ब्लेज़र
ब्लेज़र
"माँ , मै ब्लेज़र लूँगा "
बनियाइन और लुंगी पहन कर ज़िंदगी के अधिकांश वक़्त गुज़ारने वाले मेरे परिवार के पुरुष सदस्यों के बीच ब्लेज़र की मांग सर्वथा नाजायज थी। यह जानते समझते हुए भी कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को ब्लेज़र पहन कर आते जाते देख मन मचल जाता था। हम सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे थे, जहाँ यूनिफार्म किस चिड़िया का नाम होता है, ये भी किसी को शायद ही पता होता था.
"पढ़ाई-लिखाई कुछ होता नहीं और रोज -रोज इसकी फरमाइशें तो देखो" --- उत्तर माँ के बदले पिताजी ने दिया, जो पता नहीं कब आ गए थे.
"अच्छा अच्छा -- ले दूंगी" -- माँ ने बात को रफा-दफा करने के उद्देस्य से कहा.
"पहले पढ़-लिख कर कुछ बन जाओ तब अपनी शौक पूरी करते फिरना, सो नहीं, कभी ये चाहिए कभी वो चाहिए" पिताजी अभी भी मेरी फरमाइश से चिढ़े हुए बड़बड़ाये जा रहे थे. मैंने वहां से निकल लेने में ही अपनी भलाई समझी।
वक़्त गुजरता गया, ब्लेज़र पहनने का शौक मन में था, सो रहा ही.पिता शहर के एक बड़े किराना दुकान में मुंशी का काम करते थे, घर में और भी भाई बहन थे,दादा-दादी थी, और इतने लोगों का गुज़ारा मामूली सी तनख्वाह में जैसे-तैसे ही हो पाता था.ऐसे में जरूरतें ही पूरी न हो पाती थी, तीज-त्यौहार,होली-दीवाली पे अगर नए कपडे मिल जाते थे तो यही गनीमत थी.स्कूल की पढाई पूरी करके जब कॉलेज में दाखिला लिया तबतक परिवार की आर्थिक स्थिति देखते हुए इतनी अकल आ चुकी थी कि अपनी चादर से ज्यादा पैर नहीं पसारने चाहिए। वैसे भी कॉलेज के अधिकांश छात्र मेरे जैस निम्नवर्गीय परिवारों से ही आते थे,जहाँ ब्लेज़र जैसी चीज़ विलासिता की वस्तु की श्रेणी में ही रखी जाती थी.
इन सबके बावजूद भी मन के किसी कोने में ब्लेजर पहनने की ख्वाहिश अभी भी ज़िंदा थी.
वक़्त के साथ मैं ग्रेजुएट हो गया था. दादा-दादी तबतक चल बसे थे, पिता भी अब बूढ़े हो चले थे और मुझसे अपेक्षा करते थे कि मै कही कोई काम-धाम करूँ ताकि घर में चार पैसे आ सकें, लेकिन मै था कि प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर किसी अच्छी सी सरकारी नौकरी करने के सपने संजोये बैठा था,मन के किसी कोने में अब भी यह लालसा थी कि अच्छी सी नौकरी हो जाय तो सबसे पहले ब्लेज़र ही खरीदूंगा। लेकिन बहुत कोशिशों के बाद भी नौकरी हुई नहीं।
पिता मेरी इस तरह की कोशिशों को शुरू से ही व्यर्थ समझते थे, एक दिन उन्होंने मुझे बुला कर कहा -- "इधर-उधर घूमने से नौकरी नहीं मिलने वाली तुझे, मेरे सेठ जी के जान-पहचान वाले रेडीमेड गारमेंट्स की दूकान में मेहनती लड़के की जरुरत है, मैंने सेठ जी से तेरे लिए बात कर ली है,कल से काम पे लग जा....और देख.....मन लगाकर काम करना, मुझे शर्मिंदा होने का मौका मत देना कभी".
