy

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Ranjana Jaiswal

Tragedy

दीप तले अंधेरा

दीप तले अंधेरा

53 mins
360


यह एक शिक्षिका का व्यक्तिगत अनुभव है। इस व्यक्तिगत अनुभव से भी प्याज की तरह गठीले शिक्षा -तंत्र की कई परतें खुल सकती हैं ।)

भाग एक--

ज़िन्दगी का ये कैसा दौर है !ऐसा लगता है जैसे मैं किसी धुंध में खड़ी हूँ,जहां से कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा।ऐसा लगता है जैसे मैं फिर से उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई हूँ ,जिसके चारों तरफ रास्ते ही रास्ते हैं,पर उनमें से कोई मुझे मेरी मंजिल तक नहीं ले जाएगा।

पच्चीस वर्ष पहले मैं इसी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ थी,भटक जाने के पूरे आसार थे।गुमराह करने वाली शक्तियां चारों तरफ से मुझे घेर रही थीं ।एक भी आदमी ऐसा नहीं था ,जो मुझे सही राह दिखाए ।तभी बिजली कौंधी और मुझे एक रास्ता नज़र आया ।एक स्कूल,जो नया -नया खुला था ।वहीं से मेरी ज़िंदगी में ठहराव आया।आत्मनिर्भरता हासिल हुई ।मैंने अपनी मर्ज़ी से जीना सीखा।अब मैं अपनी लड़ाई लड़ सकती थी।गुमराह करने वाली शक्तियां अपने आप तितर-बितर हो गईं थीं,अब वे मेरी शिकायत कर सकती थीं ।मुझे बदनाम कर सकती थीं ,पर मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती थीं।उस समय जाना कि किसी अकेली स्त्री के लिए आत्मनिर्भरता कितनी जरूरी है?वरना उसके तन -मन -भावना से खेलकर उसको पतन के गर्त में धकेलने वाले गली -गली से निकल आते हैं!ये समाज अकेली स्त्री के लिए सुरक्षित जगह नहीं है।किसी को स्त्री के दुःख -तकलीफ़ और भविष्य की चिंता नहीं होती,सभी उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं।'यूज और थ्रो' पाश्चात्य नहीं भारतीय समाज का भी फैशन है।इंसानियत,मानवता सब खोखली बाते हैं,कोई उस पर नहीं चलता।स्त्री को अबला समझकर कोई मदद करने नहीं आता, बल्कि उसे लूटने आता है,तबाह करने आता है।यूं ही तो नहीं चकले आबाद हैं और हर शहर में रेडलाइट एरिया है।ईश्वर की अनुकम्पा रही कि कोई मुझे इस्तेमाल नहीं कर पाया क्योंकि मैं समय रहते ही ऐसे लोगों से दूर हो गयी।यही कारण है कि शहर में मेरे बहुत सारे दुश्मन हो गए।पर वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीं पाए क्योंकि मैं उन पर निर्भर नहीं थी।शिक्षित होने का महत्व तभी पता चला।हालाँकि मुझे अपनी योग्यता के अनुसार पद नहीं मिला, पर जीने -भर के साधन तो मिले ही।कम से कम समझौता तो नहीं करना पड़ा।यह तो संतोष मिला ही कि अपना 'स्व' गंवाकर कुछ नहीं पाया।अपनी ही नज़रों से गिरना तो नहीं पड़ा।उच्च शिक्षा के बाद भी स्कूल टीचर मात्र रह जाना मेरी अयोग्यता नहीं है, बल्कि वह योग्यता है जो सिर्फ परिश्रम से हासिल है।मैं भी बड़ा पद पा सकती थी,पर उसके लिए न तो कोई पहुँच थी, न सोर्स -सिफारिश ।न कोई अपना था ,न हितैषी मित्र । पैसा भी नहीं था और गलत समझौते मैं कर नहीं सकती थी।इसलिए स्कूल मास्टरनी बनकर ही रह गयी,वह भी प्राइवेट स्कूलों की।लोग पूछते हैं कि काबिल होते हुए भी क्यों मैं किसी विश्वविद्यालय या डिग्री कॉलेज में नहीं हूँ ।कम से कम किसी सरकारी स्कूल में ही होती।मैं किस -किससे और क्या क्या बताऊँ?'मार खा रोई नहीं' वाली ज़िन्दगी के लिए किसे दोष दूं-भाग्य को,अपनों को,समाज को,भ्रष्टाचार को या खुद को।

भाग दो --

एक तरफ़ कोविड 19 का कहर था।प्रतिदिन किसी न किसी प्रिय व्यक्ति के मरने की खबर आ रही थी,दूसरी तरफ नौकरी चली जाने का खतरा सिर पर मंडरा रहा था।स्कूल में मार्च से नया सेशन शुरू होने ही वाला था कि अचानक लॉकडाउन की ख़बर आई।स्कूल बंद हो गया,फिर ऑनलाइन पढ़ाने का प्रस्ताव पास हुआ।ऑनलाइन क्लास लेना पुरानी विधि से शिक्षितों के लिए उतना आसान नहीं था।हमारे समय में कम्प्यूटर नहीं पढ़ाया जाता था और न ही हम तकनीकी ज्ञान से सम्पन्न थे।ऑनलाइन पढ़ाने के लिए महँगे फोन और लैपटॉप की भी जरूरत थी।उस पर नए -नए ऐप की अपनी उलझनें।नई पीढ़ी के लिए यह सब थोड़ा आसान था। वे आसानी से सारी नई प्रविधि सीख भी लेते थे, पर प्रौढ़ उम्र के लोगों को इसके लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी।उनमें से एक मैं भी थी।

शुरू के तीन महीने अर्थात अप्रैल से जून तक मुझे कोई क्लास नहीं मिला तो दहशत थी कि शायद मेरी नौकरी चली गयी है क्योंकि इस बीच कई शिक्षकों को हटा दिया गया था,पर आधी सेलरी बैंक में आ जाने से कुछ इत्मीनान हुआ।

एक तो कोविड के कारण पागलपन की हद तक साफ-सफाई , दूसरे छह महीने तक घर में कैदी की स्थिति में रहना आसान नहीं था।गनीमत था कि घर के पास ही एक राशन की दूकान है और साग -सब्जी वालों के ठेले दरवाजे तक आ जाते थे।शाम को आस -पास की औरतें अपनी छतों पर होतीं तो उनसे वार्त्तालाप हो जाता।टेलीविजन के पुराने कार्यक्रम मन को नहीं भाते थे ।मनोरंजन का और कोई साधन नहीं था।एक -दो महीने तो लिखने -पढ़ने में मन लगाया, बाद में उससे भी मन उचट गया।नौकरी जाने का ख़तरा अभी बना ही हुआ था।

जुलाई से ऑनलाइन पढ़ाने के लिए कक्षाएं मिल गयी, तो पुरानी चिंता कि नौकरी गयी,से थोड़ी राहत मिली।पर फिर तकनीकी समस्याएं सामने आईं।बहुत स्टैंडर्ड मोबाइल फोन पास नहीं था और लैपटॉप भी हैंग करने लगा था।दूसरा लैपटॉप खरीदने की हैसियत नहीं थी।महंगा मोबाइल लेना भी सम्भव नहीं हो पा रहा था।बाहर सख़्त लॉकडाउन था। कुछ दिनों बाद थोड़ी रियायत हुई फिर भी दूकानें बहुत कम और नियत समय पर ही खुल रही थीं।मेरे पास न तो कोई वाहन था,न कोई सहयोगी।इस समय अपने अकेले होने का अहसास शिद्दत से हो रहा था।वैसे तो वर्षों से अकेली ही सब कुछ झेलती रही हूँ पर इतना अकेलापन कभी नहीं लगा था।

बड़ी मुश्किल से ऑनलाइन पढ़ाने की कला सीखी।स्कूल से भी इसके लिए ट्रेनिंग दी गईं,पर एक ऐप से सीखती तब तक स्कूल दूसरा ऐप शुरू कर देता।डर के मारे हालत खराब रहती कि अगला ऐप क्या होगा?कम उम्र वाले अध्यापक भी मुश्किल से सीख पा रहे थे फिर हम तो उनके सामने बूढ़े तोते थे।कोविड की चिंता छोड़कर मुझे इस नई चिंता से जूझना पड़ रहा था।खैर कभी कोई शिकायत नहीं हुई।वीडियो बनाने में मैं उस्ताद थी और अपने विषय का अच्छा ज्ञान था ही,इस कारण मेरा हर क्लॉस बेहतर रहा।बीच- बीच में हमें स्कूल बुलाया जाता।फर्स्ट सेमेस्टर,सेकेंड सेमेस्टर की परीक्षाएं भी हुईं।प्रश्रपत्र और उत्तर पुस्तिकाएं अभिभावकों को उपलब्ध करा दी जाती थीं और बच्चे घर पर रहकर ही परीक्षा देते।फिर उत्तर -पुस्तिकाएं स्कूल में जमा हो जातीं।3-4 दिन के बाद अध्यापक अपने विषय की उत्तर -पुस्तिकाएँ घर लाकर चेक करते और नियत समय पर उन्हें ले जाकर कक्षा -अध्यापक को सुपूर्त करते, फिर कक्षा-अध्यापक रिजल्ट तैयार करता।रिजल्ट लेने भी अभिभावक ही आते।स्कूल में कोविड 19 से सुरक्षा के सारे बंदोबस्त थे।सेनेटाइजर की जगह- जगह व्यवस्था भी।बिना चेक कराए कोई स्कूल -परिसर में प्रवेश नहीं कर सकता था।शिक्षक पूरी मेहनत से प्रयास कर रहे थे कि बच्चों को ऑनलाइन बेहतर शिक्षा दें।स्कूल प्रशासन भी हर तरह से कोशिश में था कि विद्यार्थियों की इस वर्ष की पढ़ाई सुचारू रूप से चलती रहे पर अभिभावक शुल्क देने में आनाकानी कर रहे थे।कोई- कोई तो विरोध पर उतर आते थे।सच था कि कई अभिभावकों की रोजी-रोटी खतरे में थी।व्यवसायी अभिभावकों के व्यवसाय को इस कोविड ने प्रभावित किया था।सरकारी नौकरी वाले ठीक स्थिति में थे पर शुल्क देने में सबसे अधिक वे ही शोर मचा रहे थे।किसी को यह परवाह नहीं था कि उनके शुल्क न जमा करने से अध्यापकों को वेतन नहीं मिलेगा।स्कूल प्रशासन अपनी जेब से तो वेतन देने से रहा।अध्यापकों के भी अपने घर- परिवार हैं ।अधिकतर तो वेतन पर ही निर्भर हैं ।उनके तो भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।अध्यापक मेहनत से पढ़ा रहे हैं,अपने सारे दायित्व निभा रहे हैं फिर उन्हें वेतन तो मिलना ही चाहिए।कोविड ने न सिर्फ देश की आर्थिक व्यवस्था बिगाड़ी है, बल्कि हर घर की आर्थिक स्थिति इससे प्रभावित हुई है। सरकार फिर भी अपने कर्मचारियों को वेतन दे रही है, फिर प्राइवेट स्कूल अपने अध्यापकों और कर्मचारियों को वेतन क्यों नहीं दे सकते?शुल्क न मिलने का बहाना भी तब बेमानी हो गया,जब अभिभावकों ने थोड़े ना -नुकुर के बाद शुल्क जमा कर दिए।उन्हें डर था कि ऐसा न करने पर बच्चों का एक वर्ष बर्बाद हो जाएगा।उनका नामांकन रद्द कर दिया जाएगा।वे ऑनलाइन न पढ़ सकेंगे न परीक्षा ही दे सकेंगे।

इसके बाद भी बहुत सारे स्कूलों ने अपने अध्यापकों को कॅरोना काल में कोई वेतन नहीं दिया,कुछ ने आधा दिया तो किसी ने एक तिहाई।मेरे स्कूल में तीन महीने आधा वेतन मिला ,पर जब फीस आने लगा तो पूरा पैसा मिलने लगा।नवम्बर 20 से नौवीं से बारहवीं तक के बच्चों को स्कूल आने की इजाजत मिल गई, वह भी अभिभावकों के निजी परमिशन पर।यानी अभिभावक अपने रिस्क पर बच्चे को स्कूल भेज सकते थे ।यह आजादी मिलने पर नाम -मात्र के बच्चे ही स्कूल आते पर अध्यापक को पूरे समय विद्यालय में उपस्थित रहना था,साथ ही ऑनलाइन पढ़ाना भी था ताकि जो बच्चे नहीं आ रहे, उनकी पढ़ाई भी सुचारू रूप से चलती रहे।

स्कूल में नियमित जाने और कई तरह के काम करने की व्यस्तता में कॅरोना की दहशत कम हो गयी थी ,पर दूसरी तरह की दहशत बराबर बनी हुई थी।

