भ्रष्टाचारिणी
भ्रष्टाचारिणी
ऑफिस में पहुंची ही थी कि चपरासी ने बताया आज सुधा जी सस्पेंड होने के बाद पहली बार अपने फॉर्म भरने ऑफिस में आएंगी। तभी रमेश जी बोले, क्या वह अस्पताल से वापिस आ गईं ? सीमा ने कहा," बुरे काम का बुरा नतीजा"। नहीं नहीं ,"उन्हें फंसाया गया है" मनीष बोला। मैं इस पब्लिक डीलिंग ऑफिस में नई नई आई थी और किसी के बारे में कुछ नहीं जानती थी। प्रशासनिक विभाग में होने के कारण निलंबन के केस, और अनुशासनात्मक कार्यवाही के केस, ऐसी अनेक फाइलें मुझे ही डील करनी होती थी।
उनकी फाइल निकाली तो पता चला कि मैडम रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार हुई थीं, इसके कारण उन्हें कारावास में भी जाना पड़ा था ।उनकी फाइल देख कर ही पता चला कि वह अब तक किसी भी अनुशासनात्मक कार्यवाही में उपस्थित नहीं हुई थीं, इसी कारण उनका केस भी अभी तक अपूर्ण था, क्योंकि इस बीच उनकी रिटायरमेंट डेट भी आ गई थी तो उन्हें पेंशन फॉर्म भरने के लिए दफ्तर में बुलाया गया था।
तभी मीना मैडम मेरे पास आईं। उन्होंने बताया की सुधा उनके पड़ोस में ही रहती हैं उन्होंने और मीना ने एक ही दिन इस पब्लिक डीलिंग वाले ऑफिस में ज्वाइन करा था । वही सीट जो सुधा को मिली थी वह पहले मीना मैडम को ऑफर हुई थी पर किसी तरह हाथ पैर जोड़कर और पूरी अप्रोच लगाकर उसने उस सीट से अपना पल्ला छुड़ाया था। वैसे भी उस महत्वपूर्ण सीट पर दफ्तर के बहुत से लोगों की नजर थी ,पर कमिश्नर साहब की यही इच्छा थी कि वह सीट
विभाग में उस समय दूसरे विभाग से स्थानांतरण होकर आए हुए किसी नए कर्मचारी को दी जाए। क्योंकि सुधा को उस सीट को लेने में कोई ऐतराज भी ना था और वह हमेशा से कोई भी चुनौती स्वीकार करने से डरती भी नहीं थी इस कारण सबके मना करने के बावजूद भी उसने वह सीट स्वीकार कर ली थी। घर में केवल सुधा के पति और उसकी सास ही थी। उसके कोई बच्चे नहीं थे और उसका घर भी दफ्तर के पास ही था इसलिए वह ऑफिस को अपना अधिकतर समय दे पाती थी। क्योंकि विभाग पब्लिक डीलिंग का था और उसका घर भी नजदीक ही था इसीलिए घर के आसपास के लोग भी उससे मिलकर अपने काम करवाते ही रहते थे। क्योंकि सुधा नगर निगम की सबसे महत्वपूर्ण सीट पर थी इसलिए उसके पति के पास में भी बहुत सारे लोग अपना काम करवाने के लिए आते ही रहते थे। पति के कहने पर भी वह बहुत सारे उनके साथियों के काम करवाती ही रहती थी। अपनी तरफ से वह बहुत मेहनत करती थी और सबकी मदद भी करती थी। अपना काम भी वह बहुत ईमानदारी से करती थी। दफ्तर की राजनीति के प्रति तो वह बेहद जागरूक थी लेकिन उसे यह ना पता चल पाया कि वह लोगों के काम जो सिर्फ अपने पति के कहने पर ही करती है ,उन सब कामों की एवज में उसका पति उन सब से पैसा लेता था। यही सच है कि आदमी गैरों से तो बेहद सजग रहता है और धोखा सिर्फ अपनों से ही खाता है। घर और दफ्तर में मिले बेहद सम्मान ने उसे कुछ अहंकारी भी बना दिया था। मीना के कई बार समझाने के और इशारा देने के बावजूद भी कि "तुम्हारी काफी बदनामी हो रही है" उसके समझ में कुछ नहीं आता था। उसे सिर्फ यही लगता था कि लोग उसके सम्मान से जलने लगे हैं।
