Vinita Shukla

Thriller

4.5  

Vinita Shukla

Thriller

भंवर

भंवर

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                    भंवर                   


          (  अपराध कथा- भाग -१)


               “चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद, मानव योनि मिलती है....बड़े भाग मानुस तन पावा” मौसाजी किसी दार्शनिक की तरह, ज्ञान छांटते रहते। सच कहते थे....सारा बखेड़ा मानव योनि का ही तो था....मानव के अपने वजूद का प्रश्न- जिसे वे आजीवन, सुलझाते ही रह गये! उन्हें यह ज्ञान रहा होगा कि जो कुछ मिलना है, इस जन्म से ही मिलना है.... मानव के समान कोई सक्षम प्राणी नहीं होता। अपनी दुलारी बिटिया इति को, वे कुछ ऐसे समझाते कि उसके मन में, इसे लेकर, प्रबल धारणा बनती चली गयी। इति यह मानने लगी कि जो मिलता नहीं, उसे छीन लेना होता है....भले ही छल-बल क्यों न करना पड़े! कहते हैं- “प्यार और जंग में सब जायज है” इति भी ज़िन्दगी के प्यार में, ज़िन्दगी की ही जंग लड़ रही थी।


 पर उस लड़ाई में पड़कर, वह मौत के कगार तक पहुँच गयी। उसे जहर देने की कोशिश की गयी। यह बात और है कि जो विषैला पेय, इति के लिए बनाया गया था, वह उसकी सहकर्मी मानसी ने पी लिया। पीते ही हालत इतनी खराब हो गयी कि उसे बचाया न जा सका। इति बेचैन थी। अखबार और पुलिस के बाशिंदे, उससे बहुत कुछ उगलवा लेना चाहते थे। दाल में कुछ काला तो जरूर था! इतना कुछ होने के बाद भी, वह तटस्थ बनी हुई थी.... किसने उसे जहर देना चाहां, वह खुद नहीं जानती- यह भुलावा नहीं तो क्या था?? इतनी बड़ी घटना हो गयी और किसी पर उंगली तक नहीं उठी, ना ही कोई संदिग्ध पाया गया। मीडिया वालों का मानना था कि इति कुछ छिपा अवश्य रही थी। परन्तु क्यों.... क्या उसे कोई डर था या फिर....?!


 मामले को सूंघ लेने की, कोशिशें तमाम हुईं, लेकिन इति के अजीबोगरीब बर्ताव की तह तक, कोई ना जा सका। यह कहानी इति से शुरू होकर, उस पर ही ख़त्म होती है। वह हमारे मौसाजी श्रीयुत अभिज्ञान पाण्डेय जी की सबसे छोटी और लाडली सुपुत्री रही। जैसा कि नाम से ज्ञात होता है, वह मौसी की पेट पोंछनी औलाद थी, कुनबे की बढ़त रोकने वाली, आखिरी संतान। उसके आने से परिवार का विस्तार अवश्य रुका- ‘इति अर्थात समाप्ति’....किन्तु परिवर्तन के नये अध्याय भी खुले।। वह अपनेआप में, जीवन का नया उद्घोष थी, नये तेवरों, नवीन क्रांति की दुन्दुभी थी! वह विद्रोही स्वभाव, जो उसने माता- पिता से विरासत में पाया था, उसके व्यक्तित्व में, कुछ अधिक ही मुखर हो उठता। 


 वर्तमान की बात करें तो हमारी यह विद्रोहिणी, एक ऐसे भंवर में फंस गई है, जिससे निकलना, नामुमकिन जान पड़ता है। उसके वजूद में, चमकने वाली चिंगारियां, मंद पड़ गई हैं। ‘उसके भीतर कुछ टूट सा रहा है’- जैसा कि वह इन दिनों, अपने ‘तथाकथित’ आत्मीय लोगों से, कहती पाई जाती है। अपनी अग्रजा मति की भी, बात करती है, जो काल की गर्त में समा चुकी है। उसके चेहरे पर दहशत, साफ तौर पर झलकती है। अधिकारिक तौर पर, उससे पूछताछ जारी है ।