वह दहशत थी नौकरी चले जाने की....।

भाग तीन--

आखिर मेरी आशंका सच निकली।

आर्थिक मंदी के कारण 50 प्लस वालों को नौकरी से रिटायर करने के सरकारी निर्देश का पालन सरकारी महकमों में अभी शुरू होने वाला था।उसके पहले ही इसे प्राइवेट स्कूलों ने लागू कर दिया ।वैसे भी वहाँ सत्र के बीच में या कभी भी कोई दोष लगाकर अध्यापक को निकाला जा सकता है।

स्कूल के 15 वर्षों के कार्यकाल में मुझ पर कोई आरोप नहीं लगा था।अपने विषय हिंदी में मैंने डॉक्टरेट किया था।बच्चे ,अभिभावक और स्कूल मैनेजमेंट भी मेरे उत्तम शिक्षण- पद्धति के कायल थे।सांस्कृतिक कार्यक्रम कराने में मेरी मुख्य भूमिका होती थी।सैकड़ों सुपरहिट नाटक मैंने कराए थे।जिस भी प्रतियोगिता में बच्चों को ले गयी ,वे जीतकर ही आए।शिक्षक -चयन बोर्ड की मैं सक्रिय सदस्य थी।प्रेस रिपोर्टिंग से लेकर स्कूल पत्रिका की प्रूफरीडिंग तक मैंने की।।कुल मिलाकर स्कूल में मेरी एक साख थी..इज्जत थी ...प्रतिष्ठा थी।इस अंग्रेजी माध्यम स्कूल में मेरे आने के बाद से हिंदी में शत- प्रतिशत रिजल्ट आने लगा था।बाकी हिंदी अध्यापकों को सहयोग,निर्देश,परामर्श सब देती रही थी।ज्यादातर तो मेरे द्वारा ही चुने गए थे।अध्यापक चयन प्रक्रिया आसान नहीं थी।एक टीचर के पद के लिए सैकड़ों आवेदनपत्र आते।उनमें से पच्चीस ही छाँटे जाते थे फिर उनका साक्षात्कार होता ।

पी -एच .डी ,एम .एड,बी. एड. किए हुए तथा अन्य स्कूलों में कई वर्ष पढ़ाए हुए अनुभवी प्रत्याशी ही साक्षात्कार के लिए चुने जाते थे ,पर उनमें से अधिकतर का विषय -ज्ञान इतने छिछले स्तर का होता कि हम सिर पकड़ लेते।व्याकरण- ज्ञान तो लगभग शून्य ही होता ।प्रिंसिपल झल्ला जाते कि हिंदी क्षेत्र में हिंदी पढ़े और हिंदी के अध्यापक बनने जा रहे लोगों का हिंदी ज्ञान इतना कमतर क्यों है?

मैं उन्हें समझाती कि छात्र हिंदी को गम्भीरता से नहीं पढ़ते।बस किसी तरह उसमें डिग्री लेकर पैसा कमाना चाहते हैं।चूंकि हिंदी में अनुत्तीर्ण कम होते हैं,इसलिए ज्ञान के लिए इसे कम ही पढ़ते हैं।अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में हिंदी वैसे भी दोयम दर्जे पर रहती है।जरूरी नहीं होता तो इस विषय को पढ़ाया ही नहीं जाता।हिंदी अध्यापक भी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में उपेक्षा का शिकार होता है क्योंकि वह फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल पाता ।मैंने भी बड़ी मुश्किल से अपने लिए सम्मानित जगह बनाई थी ,वह भी अपनी अतिरिक्त और विशिष्ट प्रतिभा के कारण।फिर भी कई बार ऐसा लगता था कि मुझे अजीब नजरों से देखा जा रहा है।बच्चे,अभिभावक और अंग्रेजी पढ़ाने वाले टीचर "हिंदी की टीचर हैं" यह बताते हुए कुछ अजीब भाव से मुस्कुराते हैं।उस समय मैं सोचती कि ये काले अंग्रेज हिंदुस्तान में रहकर ,उसकी रोटी खाकर भी राष्ट्र-भाषा हिंदी का सम्मान क्यों नहीं करते?

भाग चार--

सारे संसार में कॅरोना वायरस का आतंक मचा हुआ है।सभी अपने घरों में कैद हैं।किसी के साथ कभी भी कुछ भी हो सकता है।बच्चों और उम्रदराज लोगों को बहुत खतरा है।जनता कर्फ्यू लगा हुआ है।

यह कोई महामारी है जिसने पूरी दुनिया को निगलने के लिए अपने जबड़े फैला दिए हैं।कोई पूजा ,कोई प्रार्थना ,कोई पुकार काम नहीं आ रही।धर्म-प्रतीकों के दरवाजे बंद हैं।

यह प्रकृति का प्रकोप है इंसानों ने हद भी तो कर दी है।कुछ समय पहले भूकम्प ने दिल दहलाया था अब इस महामारी ने।

मैं घर में कैद हूँ अकेली हूँ।हमेशा ही रहती हूँ पर इस तरह नहीं कि बाहर निकलने से पहले सौ बार सोचना पड़े।पहले दिन भर स्कूल में बच्चों के साथ बीत जाता था,बाकी समय घर के काम-काज और कुछ लिखने-पढ़ने में।अब तो घर की कई बार दिवाली जैसी सफाई कर चुकी।लिखने- पढ़ने का मन नहीं हो रहा।भीतर से कुछ उदासी है पर समय तो काटना ही है।वैसे भी रिटायरमेंट पास है फिर तो ऐसे ही जीवन गुजारना होगा ,हाँ तब शायद बाहर आने -जाने में पाबन्दी न हो।

इस वर्ष कोविड 19 की दहशत के साथ एक नई दहशत नौकरी चली जाने की बराबर बनी रही थी। और अंततः यह पता चल ही गया कि 31 दिसम्बर को छह लोगों को रिटायर कर दिया जाएगा,जिसमें एक मैं भी हूँ।वैसे कॅरोना काल में कई एक वर्ष पुराने कम- उम्र के टीचर्स को भी हटा दिया गया था।चूंंकि लंबे वर्षों से काम कर रहे लोगों को इस तरह नहीं हटाया जा सकता , इसलिए बकायदा उन्हें रिटायर करने की योजना बनी।मेरी तो जान ही सूख गई क्योंकि स्कूल ही मेरा आर्थिक आधार था और उसी आधार पर मैं अपने जीवन के अन्य युद्ध लड़ पा रही थी।बाकी टीचर्स का अपना घर -परिवार था ,नात-रिश्तेदार थे।आय के दूसरे स्रोत थे।स्कूल को मैंने अपनी सारी शक्ति,ऊर्जा,प्रतिभा और उम्र समर्पित कर दी थी।विगत 16 वर्षों से वही मेरे लिए सम्पूर्ण दुनिया बन गया था।वहां की हर चीज़ से मेरा जुड़ाव था।मैं अक्सर कहा करती-"जीना यहाँ मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ?" 16 वर्षों में मैंने कोई छुट्टी नहीं ली।बीमार होने पर भी नहीं ।यहाँ आने के बाद कहीं और जाने के बारे में सोचा भी नहीं।प्रिंसिपल बड़े सदय थे ..मुझसे प्रभावित भी।मुझे लगता ही नहीं था कि पूरी तरह से पढ़ाने में अक्षम होने के पूर्व मुझे रिटायर भी होना पड़ेगा।अभी मैं तन -मन से पूर्ण स्वस्थ और युवा थी और किसी नवयुवा से ज्यादा काम कर रही थी।वह भी पूरे उत्साह,लगन और प्रसन्नता से।मेरे ऑनलाइन क्लास की भी प्रशंसा हो रही थी।बाकी रिटायर के लिए प्रस्तावित पांच लोग छोटी कक्षाओं में काम करते थे ।इस संकट- काल में वे कुछ नहीं कर रहे थे।पांचवी क्लास तक के बच्चे स्कूल नहीं आ रहे थे और इन लोगों को ऑनलाइन क्लास भी नहीं लेना था।कभी -कभार स्कूल से उन्हें कुछ अन्य कार्य मिल जाता था,पर मेरे पास तो सीनियर क्लास थे,बच्चे भी आ रहे थे और लाइव क्लास के साथ वीडियो क्लास भी चल रहे थे, फिर सत्र के बीच में इस तरह रिटायर करने का क्या मतलब था?मैंने प्रिंसिपल से बात की, तो उन्होंने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा कि उनकी संस्था का यही निर्णय है।बाकी स्कूल भी यही कर रहे हैं ।स्कूल आर्थिक संकट से गुजर रहा है।बच्चों के फीस भी नियमित नहीं आ रहे।स्कूल में भी बच्चे कम आ रहे हैं ,इसलिए उन्हें दिसम्बर के बाद स्कूल आने से मना कर दिया जाएगा।ऑनलाइन तो एक ही टीचर पढ़ा लेगा।दसवीं और बारहवीं कक्षा का प्रीबोर्ड एक्जॉम ले लिया गया है।वे अब नहीं आएंगे तो उनके टीचर्स खाली हो जाएंगे।उनमें से एक आपकी कक्षा पढ़ा लेगा।

पढ़ाना ही क्या था, मैंने तो पूरे वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा कर दिया था।कविता,कहानी,उपन्यास और व्याकरण के सारे अध्यायों के बेहतरीन वीडियो अपलोड कर दिए थे।उसी को दिखाकर रिवीजन कराना ही शेष था।

पर मैं अब स्कूल पर अधिकार नहीं जता सकती थी क्योंकि हाईस्कूल के प्रमाणपत्र में अपढ़ माता- पिता की असावधानी से मेरी जो जन्मतिथि दर्ज थी,और जिसे ठीक कराने की कोशिश भी नहीं की गई ,के अनुसार मैं पचास पार कर गयी थी।कई वर्ष उम्र से ज्यादा दर्ज थे,पर स्कूल तो कागज़ देख रहा था। स्कूल में कई टीचर्स ऐसे थे जिन्होंने अपनी उम्र कम करके लिखाई थी।वे बूढ़े दिखते थे और बीमार रहते थे,पर उन्हें रिटायर नहीं किया जा सकता था।यह कोई सरकारी संस्था भी नहीं थी कि बर्थ-सार्टिफिकेट की वैधता की जांच कराए। मैं रिक्वेस्ट ही कर सकती थी इसलिए मैंने प्रार्थना- पत्र दिया कि कम से कम मार्च तक यानी इस सत्र के पूरा होने तक यानी मात्र तीन महीने और कार्य करने अवसर दिया जाए ।पर सवाल तीन महीने ही नहीं ,पूरे छह महीने की सैलर का था।नई नियुक्ति जुलाई से पहले होनी नहीं थी।वर्तमान टीचर्स से ही काम चला लेना था।

मैं भी तो सेलरी के बारे में ही सोच रही थी।दोनों तरफ अर्थ ही आधार था।वर्षों के रिश्तों के बीच अर्थ आ गया था।मेरी तो मजबूरी थी पर स्कूल मजबूर नहीं था क्योंकि बच्चों से पूरे वर्ष की फीस वसूल ली गयी थी।वैसे भी यह कोई छोटा -मोटा स्कूल नहीं था,जिसकी आर्थिक नींव कमजोर हो।

पर प्राइवेट स्कूल होने के बहाने पेंशन की भी व्यवस्था नहीं थी।

मेरी वर्षों की सेवा ,त्याग, समर्पण को भी नहीं देखा गया ।स्कूल ने मेरी परेशानियों और मजबूरियों को दरकिनार करके अपने निर्णय को अंजाम दे दिया।तब लगा कि स्कूल ने सिर्फ प्रोफेशनल रिश्ता रखा था ।मैं ही उससे इमोशनली जुड़ गई थी।स्कूल ने एक बार भी नहीं सोचा कि रिटायर होने बाद बिना पेंशन या आर्थिक सुरक्षा के मैं कहाँ जाऊंगी?वैसे तो प्राइवेट स्कूल हर बात में सरकारी स्कूल के नियमों को मानते हैं ,पर न तो सरकारी सेलरी देते हैं न पेंशन।काम जरूर उससे चौगुना लेते हैं ।गन्ने को पेरकर उसका रस निचोड़कर जैसे उसे फेंक दिया जाता है उसी तरह ये प्राइवेट स्कूल करते हैं।कोई मानवीयता नहीं ,सहानुभूति नहीं ,अपनापन नहीं।वैसे तो कहते हैं विद्यालय एक परिवार है।पर क्या वे परिवार ही सिद्ध होते हैं ?क्या परिवार -सी सुरक्षा,संरक्षण व अपनत्व वहाँ मिल पाता है!हाँ, वे उन आधुनिक परिवारों जैसे जरूर होते हैं,जहाँ बूढ़े माँ -बाप को परिवार से बाहर कर दिया जाता है।

