धुंध

धुंध

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निशा को डाक्टर ने जब यह बताया कि पेट में ट्यूमर है तथा आपरेशन कराना बेहद जरूरी है वरना वह कैंसर भी बन सकता है तो पति आयुष के साथ वह भी काफी घबरा गई थी। सारी चिंता बच्चों को ले कर थी। वरुण और प्रज्ञा काफी छोटे थे, उस की इस बीमारी का लंबे समय तक चलने वाला इलाज तो उस के पूरे घर को अस्तव्यस्त कर देगा, सोच-सोचकर परेशान हो उठी थी। सच पूछिए तो जब यह महसूस होता है कि हम अपाहिज होने जा रहे हैं या हमें दूसरों की दया पर जीना है तो मन बहुत ही कुंठित हो उठता है।


परिवार में सास, ननद, देवर, जेठ सभी थे पर एकाकी परिवारों में सब के सामने उस जैसी ही समस्या उपस्थित थी। कौन अपना घर परिवार छोड़ कर इतने दिनों तक उस के घर को संभालेगा? अपने आपरेशन से भी अधिक निशा को अपने घर संसार की चिंता सता रही थी। यह भी अटल सत्य है कि पैर चाहे चिता में रखे हों पर जब तक सांस है तब तक व्यक्ति सांसारिक चिंताओं से मुक्त नहीं हो पाता।

आस पड़ोस के अलावा निशा ने अखबार में भी विज्ञापन देखने शुरू कर दिए तथा ‘आवश्यकता है एक काम वाली की’ नामक विज्ञापन अपना पता देते हुए अखबार में प्रकाशित भी करवा दिया। विज्ञापन दिए अभी हफ्ता भी नहीं बीता था कि एक 21-22 साल की युवती घर का पता पूछते-पूछते आई। उस ने अपना परिचय देते हुए काम पर रखने की पेशकश की थी और अपने विषय में कुछ इस प्रकार बयां किया था :


‘‘मेरा नाम प्रेमलता है। मैं बी. ए. पास हूँ। 3 साल पहले मेरा विवाह हुआ था पर पिछले साल मेरा पति एक दुर्घटना में मारा गया। संतान भी नहीं है। ससुराल वालों ने मुझे मनहूस समझ कर घर से निकाल दिया है। परिवार में अन्य कोई न होने के कारण मुझे भाई के पास रहना पड़ रहा है पर भाभी अब मेरी उपस्थिति सह नहीं पा रही है…वहां तिल तिल कर मरने की अपेक्षा मैं कहीं काम करना चाह रही हूं…1-2 स्कूलों में पढ़ाने के लिए अर्जी भी दी है पर बात बनी नहीं, अब जब तक कोई अन्य काम नहीं मिल जाता, यही काम कर के देख लूं सोच कर चली आई हूं, भाई के घर नहीं जाना चाहती , काम के साथ रहने के लिए घर का एक कोना भी दे दें तो मैं चुपचाप पड़ी रहूँगी। ’’


उस की साफगोई निशा को बहुत पसंद आई। उस ने कुछ भी नहीं छिपाया था। रुक रुक कर खुद ही सारी बातें कह डाली थीं। निशा को भी जरूरत थी तथा देखने में भी वह साफ सुथरी और सलीकेदार लग रही थी। अत: उस की शर्तों पर निशा ने सहमति दे दी। निशा को जब महसूस हुआ कि अब इस के हाथों घर सौंप कर आपरेशन करवा सकती हूं तब उस ने आपरेशन की तारीख ले ली। नियत तिथि पर आपरेशन हुआ और सफल भी रहा। सभी नाते रिश्तेदार आए और सलाह मशवरा दे कर चले गए। प्रेमलता ने सबकुछ इतनी अच्छी तरह से संभाल लिया था कि किसी को उस ने जरा भी शिकायत का मौका नहीं दिया। जाते जाते सब उस की तारीफ ही करते गए। फिर भी कुछ ने यह कह कर नाराज़गी जाहिर की कि ऐसे समय में भी तुम ने हमें अपना नहीं समझा बल्कि हम से ज्यादा एक अजनबी पर भरोसा किया।