अगले दिन से मैं काम पे लग गया, सेठ जी के रेडीमेड गारमेंट्स की बहुत बड़ी दूकान थी, जहाँ मेरे जैसे तीन और लड़के ग्राहकों को कपडे दिखाने का काम करते थे.दुकान में रंग -बिरंगे,नए-नए फैशन के कपड़ों की भरमार थी. संयोगवश मुझे जिन कपड़ों को दिखाने का काम सौंपा गया था,उनमे ब्लेजर भी था. पहली बार मैंने उसे इतने करीब से महसूस किया,लेकिन कीमत उसकी इतनी ज्यादा थी कि मेरी दो महीने की तनख्वाह उसे लेने में खर्च हो जाते। मन को तसल्ली दी कि थोड़ा-थोड़ा पैसा जोड़कर एक दिन तो ले ही लूंगा।
समय अपनी रफ़्तार से दौड़ता रहा, पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ गए, उनको अपना काम छोड़ना पड़ा, घर बैठ गए,दवा-दारु का खर्चा अलग से.मुझे जितनी तनख्वाह मिलती थी उससे घर का गुज़ारा बहुत ही मुश्किल से हो पाता था.उनके इलाज़ के लिए यहाँ-वहां से क़र्ज़ लेना पड़ा,जिससे आर्थिक स्थिति और भी डावांडोल हो गयी थी.अब मुझे कभी ब्लेज़र लेने का ख्याल तक मन में नहीं आता था.
और एक दिन ऐसा भी आया जब पिता हमें छोड़कर चले गए. उनके जाने के बाद माँ भी बीमार रहने लगी थी,उनसे अब घर का काम नहीं हो पाता था.अब उनकी एक ही आशा रह गयी थी की उनकी नज़रों के सामने मेरा परिवार बस जाय, घर में बहू आ जाय. रिश्तेदार भी सारे इधर-उधर से मेरे रिश्ते की बात छेड़ते ही रहते थे. कुछ दिनों में ही माँ ने एक जगह रिश्ता पक्का कर दिया। मैंने भी लड़की की फोटो देखी ,ठीक-ठाक ही थी, हमारे जैसे ही निम्नवर्गीय परिवार से आती थी,मैंने हामी भर दी. मन में फिर से भूले-बिसरे अरमान जाग गए की शायद लड़की वाले के तरफ से ब्लेजर मिले। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, तय समय पर मेरी शादी हो गयी और घर-गृहस्थी के चक्कर में फिर कभी भूले से भी ब्लेज़र का ख्याल तक नहीं आया मन में.
और फिर वो दिन भी आया जब माँ ने हँसते हुए कहा की बहू पेट से है और तू बाप बनने वाला है, मन में ख़ुशी भी हुई और जिम्मेदारियों के बढ़ने का एहसास भी.समय का चक्र अब पूरी तरह घूम चूका था.मै अब एक पुत्र का पिता बन चुका था और मैंने अपने पिता की जगह ले ली थी.बढ़ती जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए मै अब दिन-रात एक करके काम कर रहा था.फिर भी पैसे पूरे नहीं पड़ते थे.
मै अब घर के बढ़ते खर्च को पूरा करने के लिए जहाँ तक हो सके,खुद पर कम से कम खर्च करता था,पुत्र की उम्र अब स्कूल में दाखिले की होती जा रही थी,पत्नी के कहने पर मैंने पास के ही सरकारी विद्यालय में उसका दाखिला करवा दिया। लड़का होनहार था और मन लगाकर स्कूल जाने लगा था.मै अब सब तरह से अपने पिता की प्रतिछाया बन चुका था.त्योहारों का समय आने वाला था,अब मै दूकान पर देर तक काम किया करता था ताकि चार पैसे और जोड़ सकूँ। ऐसे में घर आते-एते शाम ढल जाती थी.
ऐसे ही एक दिन शाम ढले जब मैं थका-मांदा घर में दाखिल हुआ तो देखा कि मेरा पुत्र मेरी पत्नी से कह रहा था, "माँ,मै ब्लेज़र लूँगा "