मैंने प्रिंसिपल से कहा भी कि संस्था एक वृद्धाश्रम भी खोल दे, जहाँ रिटायर कर दिए गए अकेले शिक्षक रह सकें। वे हँसकर बात टाल गए।यह कहने पर कि बिना पेंशन के जीवन कैसे गुजरेगा? उन्होंने कहा कि आपमें इतना टैलेंट है,उसका उपयोग कीजिए।आप तो लेखक हैं खूब लिखिए ।उन्हें यह समझाना बेकार साबित हुआ कि हिंदी में लेखन रोटी ,कपड़ा,मकान नहीं दे सकता।हिंदी का प्रकाशक मालेमाल होता है,लेखक नहीं। उन्हें विश्वास ही नहीं था कि बहुत कम लेखक ही रॉयल्टी पाते हैं या साहित्य की रोटी खाते हैं।

भाग पाँच--

शिक्षा के क्षेत्र में जातिवाद की शिकार तो मैं शुरूवाती दौर में हो गयी । विश्वविद्यालय में पूर्ण पात्रता और बेहतरीन इंटरव्यू के बाद भी मेरा सलेक्शन नहीं हुआ।इंटरव्यू बोर्ड में जो लोग शामिल थे,वे मेरे लेखकीय व्यक्तित्व और योग्यता के कायल थे,बाहर से जो विशेषज्ञ आए थे,वे भी मेरे व्यक्तित्व,कृतित्व और इंटरव्यू से खासे प्रभावित दिखे,फिर भी इंटरव्यू का परिणाम शून्य रहा।विश्वविद्यालय और विशेषकर मेरे विभाग में एक विशेष जाति का वर्चस्व था और उसी जाति के एक व्यक्ति का सलेक्शन हुआ।ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ ,वह भी कई महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में।कहीं का भी चुनाव -बोर्ड पाक -साफ नहीं था।कहीं रिश्वत थी कहीं सोर्स-सिफारिश,कहीं जातिवाद तो कहीं क्षेत्रवाद ।और भी कुछ हो ,तो मुझे पता नहीं ।अक्सर देखती कि कम योग्यता वाले पद पाकर अपनी योग्यता का डंका पीट रहे हैं।वे उन चीजों को नहीं गिनाते थे,जिसके बल पर पद हासिल किए थे।किसी ने खेत बेची थी किसी ने ज़मीन।किसी ने ईमान तो किसी ने ज़मीर।अक्सर तो किसी न किसी विश्वविद्यालय में बड़े पद पर आसीन की संतानें ही पद पाती थीं क्योंकि वहाँ आपसी समझौता होता था कि 'तुम मेरी चुनो मैं तुम्हारी चुनूँगा'।इस क्षेत्र में 'बसुधैव कुटुम्बकम" नहीं "विश्वविद्यालय कुटुम्बकम" की अवधारणा थी।

आपसी संबंध के अलावा गुप्त रूप से,जो मोटी रकम अदा करनी होती,उसकी जानकारी भी शिक्षा -जगत के आपसी सम्बन्धियों को ही हो पाती है। 'खग जाने खग ही की भाखा'।मैं इन सबसे सर्वथा अनभिज्ञ थी और अगर भिज्ञ भी होती तो क्या कर लेती?उन "पेट -भरो" के सुरसा जैसे मुँह को बंद करने की सामर्थ्य ही कहाँ थी मुझमें?

दूसरे प्रदेशों में भी साक्षात्कार दिए,पर वहाँ क्षेत्रवाद बहुत था।कई जगह तो बस कोरम पूरा किया गया।वहाँ नियुक्त पहले ही तय था कोरम पूरा करने के लिए विज्ञापन और फिर साक्षात्कार का ढोंग किया गया।

अन्ततः मैंने उस क्षेत्र में प्रयास करना ही छोड़ दिया।कुछ समय सरकारी स्कूलों के पीछे भागी।परीक्षा में पास हो जाती थी।साक्षात्कार भी अच्छा होता था,पर नियुक्ति पत्र नहीं आता था।पता चला वहाँ भी गुप्त दान और सोर्स सिफारिश की प्रथा है।विश्वविद्यालय की अर्हता वाली का सेलेक्शन माध्यमिक सरकारी स्कूलों में भी न हो सका।गनीमत थी कि किसी ने इसे मेरी अयोग्यता नहीं मानी।किसी ने भाग्य, किसी ने प्रयास की कमी जरूर माना।किसी ने कहा कि किसी को गॉड फादर बना लेना चाहिए था क्योंकि कोई मजबूत ,बुद्धिमान ,सोर्सफुल पुरूष साथ होता तो वह दौड़ -भाग करके नौकरी दिला देता ।समझौता वह भी स्त्रीत्व का ...अपने आदर्श का मुझे कतई मंजूर नहीं था।मैंने मान लिया कि मेरी योग्यता और प्रयास में ही कमी थी कि मुझे अच्छी नौकरी नहीं मिली।

जबकि शिक्षा-तंत्र को कम जानने की सज़ा मुझे मिली थी।

भाग छह--

खाली हाथ आई थी इस दुनिया में

ले जा रही स्मृतियाँ को साथ मैं

मेरे चेहरे पर आहत अभिमान की रेखाएँ प्रकट हुईं, पर मैंने खुद को दबाए रखा ।जब उन्होंने मन में मेरी एक छवि बना ही ली तो मैं उसे मिटा तो नहीं सकती थी।वैसे भी मैं उनके अधिनस्त काम करने वाली अध्यापिका थी ।प्राइवेट स्कूलों में अध्यापकों का अस्तित्व मायने ही कितना रखता है ।जब चाहे उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।न तो सरकारी वेतन न सरकारी सुविधाएं ।अधिकतम काम और वेतन कम, ऊपर से घोर अनिश्चितता ।हर समय सिर पर तलवार लटकती रहती है।फूँक-फूंककर कदम रखने के बावजूद कभी न कभी कोई गलती हो ही जाती है,फिर तो कोई क्षमा नहीं ।सारी खूबियों ,सारी मेहनत ,सारी कार्यकुशलता पर पानी फेर दिया जाता है और अनजाने में हुई उस गलती को इतना हाईलाइट किया जाता है कि लगता ही नहीं उस व्यक्ति ने कभी कुछ अच्छा किया है ।उसे बुरी तरह डांटा -फटकारा जाता है...नौकरी से निकाल देने की धमकी दी जाती है और अवसर मिलते ही निकाल भी दिया जाता है }अध्यापक को सफाई देने का मौका भी नहीं दिया जाता और अगर वह अपनी सफाई में कुछ बोले तो और भी बुरा हो जाता है ।उसे सिर झुकाकर जर-खरीद गुलाम की तरह सब कुछ सहना पड़ता है ।जिस स्वाभिमान की शिक्षा वह विद्यार्थियों को देता है ,वह उसके जीवन में कहाँ होता है ?

मुझे भी कई बार इस स्थिति का सामना करना पड़ा था ।उस समय मेरा जी तो चाहा था कि चीख-चीखकर जमीन-आसमान एक कर दूँ ।अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करूं ,पर मुझे यह पता था कि ऐसा करना तत्काल नौकरी से हाथ धोना होगा और नौकरी मेरी जरूरत थी ,मजबूरी थी ।इससे मुझे आर्थिक स्वतंत्रता मिली थी ,जिसके कारण मैं ज़िंदगी की दूसरी लड़ाइयाँ अकेली लड़ पा रही थी ।उनकी फटकार से मेरा अभिमान आहत होता पर मैं खुद ही उन्हें सॉरी बोलकर वापस आती ,पर महीनों डिप्रेशन में रहती ।अकेले में फूट-फूटकर रोती कि मैं इतनी मजबूर क्यों हूँ ।काश,मेरा भी कोई संबल होता ,जिसके भरोसे मैं ऐसी नौकरी को लात मारकर वापस चली जाती ।मैं ईश्वर से प्रार्थना करती ...फरियाद करती...अपने भाग्य को कोसती ,फिर धीरे-धीरे उस गहरे आघात को भूलकर अपनी दिनचर्या में रम जाती ।

पर वे सारे मन के हरे घाव थे ,जो कभी नहीं सूखते ।

नौकरी में भी मैं व्यवसायिक संबंध नहीं बना पाई थी ।सबसे इमोशनली जुड़ जाती थी ,पर जब सबका असली रूप देखती तो झटका खा जाती ।सब कुछ वैसा ही तो नहीं होता ,जैसी हम कल्पना करते हैं ।शायद मैं अब तक कल्पना -लोक में ही जीती रही हूँ ।

रिटायरमेंट की खबर मेरे लिए किसी सदमें से कम नहीं थी ।

मुझे समझ लेना चाहिए था कि यह जिंदगी का एक बड़ा सत्य है। जो आया है उसे जाना ही पड़ता है ।इंसान को तो यह दुनिया भी छोड़नी पड़ती है एक दिन, फिर यह तो नौकरी है ।फिर क्यों उससे यह मोह नहीं छूट रहा ?क्यों मैं डिप्रेशन में हूँ ?क्यों भविष्य इतना डरा रहा है मुझे ?इतने दिनों का जुड़ाव क्यों नहीं टूट पा रहा है ,जबकि सच यही है कि सिर्फ़ मैं ही जुड़ी थी |

भाग सात--

सोचा न था ऐसा भी दिन आएगा

मेरा साया भी मुझसे जुदा हो जाएगा।

सचमुच उम्र के इस पड़ाव पर आकर ऐसा ही लगता है।दुनिया की छोड़ो अपनी देह भी तो अपना साथ नहीं देती।कभी सिर दुखता है कभी पैर।कभी सर्दी ,कभी बुखार ।तनाव तो हमेशा बना ही रहता है।कभी नींद नहीं आती, तो कभी सूरज चढ़ने तक सोती ही रहती हूँ।कभी भी खुद को पूर्ण रूप से स्वस्थ महसूस नहीं करती।जब तक नौकरी थी ,एक नियमितता थी।कष्ट होने पर भी काम करते रहने की मजबूरी थी,पर अब तो उससे भी मुक्त हो गयी।अब नए सिरे से नौकरी ढूँढने की हिम्मत नहीं।फिर से वही मुँह-अन्धेरे उठना, घर का काम निपटाना, भागे -भागे स्कूल जाना!स्कूल की अपनी परेशानियाँ!कभी बच्चों की बदतमीजियाँ ,कभी प्रिंसिपल की ज्यादतियां झेलना।कभी सहकर्मियों से तालमेल बिठाने के लिए उनकी सहनीय/ असहनीय बातें चुपचाप सुनना। कभी- कभी ये सब सहनशक्ति से बहुत ज्यादा हो जाता था ।पर इसका दूसरा पक्ष सुखद था।स्कूल से आर्थिक सुरक्षा थी,समाज में एक इज्जत थी।आपस में अपनी परेशानियां शेयर कर लेने से तनाव मुक्त हो जाती थी।बच्चों को पढ़ाना ,उनके साथ समय गुजारना एक अलग ही सुखद अहसास देता था।हँसने- हँसाने का ,अभिव्यक्ति का पूरा अवसर था,जिससे खुद को ऊर्जा,शक्ति ही नहीं खुशी भी मिलती थी।पर कोविड 19 ने ये सारे सुख छीन लिए ।इसने स्कूल और बच्चों से दूर कर दिया ।लाइव -क्लास में बच्चे दिखते थे ,पर वह कक्षा वाला अहसास नहीं था और अब स्कूल ने रिटायरमेंट देकर रही- सही उम्मीद भी तोड़ दी।

आखिरकार देश में व्याप्त हो रहे आर्थिक मंदी ने मुझे भी बेरोजगार कर ही दिया ।एक झटके में वह आधार टूट गया ,जिस पर तीस वर्षों से जी रही थी।प्राइवेट स्कूल में पेंशन भी नहीं।वेतन ही आधार था,वह भी नहीं रहा।

कोविड 19 से बची तो बेरोजगारी ने डंस लिया।16 वर्षों का परिश्रम, त्याग,समर्पण कुछ काम नहीं आया।उच्चतर श्रेणी का बॉयोडाटा फेल हो गया।सत्र पूरा कर लेने के प्रार्थना -पत्र पर विचार तक नहीं किया गया।विद्यालय -परिवार ने अपने परिवार से बाहर कर दिया, बिना यह सोचे कि मेरा भविष्य क्या होगा! तब लगा कि वह तो परिवार ही नहीं था।मैं ही मोह की हद तक उससे जुड़ गई थी।उसके सदस्यों ही नहीं ,उसके पेड़ -पौधों तक से मेरा लगाव था।इसका हरा- भरा परिसर मेरे मन को हरा कर देता था।सोचा न था कि एक दिन यह सब छोड़ना होगा और एक अनजान सफ़र पर निकलना होगा।सब यही कह रहे हैं कि यह स्वाभाविक है। सबके जीवन में यह क्षण आता है।मुझे खुश होना चाहिए कि ससम्मान मेरी विदाई की गई ।पर मैं खुश नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है अभी कुछ वर्ष और काम कर सकती थी ।

