Chandresh Kumar Chhatlani

Abstract

4.2  

Chandresh Kumar Chhatlani

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दायित्व का बोध

दायित्व का बोध

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पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये। आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर।"

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी। पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के मारे कांप रहा था।

वह थोड़ा और आगे बढ़ा, उसे फिर अपने पिता का तीक्ष्ण स्वर सुनाई दिया, "दरवाज़ा बंद क्या तेरे फ़रिश्ते करेंगे ?"

उसने मुड़ कर देखा, वहां भी वह स्वयं ही खड़ा था, वह थोड़ा बड़ा हो चुका था, और मुंह बिगाड़ कर दरवाज़ा बंद कर रहा था।

दो क्षणों बाद वह मुड़ा और चल पड़ा, कुछ कदम चलने के बाद फिर उसके कान पिता की तीखी आवाज़ से फिर गूंजे, "दिखाई नहीं देता नीचे पत्थर रखा है, गिर जाओगे।"

अब उसने स्वयं को युवावस्था में देखा, जो तेज़ चलते-चलते आवाज़ सुनकर एकदम रुक गया था।

अब वह घर के अंदर घुसा, वहां उसका पोता अकेला खेल रहा था, देखते ही जीवन में पहली बार उसकी आँखें क्रोध से भर गयीं और पहली ही बार वह तीक्ष्ण स्वर में बोला, "कहाँ गये सब लोग ? कोई बच्चे का ध्यान नहीं रखता, छह महीने का बच्चा अकेला बैठा है।"

और उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके पैरों में उसके पिता के जूते हैं।


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