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Prashant Wankhade

Horror Classics

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Prashant Wankhade

Horror Classics

धुंध की आड़ में

धुंध की आड़ में

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गाँव “भैरवपुर” अपने शांत माहौल और पुराने किस्सों के लिए जाना जाता था। छोटा-सा कस्बा, चारों तरफ़ खेत और दूर-दूर तक फैली पगडंडियाँ। दिन में यहाँ की ज़िंदगी बिल्कुल साधारण थी — सुबह लोग खेतों में निकलते, बच्चे मिट्टी में खेलते, और शाम होते ही चौपाल पर बेंचों पर बैठकर ताश और गपशप में वक्त बीतता।

उस शाम भी सब कुछ वैसा ही था। अक्टूबर का महीना था… हवा में हल्की ठंड घुल चुकी थी। सूरज धीरे-धीरे ढल रहा था और खेतों के पार से नारंगी रंग की रोशनी फैल रही थी। कहीं दूर से आती ट्रेन की सीटी इस सन्नाटे को तोड़ देती, और फिर जैसे सब कुछ फिर से शांत हो जाता।

गाँव के पुराने लोग अकसर कहते थे — “सर्दी की शामों में धुंध जब ज़मीन को छूती है… तब कुछ आवाज़ें भी साथ चली आती हैं।” लेकिन युवा पीढ़ी इन बातों को हँसी में उड़ा देती थी।


आकाश और उसके दोस्त – मस्ती और लापरवाही


उस दिन आकाश, रवि और नीरज – तीनों दोस्त शाम को गाँव के बाहर बने पुराने ‘टी स्टॉल’ पर बैठे थे। हाथों में कुल्हड़ की गरम चाय, और सामने हल्की-हल्की हवा में उड़ते सूखे पत्ते।

“आज मैदान के पार चलते हैं,” रवि ने कहा, “वहाँ नई सड़क बनी है, रात को बहुत शांत रहती है… मज़ा आएगा घूमने में।”

आकाश ने हँसते हुए कहा, “रात में? अरे भूत-प्रेत वाली सड़क? तेरी तो…”

नीरज ने बात काटी, “अबे छोड़ ना… वो तो बुजुर्गों की डराने वाली बातें हैं। चलो ना आज… धुंध भी पड़ेगी, मस्ती का माहौल बनेगा।”

तीनों की बातें धीरे-धीरे हँसी-मज़ाक में बदल गईं। पास बैठा चायवाला बुजुर्ग इनकी बातें सुन रहा था… उसने धीरे से कहा,

“बेटा… शाम के बाद उस पटरी वाले रास्ते से मत जाना… आज ठंडी धुंध जल्दी उतरने वाली है।”

पर उनकी उम्र में ये बातें बस हल्की हवा की तरह होती हैं — आती हैं और निकल जाती हैं।


 धुंध का उतरना – धीरे-धीरे माहौल बदलना


रात के आठ बजते-बजते, आसमान पर काले बादलों की चादर छा गई। अचानक एक ठंडी हवा का झोंका आया — पत्ते सरसराए, और हवा में एक अजीब-सी नमी भर गई।

“वाह… एकदम फिल्मी सीन!” नीरज बोला।

जब वो रेलवे पटरी के पास पहुँचे, तो चारों ओर धुंध इतनी गहरी थी कि कुछ ही कदम दूर का इंसान भी दिखना मुश्किल हो गया। रास्ता एकदम सुनसान था — दूर-दूर तक न कोई लाइट, न कोई आवाज़… बस कभी-कभी हवा की सीटी जैसी सनसनाहट।

“चलो जल्दी चलते हैं, मज़ा आ रहा है,” रवि बोला और आगे बढ़ गया।

आकाश और नीरज उसके पीछे-पीछे।


हल्की आवाज़ें, अनदेखी परछाइयाँ


थोड़ी दूर चलते ही आकाश को लगा जैसे पीछे कोई चल रहा है। उसने मुड़कर देखा — कुछ भी नहीं।

धुंध में उनके पैरों की आहट और ज़मीन पर पत्तों की चरमराहट अजीब-सी गूँज रही थी। ऐसा लग रहा था मानो हर आवाज़ दो बार लौट कर आ रही हो।

“अबे कोई है पीछे?” आकाश ने धीमे से पूछा।

“कौन होगा इस सुनसान में,” नीरज हँसकर बोला, लेकिन उसकी आवाज़ में भी अब हँसी का वो जोश नहीं था।