दिमाग में चलता रहता है कि क्या कोविड 19 की आर्थिक मंदी ही स्कूल की मजबूरी थी या फिर कुछ और बातें थीं।आखिर सत्र समाप्त होने के पूर्व ही पुराने शिक्षकों की विदाई के पीछे का रहस्य क्या है?क्या छह महीने की सैलरी की बचत करनी थी क्योंकि जुलाई से पहले नए टीचर्स की भर्ती नहीं होगी ?क्या यह कि नए शिक्षक को कम वेतन देना पड़ेगा? कि 

सिर्फ युवा लोगों की ही टीम बनानी थी कि अपने क्षेत्र के नए शिक्षकों की इस संकट काल में भी जो भर्ती की गई ,उसकी भरपाई करनी थी।

ओह ,यह जातिवाद ,क्षेत्रवाद और अब उम्रवाद!शिक्षा जगत में भी इसका बोलबाला है।जातिवाद के कारण मुझे अपनी योग्यता के अनुरूप पद नहीं मिला और अब क्षेत्रवाद ने असमय ही मेरी नौकरी ले ली।

भाग आठ--

उम्र का सांध्यकाल निकट है।सूर्य ढलने को है पश्चिम दिशा ढलते सूरज को अपने आँचल से ढँक रही है।आकाश का रंग तेज़ी से बदल रहा है।गाएँ अपने बथानों की तरफ भाग रही हैं।पक्षी अपनी उड़ान भूलकर अपने घोसलों की तरफ उड़ रहे हैं।विश्राम का समय है।सभी अपने घरों में अपनों के पास लौट रहे हैं,पर मैं कहाँ लौटूँ?किस अपने के पास!अपनी उड़ान स्थगित करके कहाँ थिर होऊँ?न कोई अपना है न किसी का साथ!गनीमत है एक छोटा सा घर है,जिसने मुझे अपनी गोद में विश्राम दिया है।हर दुःख में हर सुख में....मेरे इस घर ने मुझे सहारा दिया है।इसी की गोद में मुँह छुपाकर मैं रोई हूँ ।इसी के साथ हँसी -मुस्कुराई हूँ।शायद आखिरी नींद भी इसी की गोद में लूँ।कहने को तो यह ईंट- सीमेंट से बना निर्जीव चीज है पर मेरे लिए प्रियतम का आलिंगन है।इसकी गरमाई,इसकी शीतलता,रूक्षता,कोमलता सब कुछ महसूस किया है मैंने।मेरी गलतियों पर यह चीखा -चिल्लाया है,डाँटा -फटकारा है तो प्यार से समझाया भी है।इसी के सामिप्य में मुझे सुकून मिलता है।।कहीं भी जाऊँ शाम ढलते ही इसके आलिंगन के लिए छटपटाने लगती हूँ।कहीं और रात काटे नहीं कटती।कई बार रिश्तेदार नाराज़ हो जाते हैं कि मैं उनके घर बेचैन रहती हूँ,टिकती नहीं। कारण यही कि किसी के घर मुझे वह अपनापन नहीं दिखता।हर जगह दिखावा,प्रदर्शन,परायापन।सबके पास शिकायतों का भंडार होता है,जिसे सुनते -सुनते मैं उकता जाती हूँ।कोई मेरा हाल नहीं पूछता,मेरे दुःख-दर्द से किसी को कोई मतलब नहीं ।किसी को मुझसे आत्मीयता नहीं।उनकी बातें सुनकर लगता है कि वे ही दुनिया के सबसे सताए और दुःखी लोग हैं।उनके दुखड़े सुनकर लगता है कि मैं ही उनसे बेहतर स्थिति में हूँ,जबकि ऐसा नहीं है।पर उन पेट-भरों का रोना सुनते- सुनते मैं अपना रोना भूल जाती हूँ।

कभी -कभी तो वे वजह -बेवज़ह आपस में लड़ने लगते हैं ।उस समय बड़ा अजीब-सा लगता है।समझ में नहीं आता कि किसकी तरफ से बोलूँ!वहाँ से हट जाना ही बेहतर लगता है।

क्या वे इसलिए ऐसा करते हैं कि मेरा ध्यान बँट जाए और मैं अपनी बात न कह पाऊँ।कहीं उनसे कोई मदद न माँग बैठूँ।कहीं मेरा रोना न उन्हें सुनना पड़ जाए ,जिसमें उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं और जिसे वे मेरे ही कर्मों का फल मानते हैं।वे मेरे लिए कोई ज़िम्मेदारी नहीं महसूस करना चाहते। पर मेरे लिए उनके पास ढेर -सारी नसीहतें होती हैं,अव्यवहारिक सुझाव होते हैं और बात -बात पर उन गलतियों की ओर इशारे होते हैं,जो उनके हिसाब से जानबूझकर मैंने की है।अपनों की भीड़ में

एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो मुझे उसी रूप में समझ सके जैसी वास्तव में मैं हूँ।

मेरी जननी भी आंशिक रूप में ही मुझे जान-समझ पाई थी,जिसके कारण बचपन से प्रौढ़ उम्र तक मैं लगातार व्यथित रही।मैं वह वृक्ष थी,जिसकी जड़ें धरती में तो थीं,पर वहाँ की धरती बंजर थी,सूखी थी,वहाँ स्नेह-रस नहीं था।फिर भी मैं वहाँ से पोषक तत्व लेकर जीती रही।

बहुत बाद में मैंने सोचा कि मां नौ बच्चों में से हर एक को कैसे समझ सकती थी?उसके लिए बच्चों को किसी तरह पाल देना ही बड़ी बात थी।पति का सहयोग था नहीं ,आर्थिक संसाधनों का भी अभाव था।ऐसे में किसी तरह बच्चों का पेट भरकर सरकारी स्कूल में उन्हें भेज देना ही बहुत था उसके लिए ।बच्चों के मानसिक विकास के बारे में न तो उसे जानकारी थी और न ही उसकी चिंता।यही कारण था कि हम सब बच्चे अपनी स्थिति -परिस्थिति व माहौल के अनुरूप स्वयं अपना व्यक्तित्व गढ़ते रहे।लड़कियों में माँ की विशेषताएं ज्यादा आईं लड़कों में पिता के।मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि सारे बच्चों के मानसिक विकास में कुछ कमियाँ रह गयीं।माता- पिता से विरासत में क्रोध,जिद,अभिमान,आत्मश्लाघा जैसे अवगुण भी मिले थे ,जिसका परिमार्जन उच्च- शिक्षा हासिल कर एकाध बच्चे ही कर पाए।पर सबके भीतर उसके जिंस मौजूद रहे।विरासत में सुंदरता,दया,ईमानदारी,परोपकार,उद्यमशीलता भी मिली,जिससे सभी अपने जीवन में काफी आगे बढ़ गए।

गुण-दोषों की समानता के बावजूद सबका अलग व्यक्तित्व बना।कोई एक -दूसरे जैसा नहीं था।

शिक्षा की अलख घर में मैंने ही जलाई ,जिसके आलोक में भाई-बहन कुछ दूर चले,पर फिर वे अलग दिशा में मुड़ गए।मैं अकेली ही आगे बढ़ती गयी ।उच्चतर शिक्षा हासिल कर शिक्षिका बन गयी।नाम ,यश खूब कमाया पर पैसा न कमा सकी।यही कारण था कि भाई -बहनों से मेरी उस तरह नहीं बन पाई जैसी उनमें आपस में बनती थी।सभी घोर पारम्परिक ,पूजा -पाठ करने वाले ,अर्थ -केंद्रित थे और मैं आधुनिक और प्रगतिशील विचारधारा वाली शिक्षिका और लेखिका।हमारा मानसिक स्तर,सोच बिल्कुल अलग ।उनके जीवन में अमीरी का दिखावा,प्रदर्शन,बनावटीपन ज्यादा था।वे पैसे को ही सब कुछ समझते थे ,जबकि मैं भावना और विचार को।फिर भी मुझे उनसे बहुत लगाव था।मैं उनसे छछाकर मिलने जाती पर मेरे "नेह से चिकने चित्त पर वे रज-राजस" मल देते।मैं आहत होकर लौट आती।महीनों दुःखी रहती।अपनी कमियाँ ढूँढती रहती।एक दिन मेरे एक मित्र ने मुझे समझाया कि आप उन्हें भाई -बहन समझकर मिलने जाती हैं पर वे आपको सिर्फ रिश्तेदार समझते हैं और रिश्तों का आधार अब सिर्फ लेन- देन ,पैसा हो गया है।इस मापदंड पर खरी न उतरने से ही आपके साथ दुर्व्यवहार होता है।आपकी और उनकी दुनिया बिल्कुल अलग है।

मुझे नहीं पता था कि स्कूल जैसी पवित्र जगह पर भी जाति धर्म,क्षेत्र ,लिंग,उम्र ,सोर्स-सिफारिश के आधार पर भी निर्णय लिए जाते हैं।योग्यता,प्रतिभा,कार्यकुशलता पर ये चीजें भारी पड़ जाती हैं।मुझे विभिन्न स्कूलों में पढ़ाने का अनुभव है।हर स्कूल की अपनी कमियां और खूबियाँ थीं।

कहाँ क्या अनुभव मिला,कभी इस पर भी प्रकाश डालूँगी।

सबसे पहले इस स्कूल के बारे में बात करूंगी,जहाँ 16 वर्ष काम किया और रिटायर कर दी गयी।

वैसे तो अब तक के जितने भी स्कूलों में मैं रही,उसमें यह हर दृष्टि से बेहतर यह स्कूल था।सेलरी सरकारी तो नहीं पर अन्य स्कूलों के मुकाबले बेहतर थी।यहां अंदरूनी राजनीति भी नहीं थी।मेहनती और कार्यकुशल शिक्षकों का यहां सम्मान भी था।धर्म विशेष से जुड़ा होने के बावजूद यहाँ दूसरे धर्म को लेकर कोई पक्षपात नहीं किया जाता था,न ही अपने धार्मिक आयोजनों में जबरन शामिल किया जाता था ।किसी तरह का धार्मिक दबाव भी नहीं था,जैसा कि इस तरह के स्कूलों के बारे में अफवाहें होती हैं।कम से कम मैंने तो ऐसा कभी महसूस नहीं किया इसलिए मैं अपने उन मित्रों से लड़ जाती थी ,जो इस तरह की अफवाहों पर विश्वास करते हैं ।हो सकता है कि मैं ज्यादा नहीं जानती होऊँ।हो सकता है मैंने पठन- पाठन के अलावा अन्य किसी बात पर ध्यान ही नहीं दिया हो।या यह भी हो सकता मेरे सामने इस तरह की बातें नहीं की जाती हो क्योंकि मैं मीडिया से जुड़ी हूँ,यह बात सभी जानते थे।

पर इधर एक बात मैंने भी देखा और महसूस किया था कि क्षेत्रवाद यहाँ प्रचुरता से है।संस्था अपने क्षेत्र से अध्यापकों को बुलाकर ससम्मान रखती है और लोकल अध्यापकों से भेदभाव करती है।अपने क्षेत्र के अध्यापक को सीनियर क्लास देती है ताकि उसकी सेलरी हाईएस्ट हो ।उस टीचर की पत्नी को भी नौकरी दे देती है,चाहे उसकी योग्यता या शिक्षा कुछ भी हो।उनके बच्चों को भी मुफ्त शिक्षा देती है।उन्हें जीवन के सभी संसाधन मुहैया कराना,हाउस रेंट,कन्वेंस,वर्ष में दो बार अपने घर आने -जाने ले लिए हवाई टिकट ,अपने त्योहारों पर पूरे परिवार को भोज ,गिफ्ट और भी अन्य सुविधाएं सब दी जाती है।

लोकल अध्यापकों को इस तरह की कोई सुविधा नहीं दी जाती।उच्चतर शिक्षा प्राप्त को भी प्राइमरी कक्षा दे दी जाती है और जरा -सी गलती पर बाहर कर दिया जाता है।बात -बात पर इंसल्ट किया जाता है।उसकी औकात दिखाई जाती है।पर अपने क्षेत्र वालों के साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं किया जाता।पूरे स्कूल की बागडोर उसी क्षेत्र के लोग संभालते हैं ।सभी महत्वपूर्ण कार्य उनके ही जिम्मे होते हैं।एक क्षेत्र एक धर्म के होने के कारण वे ही विश्वसनीय समझे जाते हैं और संस्था से सम्बन्धी सारे सीक्रेट उन्हें पता होते हैं ।सभी का आपस में पारिवारिक सम्बन्ध होता है। लोकल क्षेत्र के शिक्षकों को वे हेय दृष्टि से देखते हैं,उनका मजाक बनाते हैं,उन्हें गरीब,बदहाल और भिखारी समझते हैं जैसे सभी उन पर आश्रित हो या उनके टुकड़ों पर पल रहे हों ।जिनका कोई वजूद न हो ,जो लालची और चरित्रहीन हों।