    जहरखुरानी उसके अपने घर में हुई, इतना ही नहीं, पारिवारिक उत्सव में हुई.... जो कि और भी भयावह बात थी! पार्टी तो उसने खुद ही थ्रो करी थी। इनकम -टैक्स अफसर के पद से ऊपर उठकर, सहायक- कमिश्नर जो बन गयी थी। इस ख़ुशी में उसने, दोस्तों और परिवारजनों को शामिल किया। ऑर्केस्ट्रा पर देसी- विलायती धुनें बज रही थीं। मेहमानों में कयास लग रही थी कि हर बार की तरह, इस बार भी, इति का स्थानान्तरण होगा या नहीं। चर्चा खुसपुसाहटों का रूप ले चुकी थी। कोई कह रहा था कि इति अब प्रौढ़ हो चली है, ज्यादा स्ट्रेस नहीं ले पाएगी। बेहतर होगा कि उसका स्थानान्तरण न हो। इतने में, मानसी की चीख सुनाई पड़ी। वह जमीन पर गिरकर, छटपटा रही थी। शरीर अकड़ गया था, आँखें मानो बाहर को आ गयी थीं....और मुंह से झाग भी....!!


  यह देखकर, सौमित्र भागा चला आया। वह मानसी का भतीजा है। उसने मानसी बुआ को, अपनी कार में डालकर, अस्पताल पहुँचाना चाहा। किन्तु यह हो न सका....बुआ ने उसकी बांहों में दम तोड़ दिया! अब लगे हाथ यह भी बता दूँ कि सौमित्र मेरी छोटी बहन नीना लाल का होने वाला दामाद है और मैं ....मैं मीना सिन्हा- इस कथा की सूत्रधार....! यह क्या.... आप हंस रहे हैं?! कहानी ऐसी ‘नॉनस्टॉप पेस’ में भाग रही थी कि दम ही नहीं ले रही थी- तभी तो परिचय देने का मौका नहीं मिला। इति के साथ हुए हादसे के बाद से, हमारा परिवार, विचित्र से घटनाक्रम में उलझ गया है। कहना न होगा कि घटनाक्रम, अगाथा क्रिस्टी के किसी उपन्यास का हिस्सा लगता है।


 पूरा सिलसिला कुछ यूँ रहा कि इति के घर में कोई सी.सी.टी.वी.नहीं था। कैटरिंग वालों ने, घर के बरामदे में अपना डेरा जमाया। इति ने उस दिन, एक अलग किस्म का, ड्रिंक आर्डर किया। बैरा इति के लिए, पुदीने और इलायची से बना कॉकटेल, लाने ही वाला था कि शार्ट -सर्किट से बत्तियां गुल हो गयीं। वेटर चकराया सा खड़ा रहा। इस बीच ही, कोई अपना ‘काम’ कर गया। अपराधी कहीं से भी आ सकता था। बरामदे से सटे, घर के पीछे वाले दरवाजे से, या फिर रसोई की तरफ से। वहां किसी को किसी का होश नहीं था, लिहाजा शार्ट -सर्किट करने और अंधरे का फायदा उठाकर, इति के ड्रिंक में जहर मिलाने तक, किस- किसकी मिलीभगत रही- कोई बता न सका।


   उसके बाद पुलिस ने आकर, अपराध- स्थल को सील कर दिया। किन्तु पहले लोगों की तलाशी हुई, रसोईं- कक्ष खंगाला गया। कहीं से कुछ न निकला। उपस्थित मेहमानों और कैटरिंग वालों के, फिंगर- प्रिंट्स लिए गये। जहरीले कॉकटेल को, गिलास सहित, एविडेंस के रूप में सहेज लिया गया। प्रथम दृष्टया, कुछ भी संदेहजनक नहीं लगा। पूछताछ से पता चला कि जब इति और मानसी आपस में बतिया रही थीं, वेटर इति द्वारा आर्डर किया हुआ, पेय लेकर आया और उनके सामनेवाली मेज पर, रखकर चला गया। मानसी ने जिज्ञासावश इति से पूछा, “यह कोई सॉफ्ट- ड्रिंक है? इसे ‘मिंट’ (पोदीने) से डेकोरेट किया है।”


     “नहीं रे” इति ठठाकर हंसी,“जब तक नशा न हो, पार्टी का मजा कहाँ आता है! मिंट के साथ, अल्कोहल और इलायची को भी ब्लेंड किया है इसमें....यू नो समथिंग वैरी यूनीक.... आउटस्टैंडिंग फ्लेवर!” 