वैसे भी आदरयुक्त, प्रिय और आत्मीय संबंध तो आपसी व्यवहार पर आधारित रहते हैं पर परिवार में सब से बड़ी होने के नाते किसी को भी खुद के लिए कष्ट उठाते देखना निशा के स्वभाव के विपरीत था अत: अपनी तीमारदारी के लिए किसी को भी बुला कर परेशान करना उसे उचित नहीं लगा था पर उसके आदरणीय ऐसी शिकायत करेंगे, उसे आशा नहीं थी। शायद कमियाँ निकालना ही ऐसे लोगों की आदत बन गई है ।

शिकायत करने वाले यह भूल गए थे कि ऐसी स्थिति आने पर क्या वह सचमुच अपना घर छोड़ कर महीने भर तक उस के घर को संभाल पाते…जबकि डाक्टरों के मुताबिक उसे 6 महीने तक भारी सामान नहीं उठाना था क्योंकि गर्भाशय में संक्रमण के कारण ट्यूमर के साथ गर्भाशय को भी निकालना पड़ गया था। ऐसे वक्त में लोगों की शिकायत सुन कर एकाएक ऐसा लगा कि वास्तव में रिश्तों में दूरी आती जा रही है, लोग करने की अपेक्षा दिखावा ज्यादा करने लगे हैं।


सच, आज की दुनिया में कथनी और करनी में बहुत अंतर आ गया है , कार्य व्यस्तता या दूरी के कारण संबंधों में भी दूरी आई है…इस में कोई संदेह नहीं है, अपने निकटस्थ रिश्तेदारों के व्यवहार से मन खट्टा हो गया था। प्रेमलता की उचित देखभाल ने निशा को घर के प्रति निश्चिंत कर दिया था। वरुण और प्रज्ञा भी उस से हिल गए थे। शाम को उस को पार्क में घुमाने के साथ उन का होमवर्क भी वह पूरा करा दिया करती थी।


जाने क्यों निशा प्रेमलता के प्रति बेहद अपनत्व महसूस करने लगी थी, आयुष के आँफिस जाने के बाद वह साए की तरह उस के आगे पीछे घूमती रहती, उस की हर आवश्यकता का खयाल रखती। एक दिन बातों-बातों में प्रेमलता बोली, ‘‘दीदी, आप के पास रह कर लगता ही नहीं है कि मैं आप के यहां नौकरी कर रही हूं। सास और भाई के घर मैं इस से ज्यादा काम करती थी पर फिर भी उन्हें मैं बोझ ही लगती थी…दीदी, वे मेरा दर्द क्यों नहीं समझ पाए, आखिर पति के मरने के बाद मैं जाती तो जाती कहां? सास तो मुझे हर वक्त इस तरह कोसती रहती थी मानो उस के बेटे की मौत का कारण मैं ही हूं। दुख तो इस बात का था कि एक औरत हो कर भी वह औरत के दुख को क्यों नहीं समझ पाई?’’

अपनी आपबीती सुनाते हुए प्रेमलता की आँखों में आँसू भर आए थे…रिश्तों में आती संवेदनहीनता ने प्रेमलता को तोड़ कर रख दिया था…यहां आ कर उसे सुकून मिला था, खुशी मिली थी अत: उस की पुरानी चंचलता लौट आई थी। शरीर भी भराभरा हो गया था। निशा भी खुश थी, चलो, जरूरत के समय उसे अच्छी काम वाली के साथ साथ एक सखी भी मिल गई है।


बीच बीच में प्रेमलता का भाई उस की खोज खबर लेने आ जाया करता था। बहन को अपने साथ न रख पाने का उस को बेहद दुख था पर पत्नी के तेज स्वभाव के चलते वह मजबूर था। यहां बहन को सुरक्षित हाथों में पा कर वह निश्चिंत हो चला था। प्रेमलता का पति बैंक में नौकर था, उस के फंड पर अपना हक जमाने के लिए ससुराल के लोग उसे घर से बेदखल कर उस पैसे पर अपना हक जमाना चाहते थे। प्रेमलता का भाई उसे उस का हक दिलाने की कोशिश कर रहा था। भाई का अपनी बहन से लगाव देख कर ऐसा लगता था कि रिश्ते टूट अवश्य रहे हैं पर अभी भी कुछ रिश्तों में कशिश बाकी है वरना वह बहन के लिए दफ्तरों के चक्कर नहीं काटता। प्रेमलता को इतनी ही खुशी थी कि भाभी नहीं तो कम से कम उस का अपना भाई तो उस के दुख को समझता है। कोई तो है जिस के कारण वह जीवन की ओर मुड़ पाई है वरना पति की मौत के बाद उस के जीवन में कुछ नहीं बचा था और यहाँ तक कि ससुराल वालों की प्रताड़ना से बुरी तरह टूट चुकी प्रेमलता आत्महत्या करने के बारे में भी सोचने लगी थी।