गलती इस क्षेत्र के लोगों की भी है क्योंकि इनमें एकता नहीं।सभी एक -दूसरे की ही जड़ खोदने में लगे रहते हैं।इधर के लोग उन लोगों की चापलूसी और खुशामद करके अपना ही भला करते रहना चाहते हैं ।उनकी इस कमजोरी

को वे लोग जानते हैं और इसका भरपूर फायदा उठाते हैं ।

उनके अपने क्षेत्र में गरीबी है, रोजगार के उतने साधन नहीं ।वेतन भी कम है,इसलिए इधर आकर वे नौकरी करते हैं और कुछ ही सालों में अपने क्षेत्र में बढ़िया घर,गाड़ी सब खरीद लेते हैं ।उनके घर के लोग खुशहाल जीवन जीने लगते हैं । अंग्रेजी जानने के कारण इधर के लोग उन्हें विशेष योग्य व शिक्षित मानते हैं ।इधर के लोग उन्हीं स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं,जिनमें उस विशेष क्षेत्र के लोग पढ़ाते हैं ।

कोविड 19 के बीच सत्र में ही उस क्षेत्र के कुछ नए टीचर्स को ज्वाइन कराकर पूरी सेलरी दी गयी और इस क्षेत्र के कई टीचर्स को निकाल दिया गया ,कुछ को रिटायर कर दिया गया ,शायद आर्थिक बैलेंस बनाने के लिए ये किया गया।इसी क्षेत्र की धरती पर उस क्षेत्र के लोग फल- फूल रहे और इधर के लोग रोजगार खोकर मारे -मारे फिर रहे।पर सवाल कौन उठाए?सवाल उठाने पर भी क्या होना है?वे कागज़ी रूप से सही रहते हैं।आर्थिक रूप से भी काफी मजबूत हैं ।सरकार को अच्छी- खासी रकम देते हैं ,इसलिए उनके ख़िलाफ़ कोई कुछ बोल भी नहीं सकता।सबको उनसे काम पड़ सकता है।सभी अपने बच्चों को उनके स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं।वे काले अंग्रेज हैं और अंग्रेजों की नीति पर चलकर इधर के लोगों को गुलाम बने रहने के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं ।

भाग नौ--

प्रधानाचार्य के शांत चेहरे, हँसती हुई आँखों और आकर्षक व्यक्तित्त्व के पीछे एक कुरूप और बदसूरत शख्स था।उनके श्वेत कपड़ों के भीतर एक काला दिल था। उनकी संत जैसी बातों में कोई सच्चाई नहीं थी।कहने को वे संन्यासी थे,पर संन्यासियों के कोई भी लक्षण उनमें नहीं थे। वे मांस का सेवन करते थे।अपनी टीम में वे या तो इस क्षेत्र के ऊर्जा से भरे हुए सुंदर युवा / युवतियों को रखते थे या फिर अपने क्षेत्र के युवा/ युवतियों को,जो सुंदर तो नहीं होते पर उनके अपने लोग होते। उन्हें उम्रदराज लोगों से चिढ़ -सी थी।वे हर जगह और हर चीज को सुंदर देखना चाहते थे।उन्होंने आते ही अपने विद्यालय का कायाकल्प कर दिया था ।आस -पास की जमीनें खरीदकर चारों तरफ इमारतें खड़ी कर दी थीं । पूरे परिसर का इस तरह सुंदरीकरण किया था कि वह शहर का नम्बर वन स्कूल बन गया था।स्कूल के मैदान में विदेशी घास लगवाए थे।गमलों में देशी- विदेशी फूलों की बहार थी। स्टेडियम,बैडमिंटन कोर्ट आदि का कोई जवाब ही नहीं था। बहुत ही ऊंची ,लिफ्ट युक्त चौथी फ्लोर तक की इमारत दूर से ही सबका ध्यान आकृष्ट करने में समर्थ थी।इस स्कूल में अपने बच्चों को एडमिशन दिलाने के ख़ातिर अभिभावको की कतार लगी रहती।

इस स्कूल को शहर का नामी स्कूल बनाने में इनकी बड़ी भूमिका थी पर चिराग तले अंधेरा भी कम नहीं होता,इस बात का पता मुझे बहुत बाद में चला।शुरू में जब वे आए थे ,मैं उनसे खासा प्रभावित हुई थी। वे हँसमुख,युवा,सुंदर ऊर्जावान और कर्मठ थे।उनसे मुझे बहुत प्रेरणा मिलती थी।विश्वास ही नहीं होता था कि इतनी कमउम्र में वे कई स्कूलों के प्रधानाध्यापक रहने के बाद यहां आए हैं।उन्हें निरन्तर काम करते देखकर मैं भी ऊर्जा से भर जाती थी।उनकी प्रेम की हद तक इज्जत करती थी।

कई वर्ष अच्छे से बीत गए।धीरे -धीरे उनकी कलई उतरने लगी ।लोग उनकी कमियां देखने लगे ,पर मैं तो उनकी अंधभक्त थी ।उनके लिए लड़ जाती।सभी जानते थे कि मैं उनकी बुराई नहीं सुन सकती।उनके साथ मेरा अनुभव अच्छा ही रहा था।कभी- कभार लगा भी कि वे कहीं -कहीं गलत कर रहे हैं,पर फिर सिर झटक देती कि नहीं वे गलत हो ही नहीं सकते।हालांकि जब उन्होंने कई योग्य टीचर्स को स्कूल से निकाल दिया,तो माथा ठनका कि इतना सुलझा हुआ आदमी ऐसा क्यों कर रहा है?तब पता चला कि वे कान के कच्चे हैं और उनके क्षेत्र के किसी टीचर ने इधर के किसी भी टीचर की बुराई अगर कर दी है,तो फिर उसे स्कूल से हटाना ही है।

मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। उनके देवत्व की कलई थोड़ी -थोड़ी उतरने लगी फिर दिखने लगा कि उनमें अभिमान क्रोध,ईर्ष्या, और बदले की भावना भी जरूरत से ज्यादा है।जिस पर भी वे नाराज हो जाते हैं ,उसको मटियामेट करने के लिए कमर कस लेते हैं।चाहें वह विद्यार्थी हो या शिक्षक या स्कूल का अन्य कोई कर्मचारी।अभिभावकों से भी उनका व्यवहार अच्छा नहीं था।चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के साथ तो गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं ।सुना तो यहां तक कि नाराज़ होने पर वे उन्हें गाली देते हैं और मारते भी हैं ।उन्हें सुबह से शाम तक काम में लगाए रहते है।छुट्टी के दिन भी उनकी छुट्टी नहीं होती।गुस्से में वे होंठों को विद्रूप करके इतने अभिमान से बोलते हैं मानो वे ही ईश्वर हैं और किसी को बनाना -बिगाड़ना उनके हाथ में है।विद्यालय के इधर के सभी शिक्षक कभी न कभी उनकी चपेट में आए थे और कहते थे कि वे उस समय बहुत बुरा व्यवहार करते हैं ।अपने आगे किसी की बात नहीं सुनते।सफाई का मौका तक नहीं देते ।अपनी ही बात ऊपर रखते हैं।एक बार जो सोच लेते हैं या निर्णय कर लेते हैं,उससे टस से मस नहीं होते। उम्र में बड़े,अनुभवी और उच्च- शिक्षित का भी मान नहीं रखते।सभी को एक ही लाठी से हांकते हैं ।यह सब सुनकर मैं फूंक -फूंककर कदम रखती ताकि ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े।

पर आखिरकार ऐसी स्थिति आ ही गयी और मुझे उनका वह रूप देखना पड़ गया ,जिसके बारे में अब तक सिर्फ सुना था।

भाग दस--

प्रधानाचार्य के असल रूप की बानगी कई बार देखने को मिली थी पर कहते हैं न कि जब तक अपने पैर बिवाई नहीं फटती तब तक बिवाई वाले पैरों के दर्द का अहसास नहीं होता।मैं सोचती थी कि वे संन्यासी हैं और जाति, धर्म ,क्षेत्रवाद, व्यक्तिगत सम्बन्धों और हर तरह के भेदभाव से बहुत ऊपर हैं पर बार -बार वे ऐसा कुछ कर जाते कि मन खिन्न हो जाता।फिर भी मैं कभी और कहीं भी उनकी बुराई नहीं करती।हमेशा उनके सकारात्मक पक्ष का ही जिक्र करती।इतने मुग्ध भाव से उनका जिक्र करती कि इधर के सहकर्मी कभी -कभी मुझसे नाराज़ भी हो जाते कि आपको वे हमेशा सही ही लगते हैं।मैं हँसते हुए दावा करती कि वे गलत हो ही नहीं सकते।उनके हर फैसले को सही कहती पर जब मेरे बारे में भी वे गलत फैसला लेने लगे ,तब लगा कि मैंने तो इन्हें देवता मान लिया था पर ये तो अच्छे इंसान भी नहीं है।अच्छा इंसान भेदभाव से ऊपर होता है।क्रोध में भी विवेक नहीं खोता।कान का कच्चा नहीं होता।

एक बार मैं 11 वीं कक्षा में राजेन्द्र यादव का उपन्यास 'सारा आकाश' पढ़ा रही थी।तभी मेरी नज़र कुछ लड़कों पर पड़ी ,जो आपस में अश्लील बातें कर रहे थे।मेरे कानों में उड़ता हुआ एक शब्द आया तो मैं तिलमिला उठी।जब इतनी दूर पर मुझे सुनाई पड़ गया तो आस- पास बैठी लड़कियों ने तो अवश्य सुना होगा।वे आपस में हँस-मुस्कुरा रही थीं,जैसे वे भी उनकी बातों को एंज्वॉय कर रही हों । आजकल बच्चे दसवीं पास करते ही शुरू हो जा रहे हैं।वैसे तो शुरूवात वे काफी पहले ही कर चुके होते हैं,पर कक्षा में या टीचर्स के सामने ऐसा करने से डरते हैं।पर ग्यारहवीं में आते ही उदण्ड हो जाते हैं।किसी से नहीं डरते।हिंदी के पीरियड को तो वे वैसे भी मनोरंजन का पीरियड मानते हैं ।क्लास में आते ही -"मिस आज मत पढ़ाइए,आज सिर्फ बातें करेंगे।कुछ आप बताइये कुछ हम लोग बताएंगे।" ऐसे में किसी तरह उनको मोड़कर पाठ पढ़ाना काफी मानसिक श्रम का काम होता था।ये तो विषय का अच्छा ज्ञान और पढ़ाने का लंबा अनुभव था कि उनके क्रॉस प्रश्नों का उत्तर मैं तत्काल दे देती थी।आकर्षक ढंग से पढ़ाने के कारण मेरा कोर्स समय से पूर्व पूर्ण भी हो जाता था और बच्चों को समझ में भी आ जाता था।पर इस क्लास को पढ़ाने में इतनी मानसिक शक्ति लगती थी कि उतने में दस अन्य कक्षाएं पढ़ा लूँ।

मेरे लिए बच्चे ग्यारहवीं कक्षा में पहुंचने के बाद भी बच्चे ही थे।मुझे बहुत बुरा लगा कि जिनके अभी दूध के दाँत भी नहीं टूटे,वे इस तरह की बातें कर रहे हैं।मैं उनके पास पहुँची तो वे चुप हो गए। मैंने उनके सरगना से पूछा -नोट्स बुक लाए हो।

-नहीं ,वह ढिठाई से बोला।

"किताब!"

--भूल गया!

मैंने उसे एक थप्पड़ मार दिया तो वह गुस्से से उठ खड़ा हुआ --आपने मारा क्यों ?मारना स्कूल में एलाऊ नहीं है।

"और स्कूल में किताब कॉपी लेकर आना भी एलाऊ नहीं है?"

--भूल गया तो क्या करें?

"रोज का तुम्हारा यही काम है।स्कूल सिर्फ बातें करने आते हो ?"