      “कैन आई ट्राई दिस वन.... इफ यू डोंट माइंड....” “व्हाई नॉट....गो अहेड! मैं अपने लिए दूसरा मंगवा लूंगी” यह सुनकर, मानसी ने गिलास उठाया और उससे एक घूँट भरा। उसके बाद जो हुआ- आप सबको पता ही है! आमंत्रित लोगों को, जांच के बाद, जाने दिया गया। वहां मौजूद घरवालों और विशिष्ट अतिथियों को, गुत्थी सुलझने तक, शहर न छोड़ने का निर्देश मिला। खानपान की व्यवस्था करने वालों को, आगे की इन्क्वायरी के लिए रुकना पड़ा। बाद में उन्हें थाने ले जाया गया।   


                    ( भाग- १ समाप्त)


 

भंवर( अपराध- कथा, भाग- २)


 पुलिस- थाने में, कैटरिंग- मैनेजर और स्टाफ मौजूद रहे। उन सबसे घटना के बारे में, खोद- खोदकर पूछा गया। पता चला कि एक नेपाली वेटर दीपू थापा भी था, जो स्टार्टर पेश करने के लिए, लिविंग- रूम में, ट्रे लिए घूम रहा था। गलती से( या जान- बूझकर) वह इति से जा टकराया। उसकी इस हरकत से वह बौखला गयी। इति ने कैटरिंग- मैनेजर को बुलाकर, उस बैरे को निकालने का हुक्म दिया। स्नैक्स सर्व करने के लिए, किसी दूसरे बन्दे को बुला लिया गया। मैनेजर सोहन ने दीपू को, जोर से डांट पिलाई। मुख्य रसोंइये धीरू ने बताया कि सोहन साहब, थापा पर बहुत खफा हुए। ड्रिंक्स बनाने जैसे, इक्का- दुक्का काम निपटाकर, थापा को, वहाँ से दफा हो जाना था। बाद में सोहन सर, उसकी ‘क्लास’ लेते!


 जाते- जाते दीपू ने, इति के ड्रिंक के लिए, इलायची कूटकर दी थी। जिसमें इलायची कूटने का काम किया गया, वह इमामदस्ता भी गायब था! सोसाइटी वालों से बातचीत के दौरान, आगे की बात खुली। सोसाइटी के वाचमैन ने, थापा को एक बैग लेकर, हड़बड़ी में बिल्डिंग से निकलते हुए पाया। थापा के हाव- भाव देखकर शंका हुई तो चौकीदार ने हाथ पकड़कर उस रोकना चाहा। इस पर वह हाथ छुड़ाकर भागा और थैला वहीं गिर गया। वाचमैन गिरधर ने वह बैग, अपने केबिन में संभालकर रख लिया था। इस बीच गिरधर की ड्यूटी ख़त्म हुई और दूसरा चौकीदार ड्यूटी पर आ गया।


   गिरधर से वह थैला बरामद कर लिया गया। इधर पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टर परेशान थे। जिस जहर से मानसी की मौत हुई, उसका कुछ पता नहीं चला। यह पहेली भी, दीपू थापा के झोले ने सुलझा दी। झोले में, रसोईं से गायब हुआ, इमामदस्ता पाया गया। इमामदस्ते में, इलायची के एकाध कुचले हुए दानों के साथ, कुछ और भी चिपका था। फोरेंसिक डॉक्टर ने, उसे फोरसिप से हटाकर अलग किया और ग्लास -स्लाइड में रखा। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पता चला कि वह कोई अधकचरा सा बीज था। उस बीज के रासायनिक -विश्लेषण ने, मानसी की मौत पर से, एक और पर्दा हटा दिया।