उस का दुख सुन कर मन भर आता था। सच, आज भी हमारा समाज विधवा के दुख को नहीं समझ पाया है, जिस पति के जाने से औरत का साज श्रृंगार ही छिन गया हो, भला उस की मौत के लिए औरत को दोषी ठहराना मानसिक दिवालिएपन का द्योतक नहीं तो और क्या है? सब से ज्यादा दुख तो उसे तब होता था जब स्त्री को ही स्त्री पर अत्याचार करते देखती। एक दिन रात में निशा की आँख खुली, बगल में आयुष को न पा कर कमरे से बाहर आई तो प्रेमलता का फुस- फुसाता स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘नहीं साहब, मैं दीदी का विश्वास नहीं तोड़ सकती। ’’ सुन कर निशा की सांस रुक गई। समझ गई कि आयुष की क्या माँग होगी। वितृष्णा से भर उठी थी निशा। मन हुआ, मर्द की बेवफाई पर चीखे चिल्लाए पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल पाई। लगा, चक्कर आ जाएगा। उस ने वहीं बैठना चाहा, तो पास में रखा स्टूल गिर गया। आवाज़ सुन कर आयुष आ गए। उसे नीचे बैठा देख बोले, ‘‘तुम यहाँ कैसे? अगर कुछ जरूरत थी तो मुझ से कहा होता। ’’


निशब्द उसे बैठा देख कर आयुष को लगा कि शायद निशा पानी पीने उठी होगी और चक्कर आने पर बैठ गई होगी। वह भी ऐसे आदमी से उस समय क्या तर्क वितर्क करती जिस ने उस के सारे वजूद को मिटाते हुए अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए दूसरी औरत से सौदा करना चाहा। दूसरे दिन आयुष तो सहज थे पर प्रेमलता असहज लगी। बच्चों और आयुष के जाने के बाद वह निशा के पास आ कर बैठ गई। जहाँ और दिन उस के पास बातों का अंबार रहता था, आज शांत और खामोश थी…न ही आज उस ने टीवी खोलने की फरमाइश की और न ही खाने की।

‘‘क्या बात है, सब ठीक तो है न?’’ उस का हृदय टटोलते हुए निशा ने पूछा।

‘‘दीदी, कल बहुत डर लगा, अगर आप को बुरा न लगे तो कल से मैं वरुण और प्रज्ञा के पास सो जाया करूँ,’’आँखों में आँसू भर कर उस ने पूछा था।

‘‘ठीक है। ’’

निशा के यह कहने पर उस के चेहरे पर संतोष झलक आया था। निशा जानती थी कि वह किस से डरी है। आखिर, एक औरत के मन की बातों को दूसरी औरत नहीं समझेगी तो और कौन समझेगा? शायद वह सच्चाई बता कर उस के मन में आयुष के लिए घृणा या अविश्वास पैदा नहीं करना चाहती थी, इसलिए कुछ कहा तो नहीं पर अपने लिए सुरक्षित स्थान अवश्य माँग लिया था।


आयुष के व्यवहार ने यह साबित कर दिया था कि पुरुष के लिए तो हर स्त्री सिर्फ देह ही है, उसे अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए सिर्फ देह ही चाहिए…इस से कोई मतलब नहीं कि वह देह किस की है। अब निशा को खुद ही प्रेमलता से डर लगने लगा था। कहीं आयुष की हवस और प्रेमलता की देह उस का घर संसार न उजाड़ दे। प्रेमलता कब तक आयुष के आग्रह को ठुकरा पाएगी…उसे अपनी बेबसी पर पहले कभी भी उतना क्रोध नहीं आया जितना आज आ रहा था। प्रेमलता भी तो कम बेबस नहीं थी। वह चाहती तो कल ही समर्पण कर देती पर उस ने ऐसा नहीं किया और आज उस ने अपनी निर्दोषता साबित करने के लिए अपने लिए सुरक्षित ठिकाने की माँग की।