एक दिन जब सुधा दफ्तर के सारे काम निपटा कर घर गई तो थोड़ी देर बाद ही किसी ने घर का दरवाजा खटखटाया और उसके हाथ में ₹5000 पति को देने के लिए रख दिए। बड़ी सहजता से वह पैसे रखकर चाय बनाने को आगे बढ़ी ही थी कि पुलिस ने उसे आ घेरा। ₹5000 उसके पास से पाए गए और वह रंगे हाथों पकड़ी गई थी। भ्रष्टाचार के आरोप में उसे कारावास की सजा भी भुगतनी पड़ी। कुछ लोगों का ख्याल था कि वह सब कुछ जानती थी ,घर में आई शान शौकत से कोई भी इतना अनभिज्ञ कैसे हो सकता है, और कुछ लोगों का ख्याल था कि वह सिर्फ मेहनती और अपने घर संसार को प्यार करने वाली एक साधारण पतिव्रता महिला थी। दो-तीन दिन बाद बड़ी मशक्कत से उसकी विधवा बहन ने उसकी जेल से मुक्ति करवाई। घर जाने पर उसके पति और सास का तो रूप ही बदला हुआ था। बदनामी के डर से दोनों ने उसे बेहद अपमानित करके घर से बाहर निकाल दिया था। उम्र के उस मोड़ पर जबकि उसको अपनों की और घर की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी उसे घर से निकाल दिया गया। अत्यंत दुख की अवस्था में वह आत्महत्या कर ही लेती ,अगर उसे उसकी विधवा बहन ने सहारा ना दिया होता तो। काफी समय तक मानसिक तनाव के कारण वह अस्पताल में भी रही ,इसी कारण वह किसी भी अनुशासनात्मक कार्यवाही में उपस्थित ना हो सकी और उसका निलंबन केस अभी तक अपूर्ण ही था।
अब क्योंकि उस की सेवानिवृत्ति की तारीख भी आ चुकी थी और अंतिम पेंशन (प्रोविजनल पेंशन) के लिए फॉर्म भरने जरूरी थे, इसीलिए उसको ऑफिस में बुलवाया गया था। मैं अभी उसकी फाइल देख ही रही थी कि तभी चपरासी ने मुझे आगंतुकों से परिचित करवाते हुए कहा कि मैडम यह वही सुधा मैडम हैं जिनके बारे में मैंने आपसे जिक्र किया था। वह अपनी बहन के साथ आईं थी। आसपास बैठे और भी स्टाफ ने भी उन्हें अभिवादन किया। वह बेहद असहज हो रहीं थी। उनकी असहजता को दूर करने के लिए बेहद नम्रता से व्यवहार करते हुए मैंने चाय मंगवाई और उन्हें पेंशन पेपर भरने के लिए दिए।
पेंशन पेपर भरते हुए वह अचानक रुक गईं और बोली क्या कोई ऐसा रूल है कि मैं अपने पति का नाम कहीं पर भी ना भरूं? मेरे मेडिकल कार्ड में, और मेरे नॉमिनी में , फैमिली पेंशन में हर जगह मेरी बहन का ही नाम हो?
नहीं मैडम, मेरी इस बारे में कोई जानकारी नहीं है और मेरे ख्याल से ऐसा कोई रूल भी नहीं है ।आपको अपने पति का ही नाम डालना होगा।
नहींईंईंईं !यह नहीं हो सकता। वह ऑफिस में ही विक्षिप्तता की अवस्था में चिल्लाने लगीं और बोली मैं उस आदमी को अपनी जिंदगी में कोई जगह ,कोई चीज भी नहीं देना चाहती। यह कैसा रूल है? मेरी फैमिली और मेरा नॉमिनी कौन है , यह जानने और चुनने का अधिकार तो मुझे होना चाहिए । इससे पहले कि मैं कुछ बोलती उनकी बहन ने उन्हें सहारा दिया और बाहर ले जाने लगीं। मैंने चुप करके सारे पेंशन पेपर्स पैक करके उनकी बहन को ,उनसे भरवा कर वापिस देने के लिए दे दिए। वह अभी भी उन्माद की अवस्था में कुछ कुछ बुदबुदाते हुए हुए बाहर की तरफ जा रहीं थी। पूरे विभाग में चुप्पी छा गई थी और भरे मन से मैं भी दूसरे कमरे में आ गई थी।