    यह बीज केरल के ‘सुसाइडल ट्री’, सरबेरा ओडोलम का था और इसके विषैले प्रभाव से ही, मानसी की जान गयी। लो कर लो बात! कहाँ लखनऊ का जश्न....और कहाँ केरल का ‘सुसाइडल ट्री’....दोनों का दूर- दूर तक कोई मेल नहीं!! और तो और.... पार्टी में कौन ऐसा सिरफिरा था, जो ‘शॉर्ट नोटिस’ पर केरल भागा चला गया और वहां से, ‘सरबेरा ओडोलम’ के बीज, अंटी में बांधकर ले आया....लैंडिंग वापस लखनऊ में हुई- वह भी ऐन वक्त पर! बन्दा किसी सुपर- विलेन की तरह, दीपू थापा से मिला और इति की मौत का सामान, उसे थमा गया। इतनी मशक्कत, एक अदने से मर्डर के लिए?! यह तो हनुमान जी के, संजीवनी- बूटी- प्रसंग में, उड़ान भरने जैसा, अविश्वसनीय रहा!! ‘नींद की गोलियां’ या कीटनाशक ‘सल्फास’, सुभीते से उपलब्ध हो जाने वाले विष हैं, तब काहे को इतना बवाल?!


     जो भी हो, काण्ड का पता चलते ही मौसा –मौसी लखनऊ भागे चले आये। उन्होंने तय किया कि बेटी को कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे, अपने बरेली वाले घर को किराए पर चढ़ा देंगे और इति की नियुक्ति जहाँ भी होगी, उनका डेरा वहीं जमेगा। बावर्ची धीरू और कैटरिंग -मैनेजर सोहन से, दीपू को लेकर, कड़े सवाल पूछे गये। थापा उनकी कैटरिंग –कंपनी का हिस्सा कैसे बना, यह भी एक ज्वलंत प्रश्न था। इस सबसे जो हासिल हुआ, वह चौंकाने वाला था। दीपू को मानसी ने ही काम पर रखवाया था। पहले वह, उसके बंगले में, चौकीदारी करता था। मानसी का सम्पर्क, दीपू और सोहन, दोनों से था। सोहन अक्सर, मानसी के यहाँ घरेलू उत्सवों में, खाना सप्लाई किया करता था।


मानसी के पति रोहन को, नया कारोबार शुरू करना था। उन लोगों ने, अपना पुराना खानदानी बंगला बेचकर, पैसे जुटाए और बोरिया- बिस्तर लेकर, इति की सोसाइटी में शिफ्ट हो गये। उनका फ्लैट, इति के ब्लाक में ही था। बंगला बिकने के बाद, दीपू बेरोजगार हो गया। पुरानी पहचान के चलते, मानसी ने सोहन के संग, दीपू का जुगाड़ फिट कर दिया।


 इन बातों से तो लगता था कि इति की हत्या के प्रयास में, कोई न कोई भूमिका मानसी की भी थी। फिर वह खुद, इति पर चलाये गये, तीर का निशाना क्यों बनी?! सोचती हूँ तो दिमाग बेतरह उलझ जाता है। ऐसे में, पुरानी फिल्म का यह गीत, याद आता है-


     “शिकारी खुद यहाँ, शिकार हो गया


      ये क्या जुल्म हुआ, ये क्या सितम हुआ


      ये क्या गजब हुआ, ये कैसे कब हुआ....”