प्रश्न अनेक थे पर निशा को कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था। दोष दे भी तो किसे, आयुष को या प्रेमलता की देह को। मन में ऊहापोह था। सोच रही थी कि यह तो समस्या का अस्थायी समाधान है, विकट समस्या तो तब पैदा होगी जब आयुष बच्चों के साथ प्रेमलता को सोता देख कर तिलमिलायेंगे या चोरी पकड़ी जाने के डर से कुंठित हो खुद से आँखें चुराने लगेंगे। दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं। निशा ने सोचा कि आयुष के आने पर प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में रहने की बात कह वह उन के मन की थाह लेने की कोशिश करेगी। पुरुष के कदम थोड़ी देर के लिए भले ही भटक जाएं पर अगर पत्नी थोड़ा समझदारी से काम ले तो यह भटकन दूर हो सकती है। अभी तो उसे पूरी तरह से स्वस्थ होने में महीना भर और लगेगा। उसे अभी भी प्रेमलता की जरूरत है पर कल की घटना ने उसे विचलित कर दिया था।


आयुष आए तो मौका देख कर निशा ने खुद ही प्रेमलता के सोने की व्यवस्था बच्चों के कमरे में करने की बात की तो पहले तो वह चौके पर फिर सहज स्वर में बोले, ‘‘ठीक ही किया। कल शायद वह डर गई थी। उस के चीखने की आवाज़ सुन कर मैं उस के पास गया, उसे शांत करवा ही रहा था कि स्टूल गिर जाने की आवाज़ सुनी। आ कर देखा तो पाया कि तुम चक्कर खा कर गिर पड़ी हो। ’’ आयुष के चेहरे पर तनिक भी क्षोभ या ग्लानि नहीं थी। तो क्या प्रेमलता सचमुच डर गई थी या जो उस ने सुना वह गलत था। अगर उस ने जो सुना वह गलत था तो प्रेमलता की चीख उसे क्यों नहीं सुनाई पड़ी। खैर, जो भी हो जिस तरह से आयुष ने सफाई दी थी, उस से हो सकता है कि वह खुद भी शर्मिंदा हों।


प्रेमलता अब यथासंभव आयुष के सामने पड़ने से बचने लगी थी। अब निशा स्वयं आयुष के खाने पीने, नाश्ते का खयाल रखने की कोशिश करती।

अभी महीना भर ही बीता होगा कि प्रेमलता का भाई आया और एक लिफाफा उस को पकड़ाते हुए बोला, ‘‘तू ने जहां नौकरी के लिए आवेदन किया था वहां से इंटरव्यू के लिए काल लेटर आया है। जा कर साक्षात्कार दे आना पर आजकल बिना सिफारिश के कुछ नहीं हो पाता। नौकरी मिल जाए तो अच्छा ही है, कम से कम तुझे किसी का मुँह तो नहीं देखना पड़ेगा। ’’

एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के पद के लिए इंटरव्यू काल थी। निशा ने जब काल लेटर पढ़ा तो याद आया कि इसी ग्रुप के एक स्कूल में उस की मित्र शोभना की भाभी प्रधानाचार्या हैं। निशा ने उन से बात की। नौकरी मिल गई। अगले सत्र से उसे काम करना था। डेढ़ महीना और बाकी था।


प्रेमलता की निशा को ऐसी आदत पड़ गई थी कि उस के बिना वह कैसे सब कुछ कर पाएगी, यह सोच सोच कर वह परेशान होने लगी थी। इस अजनबी लड़की ने उस के दुख और परेशानी के क्षणों में साथ दिया है। उस की जगह अगर कोई और होता तो भावावेश में उस का घर संसार ही बिखरा देता…खासकर तब जब गृहस्वामी विशेष रुचि लेता प्रतीत हो। पर उस ने ऐसा न कर के न केवल अपने अच्छे चरित्र की झलक दिखाई थी बल्कि उस की गृहस्थी को टूटने बिखरने से बचा लिया था।


स्कूल का सेशन शुरू हो गया था। घर न मिल पाने के कारण प्रेमलता उस के घर से ही आना जाना कर रही थी। स्कूल जाने से पहले वह नाश्ता और खाना बना कर जाती थी तथा शाम का खाना भी वही आ कर बनाती। लगता ही नहीं था कि वह इस परिवार की सदस्य नहीं है…अब प्रेमलता को जाना ही है, सोच कर निशा भी धीरे-धीरे घर का काम करने की कोशिश करने लगी थी।

