Prabodh Govil

Fantasy

4.7  

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भूत का ज़ुनून-14

भूत का ज़ुनून-14

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भटनागर जी आज कुछ अनमने से थे। वो इतना ख़र्च करके पत्नी के लिए जो कंगन पंद्रह हजार रुपए में लाए थे वो पत्नी ने घर बैठे ऑनलाइन केवल नौ हज़ार रुपए में खरीद लिए थे।वो तो ये सोच कर ख़ुश हो रहे थे कि उन्होंने तगड़ी बार्गेनिंग की है और वो पचास हज़ार की चीज़ पंद्रह हजार में ले आए हैं, किंतु पत्नी ने उनके सारे पराक्रम पर पानी फेर दिया।खाना खाकर वो कुछ सुस्त से बाहर बैठे थे कि उनके पड़ोसी सक्सेना साहब टहलते हुए चले आए।

आते ही बोले- चलो, ज़रा आपको घुमा लाऊं!

"कहां?" भटनागर जी ने पूछा।

"आप आओ तो सही, मैं बाइक निकाल रहा हूं। ज़रा कुछ मिठाई लेकर आनी है। रात की गाड़ी से सासू मां आ रही हैं। श्रीमती जी चाहती हैं कि सुबह के नाश्ते के लिए रबड़ी अभी लाकर रख ली जाए।" कहते हुए सक्सेना जी ने अपना गेट खोला।

कुछ ही पलों में दोनों रबड़ी की उसी दुकान पर थे जहां से भटनागर जी भी रबड़ी लाया करते थे। दुकानदार ने रबड़ी तौलने में जितना समय लगाया उतनी देर भटनागर जी की निगाहें इधर- उधर देख कर उसी भिखारिन को तलाशती रहीं जो उन्हें अक्सर यहां दिख जाती थी।

लो, थिंक ऑफ़ डेविल एंड डेविल इज़ देयर, सामने के एक सूखे से पेड़ से सहारा लगाए वो मैली- कुचैली बूढ़ी औरत एक अखबार के काग़ज़ में से कुछ खाने में तल्लीन थी।

"चलो, खाना खा रही है, आज तो कुछ मांग कर तंग नहीं करेगी", भटनागर जी ने चैन की सांस ली।

लेकिन सक्सेना साहब ने रबड़ी का कुल्हड़ भटनागर जी के हाथ में पकड़ा कर जैसे ही बाइक स्टार्ट की, बुढ़िया अपने काग़ज़ को फरफराता छोड़ कर उनकी ओर लपकी और भटनागर जी के सामने हाथ फ़ैला दिया।

"ओहो, रात का समय है, खाना खा चुकी है, अब किस लिए भीख?" सोचते हुए भटनागर जी ने उसकी ओर देखा तो घिन आने लगी। मुंह के दोनों ओर से खाने के अवशेष टपक रहे थे और सने हुए काले- मटमैले मुंह के इर्द -गिर्द धूल - मिट्टी में लिथड़े रूखे उलझे बाल लटके हुए थे। छाती के एक ओर का वस्त्र फट कर झूलता हुआ। भटनागर जी ने हिकारत से मुंह फेर लिया। बाइक स्टार्ट होकर तेज़ी से निकल गई।

आज भटनागर जी को देर रात तक नींद नहीं आई। करवटें बदलते हुए रह- रह कर कनखियों से पत्नी को देख लेते जो गहरी नींद में थीं। न जाने क्या बात थी? भटनागर जी सपनों से डर कर जाग रहे थे या नींद भटनागर जी से डर कर भाग रही थी। पर वो देर तक खुली आंखों से अंधेरे में छत को निहारते रहे। न जाने कितनी देर बाद उन्हें नींद आई। राम जाने आई भी, या नहीं। ऐसे ही रात कट गई।

सुबह रोज़ के समय पर चाय का प्याला हाथ में लेकर पत्नी जगाने आईं तो भटनागर जी ने ऐसे नाटक किया मानो बहुत गहरी नींद से उठे हों। जबकि असलियत ये थी कि वो आज लगातार जागते ही रहे थे। उन्हें सब याद है कि श्रीमती जी कब जागीं और कब वाशरूम से निकल कर रसोई में गईं। उन्होंने चाय के लिए अदरक कूटने की आवाज़ भी सुनी।वो बिस्तर पर अधलेटे होकर चाय का प्याला पकड़ ही रहे थे कि सिरहाने पर रखे उनके मोबाइल की घंटी बजी।

एक हाथ से चाय पकड़ाते हुए दूसरे हाथ से पत्नी ने तुरंत उनका फ़ोन उठाया और कान से लगा लिया। फ़ोन बेटे का था।

" इतनी सुबह - सुबह जाग भी गया तू?" श्रीमती जी ने बेटे से कहा।

"अरे मॉम, मैं घर में नहीं हूं, हॉस्टल में हूं। यहां जागना ही पड़ता है वरना सुबह की चाय, कॉफ़ी, दूध सब मिस हो जाता है।" बेटे ने कहा।

फ़ोन स्पीकर पर नहीं था फ़िर भी उसकी आवाज़ उधर से साफ सुनाई पड़ रही थी।

"चलो, कोई आदत तो सुधरी वहां जाकर। अच्छा बता, इस समय फ़ोन क्यों किया?" श्रीमती जी ने कहा तो भटनागर जी चौकन्ने होकर सुनने की कोशिश करने लगे क्योंकि ये सवाल उनके मन में भी तो था।

"फ़ोन पापा को दो..." बेटे ने कहा तो पत्नी ने तुरंत भटनागर जी की ओर बढ़ा दिया।

"पापा, आज सोए क्यों नहीं आप?"

अरे, भटनागर जी बुरी तरह चौंक पड़े। सोचने लगे, ये क्या माजरा है। सोने पर मां को रात के सपने तक पता चल जाते हैं, और जागने पर मीलों दूर से बेटे को पता चल गया!!!

( क्रमशः)



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