  इति वर्मा, जहरखुरानी केस में, एक परिवर्तनकारी घटना और घटी- वह यह कि उसका कनिष्ठ सहकर्मी रह चुका हरीश मेनन, शक के दायरे में आ गया। दबी जबान से चर्चा हुई कि हरीश ने उसकी ‘विशेष कृपा’ लेने से इंकार कर दिया था, इसलिए पदोन्नति से हाथ धो बैठा। साक्ष्य के बिना, किसी को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं....परन्तु जब एक जैसे अनुभव, बार- बार होते हैं- संदेह का कीड़ा कुलबुला उठता है! मेरी छोटी बहन नीना के अनुभव को ही लो। इति की बड़ी दीदी मति, अपना इलाज करवाने, अक्सर दिल्ली आती थी। वह इति को भी साथ लाती थी। दोनों नीना के यहाँ ही रुकती थीं। एम्स मेडिकल सेंटर में, उनका अपॉइंटमेंट रहता। इस बीच इति ने, नीना के पति, सुकेत को फांसना शुरू कर दिया। सुकेत भी उसके झांसे में आ गया। यह सब, मति की शह पर होता रहा। वह तो यही चाहती थी कि इति उसके पति को छोड़, सुकेत का ‘शिकार’ करे।


   तो वापस आते हैं- हरीश मेनन पर। यह महाशय केरल से सम्बन्ध रखते हैं। चौंक गये ना! वही केरल, जिससे ‘सरबेरा ओडोलम’ का सूत्र भी जुड़ता है। मजे की बात यह कि इनके फ्लैट में, इसके बीज भी पाये गए। सवाल -जवाब और धमकियों की खींचातानी के बीच, हरीश ने माना कि इति ने अपनी तानाशाही से, ऑफिस में उसका जीना हराम कर दिया था, यह भी माना कि किसी परिचित की शादी में इति उससे टकराई और शराब के नशे में, वह कुछ उल्टा-सीधा कह बैठा। किन्तु वह इस बात से, साफ़ इनकार कर गया कि इति को मारने की कोई कोशिश, उसकी तरफ से हुई। यह जरूर था कि वह, ऑफिस के माहौल से तंग आ गया था। उसने अपनी स्टेनोग्राफर की नौकरी से त्यागपत्र देकर, अपने गृह स्थान तिरुवनंतपुरम का रुख किया । उधर वह, किसी परिचित रिश्तेदार की, टेक्सटाइल कंपनी से जुड़ गया।


   लेकिन वहां भी उसका मन ना लगा। उसने लखनऊ का अपना फ्लैट बेचकर, तिरुवनंतपुरम में ही, छोटी दुकान खोलने का मन बना लिया। व्यक्तिगत समस्याओं के कारण, वह अवसाद में आ गया था। पुलिस को दिए अपने बयान में उसने कहा कि सुसाइडल ट्री के बीज, वह अपने साथ रखने लगा ताकि इस बेमुरव्वत दुनिया से, दामन छुड़ाने का, तरीका निकाल सके। यह बात और है कि ऐसा कर पाने का साहस, वह नहीं जुटा सका।


     इससे भी बड़ा विस्मयकारी समाचार यह था कि मानसी, हरीश के यहाँ जा चुकी थी। वे दोनों तो साथ काम करते थे। एक बार हरीश, लम्बे समय तक बीमार पड़ा। तेज बुखार होने के कारण, वह कई दिनों तक ऑफिस नहीं आ पाया। मानसी उसकी इमीडियेट बॉस थी। नैतिक जिम्मेदारी के तहत, अपनी असिस्टेंट रमा के साथ, उसका हालचाल लेने गयी थी। बातों- बातों में ‘सरबेरा ओडोलम’ का जिक्र हुआ। तब उसने, उनमें से कुछ बीज देने का अनुरोध किया। उसके एक परिचित, बॉटनी में प्रोफेसर थे। वह उन्हें यह बीज दिखाना चाहती थी। हरीश और रमा, दोनों ने ही, उस प्रोफेसर के बारे में, पूछना मुनासिब न समझा। अब जब मानसी जा चुकी थी, पुलिस को यह कौन बताता?! हालांकि पुलिसकर्मियों ने कोशिश बहुत की, किन्तु इस रहस्य का पता नहीं लगा सके।


               ( भाग- २ समाप्त)


 

भंवर (अपराध- कथा, भाग -३)