उसके साथी भी उठ गए थे और बक- चख कर रहे थे।लड़कियों की भवें भी तनी थीं यानी किसी को भी मेरा हाथ उठाना पसन्द नहीं आया था।

मैं डर गई कि कहीं ये मेरी शिकायत प्रिंसिपल से न कर दें। आखिर मेरा डर सही साबित हुआ ।पूरी क्लास ने जाकर मेरी शिकायत की।उस समय तो प्रिंसिपल ने उन्हें यह कहकर भेज दिया कि मदरली मारा होगा और मुझे बुलाया भी नहीं क्योंकि उन्हें तत्काल एक सप्ताह के लिए बाहर जाना था।मैंने सोचा विपदा टली।पर उसके बाद उनके लौटने तक क्लास में बच्चों ने खूब बदतमीजियां की ।मेरा अभिवादन तो दूर था।मेरी कक्षा में आपस में खूब बातें करते,खाना खाते,जब चाहे कक्षा में आते और निकल जाते।लड़के और लड़कियां सभी ने किसी भी मर्यादा और अनुशासन का ध्यान नहीं रखा।सभी विद्रोह पर उतारू थे।एक दिन परेशान होकर मैं स्कूल इन्चार्ज और क्लास टीचर के पास गई तो उन लोगों ने बड़े अनमने ढंग से बात की।लगा कि बच्चों ने उन्हें भी अपने घेरे में ले लिया है।मैंने उन्हें इशारा भी किया कि लड़के लड़कियां क्लास में इश्कबाजी कर रहे हैं,एक दूसरे का हाथ पकड़कर बैठते हैं।यहां तक कि अश्लील बातें करते हैं।पर ऐसा लगा कि ये सब उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं ।बच्चों की उम्र ही ऐसी है बस मुझे उन पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था।

मैं सोच रही थी क्या अपना बच्चा इस तरह की हरकत करता तो माँ उसे दंड नहीं देती।इग्नोर कर देती कि जो चाहे करो।कहा जाता है कि टीचर को बच्चों से मदरली व्यवहार करना चाहिए प्यार के साथ नसीहत भी ...।पर यहां तो प्रोफेशनली ट्रीटमेंट है।

बच्चों के फेवर में सरकारी कानून क्या बने ,वे तो उदण्ड होते जा रहे हैं ?शिक्षक से न लगाव है न लज्जा है न डर।यही चीजें तो छात्र को अनुशासित करती हैं ।

बच्चों को दंड देने के मैं भी ख़िलाफ़ हूँ|उनसे प्यार भी बहुत करती हूँ।इसी अधिकार भावना से यह गलती मुझसे हो गयी थी।बहुत मुश्किल से मैंने उन बच्चों का हृदय परिवर्तन किया।अपनी सारी लेखकीय प्रतिभा उन पर खर्च कर दी।वे फिर से सामान्य हो गए और मैं उनकी फेवरेट टीचर बन गयी।आज वे ही बच्चे स्कूल पास कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रयासरत हैं और मुझसे बराबर परामर्श लेते हैं ।मेरे घर आते -जाते हैं ।यहां तक कि अपना व्यक्तिगत भी शेयर करते हैं कि किस लड़की से ब्रेकअप हुआ... किससे रिश्ते में हैं ?अपनी सारी बातें बताते हैं।उन्हें जब भी देखती हूँ पुरानी बातें याद आ जाती हैं।वे तो किशोर उम्र के बच्चे थे,उन्हें क्षमा किया जा सकता था।किया भी पर उस घटना पर प्रिंसिपल का रिएक्शन आज तक नहीं भूल पाई हूँ।

बाहर से लौटते ही उन्होंने मुझे ऑफिस में बुला लिया...।

उन्होंने मुझसे पूछा ---क्या हुआ था उस दिन?

मैं समझ नहीँ पाई कि वे किस संदर्भ में पूछ रहे हैं?

-किस दिन?

"एक सप्ताह पहले....." वे गुस्से में दिख रहे थे।गुस्से में उनकी आंखें लाल हो जाती थीं और होंठ टेढ़े ।वे दाँत पीसकर बोलने लगते थे।आवाज भी सख्त हो जाती थी।ऐसा मैंने अब तक सुना था,आज सामने देख रही थी।

मैंने सहजता से बताया कि बच्चे क्लास डिस्टर्ब कर रहे थे किताब/ कॉपी भी नहीं लाए थे इसलिए मैंने उनके सरगना को एक चांटा जड़ दिया था।

वे गुस्से से बोले--"किताब कॉपी नहीं लाएंगे तो मारेगा।किसने आपको ये पावर दिया?सुना बच्चों ने आपको घेर लिया था।वे हाथ भी उठा सकते थे।अकेले आती -जाती हैं रास्ते में कोई बदतमीजी कर सकते थे। ये आपके और हमारे जमाने के बच्चे नहीं हैं जो गुरू की मार को प्रसाद समझते थे।आपको गुस्सा बहुत आता है।कई शिकायत मिल चुकी है।पिछले साल एक पैरेंट्स भी आए थे शिकायत लेकर।आप क्लास में बच्चों को इंसल्ट करती हैं ।ग्रोनअप करते बच्चों का ईगो बड़ा हो जाता है।उनको टीचर की किसी भी बात से नहीं लगना चाहिए कि उनका अपमान किया जा रहा है। वे पढ़े न पढ़े ,किताब/ कॉपी लाए न लाएं ,उनपर हाथ उठाने का आपको कोई हक नहीं ।आजकल सब कुछ प्रोफेशनल है।टीचिंग भी।"

और भी बहुत कुछ उन्होंने कहा ।वे सामने वाले को बोलने का अवसर ही नहीं देते हैं ।जवाब देने पर और भी नाराज़ हो जाते हैं,इसलिए मैं देर तक चुप सुनती रही।

बस एक बात कही कि--आप सी टी फुटेज से देख लीजिए उस दिन क्लास में क्या हुआ था? मैं बच्चों को बहुत प्यार करती हूँ और अब तो सब ठीक हो चुका है।आप शिकायत करने वाले बच्चों से आज पूछे ,वे कोई शिकायत नहीं करेंगे उन्हें अपनी गलती समझ में आ गयी है।

मेरी बात पर वे और भड़क गए--मुझे कुछ नहीं सुनना/समझना बस आप गुस्सा करता है।अपशब्द भी कहता है इंसल्ट भी करता है।एक दो नहीं कई शिकायत है

और कई क्लासों की है।

उनकी हिंदी ग्रामर दोषों से भरी होती है पर वे मुझसे हिंदी में ही बात करते हैं।बाकी टीचर्स से एक शब्द भी हिंदी नहीं बोलते ।

मैं समझ गई कि खूब अच्छी तरह उनके कान भरे गए हैं और वे कान के कच्चे तो हैं ही।ग्यारहवीं का क्लास टीचर उन्हीं के क्षेत्र का और उनका मुँहलगा खास टीचर था और मुझसे जलता भी था।बच्चों को उसने आवश्यकता से अधिक छूट दे रखी थी,इस तरीके से वह अपने विषय की अल्पज्ञता को छिपा लेता था।बच्चे उसकी शिकायत भी नहीं करते थे क्योंकि वे भी जानते थे कि उसकी शिकायत सुनी नहीं जाएगी उल्टे उनका नुकसान हो जाएगा।

आजकल के बच्चे भी अपना भला नुकसान समझते हैं और अवसर के अनुकूल आचरण करते हैं ।सच है कि आजकल की शिक्षा उन्हें प्रेक्टिकल और प्रोफेशनल बना रही है ।

मैं जान गई थी कि अपनी सफाई देने का कोई मतलब नहीं है।वे उतना ही समझते हैं ,जितना समझना चाहते हैं।उनका ईगो इतना बड़ा है कि प्रतिपक्षी द्वारा सफाई देने पर तिलमिला जाता है।

तो फिर समझदारी इसी में है कि सॉरी बोलकर उनके सामने से हट जाया जाए।उनके हाथ में पावर है और नौकरी मेरी जरूरत।गरजू तो मैं हूँ इसलिए मुझे ही ज़ब्त कर लेना होगा। मैंने सॉरी कहा और भविष्य में ध्यान रखने को भी कह दिया, फिर भी वे जैसे मुझे छोड़ने के मूड में नहीं दिखे।मुझे लगा कि वे मेरी सहनशक्ति की परीक्षा ले रहे हैं या फिर मुझे उकसा रहे हैं ताकि मैं रिएक्ट करूँ और मुझे नौकरी से निकाल देने का उन्हें बहाना मिल जाए।उन्होंने कहा कि सैकड़ों एप्लिकेशन पड़े हुए हैं आपके विषय के लिए ।अगर आपका यही रवैया रहा तो मैं मजबूर हो जाऊँगा।मैं सोच रही थी कि ये कितने अभिमानी हैं इस तरह बात कर रहे हैं जैसे भाग्य विधाता हों।

संयोग से उसी समय उनके लिए जरूरी कॉल आ गयी और उन्होंने यह कहकर जाने को कह दिया कि फिर बुलाऊँगा।

खैर उन्होंने फिर उस बावत मुझे नहीं बुलाया पर उनकी बातें कभी भूली नहीं।नौकरी करना अपने सेल्फ रेस्पेक्ट को ताक पर रखना होता है क्या?

क्रोध और अपमान से मैं तिलमिलाती रहती पर उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती थी।नौकरी छोड़ना भी मुश्किल था ।अपनी मजबूरी का अहसास ईश्वर से फरियाद करके और आँसू बहा कर संतोष पा लेता था।

लेकिन आह का असर होता है ।एक सप्ताह बाद ही स्कूल में एक कार्यक्रम था।वे ही बच्चे कुछ ऐसी अनुशासन -हीनता कर रहे थे कि वे छड़ी लेकर उनकी तरफ दौड़े और उन्हें चांटे जड़ दिए।फिर पूरे एक महीने के लिए उन्हें स्कूल न आने की नोटिस दे दी।मेरा जी चाहा कि उनसे पूछूँ कि आपको गुस्सा क्यों आया ?आप तो संन्यासी हैं!

पर मैं यह नहीं पूछ सकती थी ।हालाँकि उन्हें मुझे डांटने का अफसोस है,इस बात का पता चल गया था।दूसरे ही दिन प्रार्थना के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि कुछ छात्र अपने टीचर्स के साथ मिस बिहैब करते हैं ,यह बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।हमारे टीचर्स वेल-एजुकेटेड और परफेक्ट टीचर हैं।बच्चे ही अनुशासनहीन होते जा रहे हैं!

उनकी इस बात से मन को संतोष हुआ।

भाग ग्यारह--

उस वर्ष स्कूल का सिल्वर जुबली था।भव्य कार्यक्रम का आयोजन होना था।नृत्य,गायन और अन्य रंगारंग कार्यक्रम के साथ नाटक भी होना था।हमेशा की तरह नाटक कराने की जिम्मेदारी मुझ पर थी।नृत्य तो इंटरनेट की मदद से सिखा देना आसान था।गायन के लिए संगीत टीचर थे पर नाटक के लिए अकेली मैं।स्क्रिप्ट लिखने से लेकर ड्रेस डिजाइन करने,नाट्य सामग्रियाँ जुटाने,स्टेज मैनेजमेंट करने के अलावा बच्चों को अभिनय सिखाने की जिम्मेदारी मुझ पर होती थी।सहयोग के लिए जो टीचर दिए जाते उनसे सहयोग से ज्यादा अड़चन ही मिलती।नाटक कराने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ती थी क्योंकि परफेक्शन मेरी कमजोरी है।किसी भी चीज़ पर कोई अंगुली न धरे।छोटे बच्चों को अभिनय सिखाना वैसे भी आसान भी नहीं होता क्योंकि वे मूडी होते हैं।दिक्कत ये भी होती है कि उन्हें इसके लिए स्कूलऔर ट्यूशन के अतिरिक्त समय निकालना होता है।सुबह -सुबह आधा -अधूरा नाश्ता करके वे स्कूल आते हैं।कुछ कामचोर माताएं उनके टिफिन में भी पौष्टिक चीजें नहीं रखतीं।कुछ तो टिफिन ही नहीं देतीं या फिर बच्चे ही नहीं लाते।जबसे स्लिम होने का फैशन चला है बच्चे खाने -पीने में कंजूसी करते हैं ।खैर मैं बच्चों को रिहर्सल के दिनों में डबल टिफिन लाने को कहती।स्कूल के बाद रूके बिना प्रैक्टिस नहीं हो सकती थी।छुट्टियों में भी उन्हें बुलाना पड़ता।जिसके लिए कभी बच्चे गुस्सा करते कभी अभिभावक।कुछ अभिभावक तो इसी बात पर लड़ने आ जाते कि उनके बच्चे को नाटक में क्यों रखा?वे स्कूल पढ़ने को भेजते हैं नौटंकी करने नहीं ।पर वे ही अभिभावक जब नाटक में उनको अभिनय करते देखते तो गर्व से फूल जाते।पात्र चुनने में मैं एक्सपर्ट थी।पढ़ाने के दौरान ही मैं देखती रहती थी कि कौन- सा बच्चा किस पात्र के उपयुक्त होगा।रीडिंग लगवाते समय उनकी डायलाग डिलीवरी के बारे में भी जान लेती थी।मेरे पात्र चयन,ड्रेसिंग सेंस और डायलागों का सभी लोहा मानते थे।अक्सर मैं बड़े लेखको की उन कहानियों को नाटक में रूपांतरित करती थी,जो बच्चों के पाठ्यक्रम में भी होते थे,इससे दुहरा लाभ होता था।बच्चों का पाठ भी तैयार हो जाता था और वे अभिनय कला भी सीखते थे।अपने कार्यकाल में दौरान मैंने सैकड़ों नाटक कराए और सभी सुपर डुपर हिट हुए ,पर इसके लिए मुझे बहुत कुछ झेलना भी पड़ता था।