अचानक — धप्प… जैसे किसी ने पटरी के पास कुछ गिराया हो।

तीनों ठिठक गए। धुंध में कुछ भी साफ़ नहीं दिखा


बिछड़ना शुरू – डर का असली असर


“रवि कहाँ गया?” आकाश ने महसूस किया कि रवि अब उनके साथ नहीं है।

“अभी तो यही था!” नीरज ने घबराकर इधर-उधर देखा।

वो दोनों इधर-उधर पुकारते रहे — “रवि… ओए रवि…”

पर जवाब में बस धुंध में गूँजती उनकी अपनी आवाज़ें थीं।

नीरज अचानक बोला — “मुझे लगा जैसे कोई मेरे पास से गुज़रा… किसी ने सांस ली… बहुत पास से।”

अब डर ने पहली बार अपना असली चेहरा दिखाया था। दोनों की धड़कनें तेज़ होने लगीं। उन्होंने पीछे लौटने का फैसला किया… पर जो रास्ता सीधा था, अब धुंध में टेढ़ा-मेढ़ा लग रहा था।

आकाश को ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई उनके साथ-साथ चल रहा है… कभी बायीं तरफ़, कभी दायीं तरफ़… बस कुछ कदम की दूरी पर… लेकिन जब मुड़ते, तो कुछ नहीं।


वो “कोई” – जो दिखता नहीं, पर होता है


नीरज अचानक चिल्लाया — “वो देख!!”

आकाश ने उसकी उंगली की दिशा में देखा — धुंध में कुछ हल्की सी आकृति… जैसे कोई लंबी चुन्नी लहराती हो… एकदम स्थिर खड़ी।

“चल भाग!” दोनों भागने लगे।

लेकिन रास्ता ऐसा लग रहा था जैसे धुंध उन्हें गोल-गोल घुमा रही हो। वे जिस दिशा में भागते, सामने वही आकृति फिर नज़र आ जाती। न पास आती… न दूर जाती… बस वहीं… झिलमिलाती।

आकाश अब बुरी तरह काँप रहा था। सांसें तेज़, दिल जैसे छाती से बाहर कूदने वाला हो।


आख़िरी टकराव – धुंध और पटरी के बीच            


भागते-भागते नीरज भी कहीं गुम हो गया। अब आकाश अकेला था।

पटरी के पास एक जगह उसे लगा जैसे किसी ने उसका नाम फुसफुसाया — “आ…काश…”

आवाज़ न मर्द की थी, न औरत की… पर बहुत पास से आई थी।

वो भागा… लेकिन हर तरफ़ वही धुंध, वही गूँजती फुसफुसाहट, वही आकृति।

अचानक दूर से ट्रेन की सीटी सुनाई दी।

आकाश लड़खड़ाते हुए पटरी के पास पहुँच गया… लेकिन उसके सामने — वही परछाई। उसने पीछे मुड़ने की कोशिश की… पर पैर जैसे ज़मीन में धँस गए हों।

तभी कुछ गाँववाले जो पास के खेतों से लौट रहे थे, उन्होंने उसे देखा — धुंध में पटरी के बीच खड़ा, जैसे सम्मोहित हो।

“अरे पकड़ो इसको!” किसी ने चिल्लाया।

दो लोगों ने दौड़कर उसे ठीक समय पर खींच लिया — जैसे ही ट्रेन गुज़री, उसकी तेज़ हवा ने धुंध को चीर दिया।

आकाश बेहोश हो गया।


इसके बाद…


जब आकाश को होश आया, वो अपने घर में था। माँ की आँखें सूजी हुई थीं।

वो कई दिनों तक बिस्तर से उठा नहीं। उसे तेज़ बुखार था और रात में अक्सर वो नींद में चिल्ला उठता — “वो यहीं है… धुंध में…”

नीरज और रवि… अगले दिन तक नहीं मिले। कुछ लोग कहते हैं उन्होंने गाँव छोड़ दिया… कुछ कहते हैं धुंध में कुछ और हो गया।

पर एक बात सब मानते थे — उस रात धुंध में कोई था।

🕯️ अंत

धुंध अब भी आती है… और जब वो आती है, गाँव के लोग दरवाज़े कसकर बंद कर लेते हैं।

क्योंकि कोई नहीं जानता… अगली बार वो धुंध किसे अपने साथ ले जाए…


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