 हर अपराध का एक मनोवैज्ञानिक- पक्ष होता है, जिसे विशुद्ध अंग्रेजी में’ साइकोलॉजिकल- एंगल कहते हैं। आखिर इस अपराधी का, क्या मनोविज्ञान था.... उसकी इति से क्या खुंदक थी....हत्या के पीछे, उसका उद्देश्य क्या था?? यह जानने के लिए, हो सकता है, हमें इति के अतीत की, चीरफाड़ करनी पड़े....उसके व्यक्तित्व के, काले रहस्यों को, खोदना पड़े। किसी भी जिज्ञासा का समाधान, सहज नहीं होता –


          ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहिरे पानी पैठ, मैं बपुरा बूढ़न डरा, रहा किनारे बैठ’


 आप पूछेंगे कि मुझे सब कुछ, जान लेने की बेताबी क्यों है? मेरा उत्तर होगा कि इति मेरी सगी मौसी की बेटी है। उसके बारे में, मुझे पहले से ही, बहुत कुछ मालूम है। वे मालूमात ही, मुझे चैन से बैठने नहीं देतीं! इस उतावलेपन को कम करने का, एक ही उपाय है- मैं इति के बारे में, हर वह बात करूं, जो मामले से जुड़ी हुई है। शुरुआत हमारे परिवारों और उनके बीच पल रहे, मतभेदों से करती हूँ। मेरे नाना, नानी की दो ही संतानें रहीं। पहलौठी मेरी माँ रुक्मिणी और दूसरी मेरी मौसी रोहिणी। उम्र में लगभग, दो बरसों का अंतर। माँ धीर- गंभीर, अध्ययनशील और सीधी- सादी थीं, जबकि मौसी एकदम उलट- खिलंदड़ी, बेपरवाह और बला की चालाक! माँ, मौसी जितनी सुंदर तो नहीं, किन्तु बहुत सुघड़ थीं। मौसी पर तो कुदरत ने, सौन्दर्य का खजाना ही लुटा दिया था।


  विवाद की शुरुआत तब हुई जब माँ का विवाह, एक सम्मानित घराने में तय हुआ। उन दिनों लड़का- लड़की की आपसी सहमति, बहुत मायने नहीं रखती थी। थोड़ी- बहुत असहमति हुई भी तो शर्माशर्मी में दबा दी जाती थी। माँ को कोई देखने आता तो मौसी को छुपाकर रखना होता। कारण- उनकी जरूरत से ज्यादा खूबसूरती। उन्हें देखने के बाद वरपक्ष, भला माँ में रूचि कैसे लेता?! इस बार भी वैसा ही हुआ। लेकिन सगाई की रस्म में, मौसी को पर्दे से बाहर आना ही पड़ा। उनका ‘तथाकथित’ जीजू से परिचय कराया गया। ऐसा सुदर्शन पुरुष, उन्होंने पहले नहीं देखा था, लिहाजा मन बेकाबू हो उठा। मौसी की अदाएं देखकर, माँ का मंगेतर भी, दिलोजान से उन पर, फ़िदा हो गया। उसने रोहिणी से विवाह करने की, जिद पकड़ ली। लोकलाज का प्रश्न था, अतः लड़के के कुटुंब- वालों ने, हल्का विरोध दर्ज किया, किन्तु उन सबकी एक ना चली। मुद्दा यह था कि बड़ी बहन का रिश्ता तोड़कर, छोटी बहन से कैसे किया जाये?! ठुकराई गयी लड़की का ब्याह, अन्यत्र कैसे होगा??


   नानी, मौसी पर बहुत क्रोधित हुईं। अपनी ही बहन के सौभाग्य पर डाका डालना, जघन्य पाप था। सगाई की रस्म में, रोहिणी तो खुल्लमखुल्ला, होने वाले जीजा पर डोरे डाल रही थी। लड़के की माँ को भी यह लड़की, हद से बढ़कर शातिर लग रही थी। होनी फिर भी होकर रही। भावी जीजा को, मौसी ने अपनी जीत का पदक बना लिया। नैतिक दायित्व का निर्वहन करते हुए, वर के पिता ने, अपनी विधवा बहन के बेटे संग, रुक्मिणी को बाँध दिया। उनका यह भांजा, उन पर पूरी तरह आश्रित था, इसलिए उसके विरोध का कोई प्रश्न नहीं था। मौसी को लेकर, माँ के मन में, यह पहली गाँठ थी। यह तो अच्छा हुआ कि हमारे पिताजी को ब्याह के तुरंत बाद, एक अच्छी नौकरी मिल गयी और माँ, मौसी के परिवार में, दोयम दर्जे की हैसियत से बच गईं।  