स्कूल में कई हॉल के बावजूद नाटक रिहर्सल के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिलती थी।हर जगह नृत्य वाले ही भरे रहते।उन्हें ज्यादा समय व ज्यादा महत्व भी दिया जाता था।हिंदी नाटक वाले हमेशा उपेक्षित रहते इसलिए कभी लाइब्रेरी,कभी स्कूल मैदान ,कभी किसी छोटे खाली रूम में उनकी प्रैक्टिस कराती।आखिरी कुछ दिनों में तो अपने क्लास में ही प्रेक्टिस करा लेती,क्योंकि क्लास भी नहीं छोड़ना था और तैयारी भी करानी थी।क्लास में बच्चों के सामने प्रेक्टिस कराने से एक फायदा यह होता था कि बच्चों की झिझक खत्म हो जाती थी और गलत का करेक्शन भी हो जाता था।मैं बच्चों की पढ़ाई का कोई नुकसान नहीं होने देती थी क्योंकि कोर्स पहले ही पूरा करा देती थी।

एक बात मैं पूरी ईमानदारी से स्वीकार करती हूँ कि मेरे नाटकों की सफलता के पीछे बच्चों का बड़ा हाथ था।वे मुझसे भावनात्मक रूप से जुड़े रहते और पूरा सहयोग करते। बाकी अपने सहकर्मियों से मुझे असहयोग ही मिलता था।वे जानते थे कि हर बार नाटक ही सारे कार्यक्रमों पर भारी पड़ जाता है,इसलिए वे अड़चनें डालने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते थे।

सिल्वर जुबली के अवसर पर भी ऐसा ही हुआ था....

नाटक की थीम कन्या -भ्रूण हत्या पर केंद्रित थी।स्क्रिप्ट शानदार थी। आदिवासी और शहरी संस्कृतियों में बेटी की स्थिति भी दिखानी थी और गर्भ में कन्या -भ्रूण की फरियाद भी।चूँकि कार्यक्रम काफी भव्य होना था,इसलिए इस बार नाटक के पात्रों के डायलॉग स्टूडियों में पहले से ही रिकार्ड कराए गए थे।इसमें कई जगह मैंने भी आवाज़ दी थी ।नाटक करीबन सेट हो गया था ।तभी टीचर्स की एक टीम बनाई गई,जो रिहर्सल को देखकर उसे बेहतर बनाने के सुझाव देता था।टीम में ज्यादातर अहिन्दी भाषी ही थे।वे हिंदी ठीक से समझ नहीं पाते थे पर नाटक को खराब करने पर आमादा रहते थे।उन लोगों ने पहले स्क्रिप्ट को बदलने को कहा, उसे काट -छांटकर खराब कराना चाहा!फिर उसे 20 से 15 फिर 10 मिनट का कर देने को कहा,जबकि कई बकवास कार्यक्रम को अधिक समय दे रहे थे।सबसे खराब तो तब लगा ,जब उन लोगों ने उस विशेष सीन को ही निकाल देने को कहा,जो नाटक का उत्स था।मैं परेशान होकर प्रिंसिपल के पास शिकायत लेकर गई तो पता चला कि वे लोग मेरी शिकायत पहले ही कर चुके हैं कि मैं उन लोगों की बात नहीं मान रही।प्रिंसिपल के अपने क्षेत्र के लोग थे वे ,इसलिए उनकी बात पर उन्हें ज्यादा विश्वास था ।उन्होंने कहा-सिर्फ आपका नाटक ही नहीं है और भी बहुत सारे कार्यक्रम है ।इसलिए नाटक दस मिनट से अधिक नहीं होना चाहिए।छोटा कर दीजिए।मैंने कहा पर वे लोग उस विशेष सीन को ही हटा रहे हैं,जो नाटक के उद्देश्य को स्पष्ट करती है।

उन्होंने कहा --देख लीजिए,जितना हो सके हटा दीजिए।

मुझे बहुत दुःख हुआ कि वे मेरी बात सुन ही नहीं रहे।जी चाहा कि नाटक से अलग हो जाऊं,पर यह तो और भी बुरा माना जाता।खैर किसी तरह सब मैनेज किया।उन लोगों की खुशामद करके नाटक को खराब होने से बचाया।हास्य-विनोद,ट्रेजडी और महत्वपूर्ण संदेश देने वाले उस नाटक को बच्चों के बेहतरीन अभिनय ने जीवंत कर दिया।और एक बार फिर मेरा नाटक ही नम्बर वन रहा।मुख्य अतिथि ने विशेष रूप से उसकी प्रशंसा की ।अखबारों ने उसे ही प्रमुखता से छापा।चारों ओर मेरी प्रशंसा हुई पर एक बार भी प्रधानाचार्य ने मुझे शाबासी नहीं दी।संशोधक टीम ने यह जरूर कहा कि उनके संशोधन के कारण ही नाटक सफल हुआ।मुझे इसी बात की खुशी थी कि मेरा परिश्रम व्यर्थ नहीं गया।

पर उसके बाद लंबे समय तक मुझे नाटक की जिम्मेदारी नहीं दी गयी,क्योंकि मेरे खिलाफ प्रधानाचार्य के कान भर दिए गए थे।अब अहिन्दी भाषियों को हिंदी नाटक कराने को कहा जाता था।उन लोगों ने नाटक के बीच फिल्मी गाने डालकर ऐसे- ऐसे नाटक कराए कि तमाशा ही बन गया।सामने सभी ने उनकी तारीफ़ की पर पीठ पीछे सभी यह स्वीकारते रहे कि मेरे जैसा नाटक कोई नहीँ करा सकता।

हद तो तब हुई जब इन्टरस्कूल नाट्य प्रतियोगिता में भी उन्हीं लोगों को जिम्मेदारी दी गयी,जबकि इस प्रतियोगिता में बाहर के स्कूली बच्चे भी शामिल होते थे।जबरदस्त प्रतियोगिता होती थी।उन लोगों ने अपने क्षेत्र के एक नाटक को हिंदी में रूपांतरित कराया और प्रेक्टिस कराने लगे।पात्र उन्हीं बच्चों को चुना,जो मेरे द्वारा मांजे गए कलाकार थे।बच्चे परेशान थे क्योंकि व्याकरण दोषों से भरी हुई और कहानी रहित स्क्रिप्ट उनकी समझ से बाहर थी।वे परेशान होकर मेरे पास आए कि आप सिखाइए ,पर मैंने उनके काम में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा।वे लोग जब समझ गए कि स्क्रिप्ट में ग्रामर दोष है तो मुझे उसे ठीक करने को कहा।मैंने कर भी दिया पर नाटक की शुरूवात देखकर हँसी आ गयी।मैंने उनसे कहा कि नाटक की शुरूवात ऐसे नहीं होती ,तो उन लोगों ने मेरे ऊपर यह जिम्मेदारी भी डाल दी।मैंने उसकी काव्यात्मक शुरूवात करा दी।बाकी कहानी उन लोगों के अपने हिसाब से परफेक्ट थी,इसलिए मैंने भी कुछ नहीं कहा।खूब पैसा खर्च करके नाटक के उपकरण तैयार किए गए ,जबकि मैं बहुत कम खर्च में नाटक कराती थी। एक दिन मैंने रिहर्सल देखा तो चौंक पड़ी।उन लोगों ने डायलॉग रिकार्ड कराया था और नाटक के बीच गाने भी डाले थे। मैंने उन्हें समझाया कि प्रतियोगिता में रिकार्डेड आवाज या फिल्मी गाने नहीं डाल सकते।पात्रों के डायलाग बोलने की कला पर भी नम्बर होते हैं।स्टेज के अनुशासन का भी ध्यान जरुरी है।पात्रों की पीठ दर्शकों के सामने नहीं होनी चाहिए,न स्टेज देर तक खाली रहना चाहिए।माइक के सामने ही डायलॉग बोलना जरूरी है,पर उन लोगों ने मेरी किसी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया।उनके पहले मैं कई बार बच्चों को लेकर इस तरह की प्रतियोगिताओं में गयी थी और उन्हें जिताकर लाई थी।मुझे पता था कि किस -किस बात पर नम्बर कट जाते हैं।नाट्य क्षेत्र के मशहूर लोगों से मेरा परिचय था,इसलिए भी बहुत -कुछ मुझे पता था।पर मेरे अनुभव का लाभ वे लेना नहीं चाहते थे ।अपने ऊपर कुछ ज़्यादा ही भरोसा था उन लोगों को।

परिणाम वही हुआ,जो मुझे पहले से पता था।नाटक सुपर फ्लॉप हुआ था।वे हँसी के पात्र बन गए,पर उन्हें कुछ नहीं कहा गया।उन लोगों ने सारा दोष बच्चों पर डाल दिया कि वे स्टेज पर जाकर डायलॉग्स भूल गए थे और माइक का ध्यान नहीं रखा था।

बच्चों को डायलॉग्स ऐसे ही थोड़े याद हो जाते हैं,उसके लिए मशक्कत करनी पड़ती है।उन्हें पात्र में ढालना पड़ता है।उनके साथ लगना पड़ता है।

अपने बच्चों की असफलता से मन दुःखी हुआ।वे भी सबसे डाँट खाकर उदास थे।मैंने उनका मनोबल यह कहकर बढाया कि अगली बार हम मिलकर कुछ अच्छा करेंगे।

उन टीचर्स के लिए भी अफसोस हुआ कि मुझे सबक सिखाने की कोशिश उनके लिए सबक बन गयी।वे मुझे दिखाना चाहते थे कि मेरे बिना भी नाटक हो सकता है।पर यह नहीं देख पाए कि विषय ज्ञान ,अध्ययन ,अनुभव और परिश्रम के बिना ऐसा नहीं किया जा सकता।

स्कूल में छोटी -छोटी ऐसी कई बातें होती थीं ,जिनके निहितार्थ बड़े थे ।अक्सर आर्थिक लाभ मिलने वाला कार्य मुझसे नहीं कराया जाता था।जैसे बोर्ड परीक्षाओं में मेरी ड्यूटी नहीं लगाई जाती थी और बोर्ड की उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के लिए मुझे नहीं भेजा जाता था।इसके अलावा स्कूल के किसी भी कार्यक्रम का संचालक मुझे नहीं बनाया जाता था पर पढ़ाने के अलावा अन्य बेगार खूब लिया जाता था।मैं सब कुछ देखती- समझती थी पर चुप ही रहती थी।कुछ कहने का कोई मतलब नहीं था।हिंदी टीचर्स चयन बोर्ड में मेरा नाम था ।उसके लिए स्कूल टाइम के बाद घण्टों रूकना पड़ता था और मेहनताने में सिर्फ साधारण खाना खिला दिया जाता था।बोर्ड परीक्षाओं में कई बार मेरे बच्चों ने हिंदी में 100/100 लाकर रिकार्ड बनाया ,पर एक बार भी इसका जिक्र नहीं किया गया।जबकि अंग्रेजी के टीचर्स को 80/100 पर भी बधाई दी जाती थी ,क्योंकि अंग्रेजी उनके अपने क्षेत्र के लोग पढ़ाते थे। मेरे स्कूल में आने से पूर्व हिंदी का स्तर काफी गिरा हुआ था।अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में वैसे ही हिंदी उपेक्षित रहती है।तब बोर्ड में बच्चों को 80/100 से ज्यादा मुश्किल से ही मिलता था।

स्कूल में ऐसी बहुत -सी अन्यायपूर्ण बातें होती रहती थी और मैं 'मूंदहूँ आँख कतहूँ कछू नाहिं' सोचकर खुश रहती थी।