‘‘दीदी, स्कूल के पास ही घर मिल गया है। अगर आप इजाज़त दें तो मैं वहां रहने के लिए चली जाऊँ,’’ एक दिन प्रेमलता स्कूल से आकर बोली।

‘‘ठीक है, जैसा तुम उचित समझो। अब तो मैं काफी ठीक हो गई हूं। धीरे धीरे सब करने लगूँगी। ’’

वरुण को पता चला तो वह बहुत उदास हो कर बोला, ‘‘आंटी, आप यहीं रह जाओ न। आप गणित पढ़ाती थीं तो बहुत अच्छा लगता था। ’’

‘‘दीदी, आप चली जाओगी तो मुझे आलू के परांठे कौन बना कर खिलाएगा… आप जैसे परांठे तो ममा भी नहीं बना पातीं,’’ प्रज्ञा ने आग्रह करते हुए कहा।

‘‘कोई बात नहीं, बेबी, मैं दूर थोड़े ही जा रही हूँ, हर इतवार को मैं मिलने आऊँगी, तब आप को आप का मनपसंद आलू का परांठा बना कर खिला दिया करूँगी,’’ प्रेमलता ने प्यार से प्रज्ञा को गोदी में उठाते हुए कहा।


निशा ने भी प्रेमलता को सदा नौकरानी से ज्यादा मित्र समझा था पर वरुण और प्रज्ञा का उस से इतना भावात्मक लगाव उस के अहम को हिला गया। अचानक उसे लगा कि इस लड़की ने कुछ ही दिनों में उस से उस की जगह छीन ली है…वह जगह जो उस ने 10 वर्षों में बनाई थी, इस ने केवल 5 महीनों में ही बना ली। बच्चे भी अब उस के बजाय प्रेमलता से ही अपनी फरमाइशें करते और वह भी हँसते हँसते उन की हर फरमाइश पूरी करती, चाहे वह खाना हो, पढ़ना हो या बाहर पार्क में उस के साथ घूमने जाना।

‘‘क्या प्रेमलता घर छोड़ कर जा रही है?’’ शाम को चाय पीते पीते आयुष ने पूछा था।

‘‘हाँ, कोई परेशानी?’’ निशा ने एक तीखी नजर से उन्हें देखा।

‘‘मुझे क्या परेशानी होगी। बस, ऐसे ही पूछ लिया था। कुछ दिन और रुक जाती तो तुम्हें थोड़ा और आराम मिल जाता,’’ निशा की तीखी नजर से अपनी आँखें चुराते हुए आयुष ने जल्दी जल्दी कहा।

पहले तो निशा सोच रही थी कि प्रेमलता से कुछ दिन और रुकने का आग्रह वह करेगी पर आयुष और बच्चों की सोच ने उसे कुंठित कर दिया। अब उसे वह एक पल भी नहीं रोकेगी। कल जाती हो तो आज ही चली जाए। जिस की वजह से उस की अपनी गृहस्थी पराई हो चली है, भला उसे अपने घर में वह क्यों शरण दे?


ईर्ष्या रूपी अजगर ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया था। जब वह उस से विदा मांगने आई तब कोई उपहार देना तो दूर उस से इतना भी नहीं कहा गया कि छुट्टी के दिन चली आया करना जबकि बच्चों को रोते देख प्रेमलता खुद ही कह रही थी, ‘‘रोओ मत, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रही हूँ, जब मौका मिलेगा तब मिलने आ जाया करूँगी। ’’

जहां कुछ समय पहले तक निशा स्वयं आपसी रिश्तों में आती संवेदनहीनता के लिए दूसरों को दोषी ठहरा रही थी, आज वह स्वयं ईर्ष्या के कारण उसी जमात में शामिल हो गई थी। उसके तन-मन में ऐसी धुंध भर गई थी कि वह सही गलत की पहचान भी नहीं कर पा रही थी तभी तो उसकी आवश्यकता के समय साथ देने वाली लड़की के अपार प्रेम के बावजूद, उसके प्रेम का प्रतिदान देने में कंजूसी कर गई ।



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