   बात दूसरी पीढ़ी की करें तो मौसी की मुंह लगी बिटिया इति, उनकी प्रतिकृति रही- वही रंगरूप....वही उच्छ्रंखलता.... स्वच्छंद रवैया! दोनों सगे जीजा, उसने वश में कर रखे हैं....और (जैसा कि पहले बताया) मौसेरे जीजा, यानि नीना के पति सुकेत को भी। भांजियों में उसे, कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं, लेकिन भांजों से लाड़ लड़ाती है। उनकी जिद पूरी करना और उनसे अपनी बात मनवाना, उसे भाता है। कार्यक्षेत्र में, अपने अधीनस्थ पुरुष सहकर्मियों पर, शासन करना, उसे बहुत प्रिय है। बड़ी- बूढ़ियाँ उसके असामाजिक- व्यवहार को देखकर, दाँतों तले उंगली दबा लेती हैं। वह शुरू से ही, अच्छा खा- कमा रही है, सुंदर और उच्च- शिक्षित भी है। ब्याह के बाद, पति उसे सर- आँखों पर रखता.... तो किसलिए, हर विवाह- प्रस्ताव को, ठुकरा देती रही?? कुछ परिचित औरतें तो यहाँ तक कहती हैं कि वह आवारा है, किन्तु मौसी पर, कही- सुनी बातों का, कोई असर नहीं होता। इति उनके लिए, कमाऊ पूत जैसी है!


  मुझे यह प्रबल अनुभूति हो रही है कि इस ‘पुरुषवादी’ स्त्री के साथ, किसी पुरुष ने ही, मौत का खेल खेला है। इस काण्ड के पीछे, मजबूत मकसद तो कइयों का रहा होगा। इति के ‘ढंके- छुपे सम्बन्ध’, साक्ष्यों के अभाव में, दुनिया के सामने, भले ना खुल सके हों- पर एक संभावना तो बनाते ही हैं। कभी –कभी उसके लिए, मेरी भोली माँ की आँखों में भी, नफरत के अंगारे, उमड़ पड़ते हैं....कुछ ऐसे, कि मैं हिल जाती हूँ! लेकिन नहीं! यह मैं क्या सोच रही हूँ.... माँ तो एक छोटी चींटी तक मार नहीं सकतीं- तब उसे कैसे....?? इति, माँ के मन में पड़ी, दूसरी गाँठ है। उनके अपने जंवाई सुकेत पर, मंतर जो फेर रखा है! इति से भी अधिक रोष, माँ को मौसी से है। यह कैसे संस्कार दिए लाडो को??


   उसने तो अपनी सगी बहनों को भी नहीं बख्शा! बड़े जीजू मदन के साथ, वह अकेले सिनेमा और बाजार जाती रही। बड़ी बहन मति, अपनी ही व्याधि से परेशान रहती- कुढ़ने और झींखने के अलावा, कर भी क्या सकती थी?! उसकी छोटी दीदी रीति, पहले तो उसे बहुत सर चढ़ाती रही, किन्तु उसके लक्षण देख, कन्नी काटने लगी। अब उसके संग, पर्यटन- स्थलों पर घूमने का, प्लान नहीं बनाती। कारण स्पष्ट था। उन्हें इस दौरान, होटल में ठहरना होता। रीति का छुटका बेटा और पतिदेव उसके संग सोते, जबकि दोनों बड़ी बेटियां, इति मौसी के साथ, रूम शेयर करतीं। किसी ना किसी बहाने, छोटे जीजू शलभ को, इति साथ ले जाती। कभी ए। टी। एम। से पैसा निकालने का बहाना, कभी होटल के बैले-रूम या ‘बार’ के नजारे दिखाने का। शलभ की सयानी होती बेटियाँ भी, यह दबाव महसूस कर रही थीं।