पर हद तो तब हुई जब जुमा- जुमा दो साल पहले नियुक्त हुए हिंदी के टीचर को हिंदी का हेड बना दिया गया।उसका चयन मैंने ही किया था और जो अभी हिंदी विषय में कच्चा था ।जो हर बात में मेरी नकल करता था।व्याकरण ज्ञान तो उसका बहुत ही कम था ।मेरे क्लास के बच्चों से मेरे द्वारा मेहनत से लिखाए नोट्स लेकर वह अपने बच्चों को लिखवा देता था।हेड बनने के बाद भी वह मेरी मदद से ही कठिन काम करता था।पर उसमें एक अच्छी बात ये थी कि वह काम निकालने में उस्ताद था।जब भी जरूरत होती मुझसे जानकारी ले लेता और सबके सामने उसे अपनी बनाकर प्रस्तुत कर देता।वह मुझसे कहता कि आप अभी स्कूल से मत जाइयेगा, अभी बहुत कुछ सीखना है आपसे।अभी आपकी यहाँ बहुत जरूरत है।पर मन से यही चाहता था कि मैं चली जाऊँ ताकि वह मेरी जगह ले सके।उसे अभी तक हाईस्कूल तक के ही क्लास मिले थे,इण्टरमीडिएट के क्लास अभी मेरे अलावा एक अन्य टीचर के ही पास थे।अन्य हिंदी टीचरों से उसे कोई खतरा नहीं था ,पर मेरी प्रतिभा से डरता था।जबकि डरने की कोई बात नहीं थी क्योंकि वह प्रधानाचार्य के क्षेत्र के टीचरों से मित्रता गांठकर उनका भी प्रिय बन चुका था।धीरे -धीरे उसे मेरी बोर्ड की कक्षाएं भी दी जा रही थीं ।वह बोर्ड में उत्तर- पुस्तिकाएं जांचने के लिए भी जाने लगा।मैं चुप रही क्योंकि स्कूल के नियमानुसार मेरा रिटायरमेंट करीब था । माँ- बाबूजी की असावधानी के कारण मेरी जन्मतिथि कई वर्ष ज्यादा मेंशन थी ।स्कूल बाकी चीजों में सरकारी स्कूलों की नियमावली दिखाता ,पर सेलरी और अन्य सुविधाएं देते समय नहीं ।रिटायरमेंट भी जल्दी कर देता था।50 के बाद शिक्षक की कार्य- क्षमता कम हो जाती है,इसलिए उसे रिटायर कर देना चाहिए ।स्कूल की यही मानसिकता थी जबकि रिटायरमेंट के बाद पेंशन की व्यवस्था भी नहीं थी और ग्रेच्यूटी नाममात्र ही दी जाती थी।होता यही रहा था कि 50 पार होते ही टीचर स्वयं भाग खड़े होते थे क्योंकि कोई न कोई बीमारी उन्हें घेर लेती थी। स्कूल से उन्हें कोई स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलती थीं ।और कार्य की मात्रा कम करने के बजाय बढ़ा दी जाती थी। मैं इन सारी बाधाओं को पारकर कागजी रिटायरमेंट तक पहुंच रही थी।पूर्ण स्वस्थ,नियमित ,कार्यकुशल और एनर्जिक थी।अपने-आप से स्कूल छोड़ने वालों में तो कतई नहीं थी।शायद इसीलिए भेद- भाव का शिकार हो रही थी ।

स्कूल में सभी हिंदी टीचर के रूप में मेरा ही नाम लेते ,यह हेड को अच्छा नहीं लगता था।इसलिए कई बार हेड होने का धौंस देकर मुझ पर हावी होने की कोशिश करता।अपने हिसाब से बच्चों को पढ़ाने और उत्तर पुस्तिकाएं जाँच करने को कहता।उस समय मैं उसके मुँह को देखती रह जाती कि इसी को कहते हैं 'मेरी बिल्ली मुझी को माऊ'।बच्चों को पढ़ाने का हमेशा से मेरा एक अलग तरीका रहा ।निबन्ध के लिए नए -नए विषयों पर कक्षा में चर्चा करवाती ताकि बच्चों के अपने विचार बन सकें और वे रट्टा मारकर नहीं खुद लिखना सीखें।मैं उन्हें हँसते- खिलाते ,मनोरंजक ढंग से पढ़ाती रही ।पाठ से सम्बंधित तमाम कहानियां सुनाती ।साहित्य से उनका रिश्ता जोड़ने की कोशिश करती ,जो कि आज के इंटरनेट- समय में कठिन होता जा रहा है।बच्चे मेरी कक्षा का इंतज़ार करते।जिनकी कक्षाओं में मैं नहीं पढ़ाती ,वे बच्चे भी मुझसे पढ़ाने का रिक्वेस्ट करते।मैं हमेशा से बच्चों की फेवरेट टीचर रही हूँ।जो बच्चे स्कूली शिक्षा पूरी करके चले भी गए ,वे भी सोशल मीडिया पर मुझसे जुड़े हुए हैं और मुझे सम्मान देते हैं ।बच्चों के मामले में मैं हमेशा से लकी रही हूँ।जो बच्चे थोड़े शरारती थे वो भी मुझे आदर देते थे। कई बार तो ऐसा हुआ कि उनकी शरारत पर मैंने उन्हें सज़ा दी ।बाद में उन्हें समझाया कि वे ऐसा क्यों करते हैं कि सजा दूं तो वे हँसते हुए बोले --'सज़ा देती हैं तो क्या हुआ प्यार भी तो बहुत करती हैं ।' एकाध केस छोड़ दूँ तो न तो कभी बच्चों की शिकायत मैंने प्रधानाचार्य से की ,न वे मेरी शिकायत लेकर उनके पास गए।बहुत सामंजस्य रहा बच्चों और मेरे बीच और शिक्षिका रूप में यही मेरी उपलब्धि रही ।ही मेरी थाती है।

भाग बारह--

हर स्कूल के अपने प्लस माईनस होते हैं ।मेरे इस स्कूल के भी रहे।विशाल ,भव्य और खूबसूरत यह स्कूल मेरे अब तक के स्कूलों में सर्वोत्तम था।ज़िन्दगी के सोलह वर्ष इसमें कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला।इससे अलग हुए अभी एक माह भी नहीं गुजरा कि ऐसा लग रहा है कि जिन्दगी थम -सी गयी है,सरकती ही नहीं।लोग दूसरा स्कूल ज्वाइन करने की सलाह दे रहे हैं,पर मन नहीं मानता।फिर नए सिरे से नए स्कूल को झेलना कठिन लग रहा है। दूसरा कोई काम कर भी नहीं सकती।व्यापारिक बुद्धि है नहीं कि कोई व्यापार करूँ।लिखना- पढ़ना आता है।साहित्य से जुड़ी हूँ ।कई किताबें छप चुकी हैं पर प्रकाशक रॉयल्टी खुद खा जाते हैं ।अपनी ही किताब को पैसे देकर खरीदना पड़ता है।पाठक खरीदकर नहीं लेखक से मुफ़्त में किताबें लेकर पढ़ना चाहते हैं ।अपने किताबों की मार्केटिंग करने नहीं आती।चतुर- चालाक लोगों से भरी इस दुनिया में मुझ जैसे सीधे -सच्चे लोग कहाँ जाएं?

रिश्ते- नातेदार भी स्वार्थ के वशीभूत होकर ही साथ देते हैं और मुझसे भला किसी का क्या स्वार्थ सिद्ध होगा?जिंदगी भर की कमाई से एक छोटा- सा घर बना पाई हूँ।सबकी नज़र इस पर है कि मेरे बाद कौन उसका उत्तराधिकारी होगा?किसी को यह चिंता नहीं कि अभी तो जाने कितनी बड़ी जिंदगी पड़ी है,गुजारा कैसे होगा? सभी को लगता है अकेले कमाया -खाया है तो काफी बैंक -बैलेंस होगा।इसका उत्तर तो प्राइवेट स्कूल का कोई टीचर ही दे सकता है कि ईमानदार कमाई से वह कितना अमीर हुआ है।

सारी उलझनों से मुक्ति का उपाय था स्कूल ,जो आर्थिक सुरक्षा तो देता ही था,अन्य सारी सुरक्षाएँ भी उसी के कारण मिल जाती थीं ।अभी कुछ वर्ष आराम से वहाँ काम कर सकती थी,पर स्कूल प्रशासन ने मेरी स्थिति पर विचार किए बिना मुझे मुक्त कर दिया ।मैं कुछ कह न सकूँ इसलिए साथ में मेरी हमउम्र कई अन्य टीचरों को भी मुक्त कर दिया गया।उनके धर्म के टीचर भी उसमें शामिल थे ,पर सभी मेरे ही क्षेत्र के थे,उनके क्षेत्र के नहीं ।

हो सकता है यही उनकी संस्था का निर्णय हो।हो सकता है इसमें कोई भेदभाव न किया गया हो।हो सकता है प्रधानाचार्य भी मजबूर हों।हो सकता है सारे प्राइवेट स्कूलों का यही हाल हो।हो सकता है कोविड 19 के कारण ही यह कहर बरपा हो।

पर यह अन्यायपूर्ण तो है ही कि जीवन -भर सेवा करने वाले को उम्र ढलते ही खाली हाथ सड़क पर खड़ा कर दिया जाए कि बाकी का रास्ता अकेले तय करो।हमें तुम्हारे भविष्य के बारे में सोचने की जरूरत नहीं ।विद्यालय को अच्छा परिवार कैसे मानें ,जब वह भी अपने बड़े -बुजुर्गों को परिवार से अलग कर देता है?

यह कैसा मानवीय धर्म है जो दूधारू पशुओं की तो पूजा करता है,पर उसके बांझ और बूढ़े होते ही सड़क पर लावारिस छोड़ देता है?किस दया,त्याग और मानवता की बात करते हैं वे लोग,जो कि मानवीय गुणों से शून्य हैं।ऐसी शिक्षण -संस्थाओं से किस तरह की शिक्षा ग्रहण करेंगे बच्चे?अपने भविष्य के लिए चिंतित अध्यापक बच्चों में किस तरह के मानवीय गुण विकसित कर पाएँगे !

क्या सरकार को ऐसी शिक्षण-संस्थाओं पर लगाम नहीं कसनी चाहिए,जिनका उद्देश्य शिक्षा देना कम पैसे कमाना अधिक हो।जो अपने अध्यापकों को न तो सरकारी वेतन देते हैं ,न पेंशन ,न स्वीकृत ग्रेज्यूटी।जब चाहे टीचर को निकाल देते हैं ।

अनेक प्रश्न है ,जिसका उत्तर ढूंढना शेष है।

भाग तेरह--

मुझे अपनी खोई हुई शक्तियों को एकत्र करके फिर से संघर्ष- क्षेत्र में उतरना ही होगा।एक माह हो गए विद्यालय से मुक्त हुए और अपने घर में ही अवसाद ग्रस्त- सी डोल रही हूँ।बहुत जरूरी होने पर ही बाहर निकलती हूँ।कहीं आने -जाने किसी से मिलने -जुलने का भी मन नहीं होता।जहाँ जाओ वहीं रिटायरमेंट की चर्चा और तमाम नसीहतें-अभी तो आप यंग हैं कोई और स्कूल ज्वाइन कर लीजिए। घर में ही कोचिंग खोल लीजिए ।कोई बिजनेस कोई दूकान....उफ़ ,मन घबरा जाता है।अब इन चीजों में मेरी कोई रूचि नहीं ।मैं शांति से बैठकर लिखना -पढ़ना चाहती हूं।खूब घूमना चाहती हूं।अलग -अलग क्षेत्रों के लोगों से मिलना चाहती हूं।अब सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह काम में जुटे रहना मेरे बस की बात नहीं पर अपनी मर्जी से जीने के लिए पैसा तो चाहिए ही।दो- चार दिन तो कोई रोटी खिला देगा, पर पता नहीं उम्र अभी कितनी बड़ी है ।खुद के और घर के मेंटनेंस के लिए भी तो पैसा चाहिए।बिजली ,पानी,मोबाइल,टाटा स्काई ,ब्लडप्रेशर की नियमित दवाई भी तो जरूरी खर्चे हैं।कहीं आने -जाने पर भी तो खर्च होता ही है।यानी बिना किसी आय के व्यय की स्थिति आ गयी है।पेंशन मिलती तो कमोवेश काम चल जाता। थोड़ी बहुत जो सेविंग है कितने दिन चलेगी?

यह है पी -एच .डी की हुई,योग्य,ईमानदार ,प्राइवेट स्कूल की रिटायर हुई शिक्षिका की चिंता।जो उम्र की सांध्यबेला में चैन से जीने के लिए चिंतित है।

यह है शिक्षा विभाग..की असलियत!.....यह है वह देश,जहाँ गुरू को गोविंद कहा जाता है।

(यह सिर्फ एक शिक्षिका की डायरी नहीं है यह उन तमाम शिक्षिकाओं की डायरी है जो शिक्षा -विभाग की राजनीति की शिकार हुई हैं।)



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