    मति दीदी के किशोर बेटों को, जिस तरह, इति चिपटाती- चूमती है, जिस तरह उनके बीच, बिस्तर में पसर जाती है, और फिर....चौड़े सीनों पर, अपने हाथ रख देती है....मासूमियत ओढ़कर, उनके साथ सोने की जिद करती है- उसकी नीयत पर शक होता है। पर बच्चों की नानी रोहिणी, यह सब देखकर भी, अंधी बनी रहती है! पैसों के लिए, उन्हें इति मौसी का ही आसरा है। नाना की कमर तो, अपने संयुक्त परिवार को पालने- पोसने और बेटियों को ब्याहने में ही टूट गयी।


      बच्चे भी क्या करें?! उनके पिता, माँ के देहांत के बाद, उनकी तरफ से बेपरवाह हो गये हैं। ‘दान- दक्षिणा’ के लालच में, उन्हें ननिहाल भेज देते हैं। माँ ने बीमारी के कारण, वी। आर। एस। ले लिया था। घर माँ की पेंशन से चलता रहा। पिता ने तो अपना पैतृक व्यवसाय, डुबो ही दिया। अलबत्ता इति मौसी के साथ, ‘टाइम पास’ करने से, उन्हें कोई गुरेज नहीं।


       आपने देखा, इति के जीवन के, कई वैध- अवैध प्रसंग हैं। मेरा मानना है कि वर्तमान संकट के मूल में, इनमें से ही कोई न कोई, अवश्य है। मैं फिर कहती हूँ कि सबूतों के बिना, किसी पर इलज़ाम लगाना ठीक नहीं। ।।आपका क्या कहना है?   


          ( भाग ३- समाप्त )


                                                    

भंवर ( अपराध- कथा, भाग– ४)

इस दुर्घटना के समानांतर, हमारी घरेलू समस्या भी आकार ले रही थी। इन दिनों इति की सुकेत से घनिष्ठता बढ़ती ही जा रही थी। सीधी- सरल नीना को, जब इस बात का पता चला, उसके पैरों से जमीन ही खिसक गयी! उसे अपनी थुलथुल देह से डर लगने लगा। पति को वापस पाने के लिए, उसे पहले जैसी छरहरी काया चाहिए। घरेलू स्त्रियाँ अक्सर, अपनी तरफ से लापरवाह हो जाती हैं। सुकेत नीना से झूठ बोलकर, इति के साथ, एकांत के पल तलाशता रहता। दोनों मिलकर नीना की आँखों में धूल झोंकने लगे। यहाँ तक कि जीजा अपनी साली के सामने ही, पत्नी का अपमान करने से नहीं चूकता। साली भी अकड़ में, वैसा ही व्यवहार कर रही थी।


  मौसी इस घनिष्ठता को, अपना मूक समर्थन देती रहीं। मौसा तो पत्नीपरस्त थे ही, सो बीच में टांग नहीं अड़ाते। मुझे भी धीरे- धीरे विश्वास होने लगा है कि मौसी ने माँ के जीवन के साथ, जैसा खिलवाड़ किया, वैसा ही नीना के साथ भी करने वाली हैं। वैसे भी उनकी बदनाम बेटी को, प्रौढ़ावस्था में कौन अपनाता?! हमारे परिवार से यूँ भी, उन लोगों को जलन है। उनके परिवार में कोई बेटा नहीं जबकि हमारे पास, हमारा छोटा भाई निहाल है। हमारे परिवार के दोनों दामाद, उस घर के दामादों से, कहीं अधिक सुयोग्य हैं। ईर्ष्या की आग में घी पड़ने के, अनेक कारण रहे.... नातेदारी में औरतें, मौसी की किस्मत पर अफ़सोस जाहिर करती थीं कि उन्होंने एक भी बेटा नहीं जना। यहाँ तक कि नानी और माँ भी ऐसी टिप्पणियां करके, अपनी पहले की भड़ास निकालतीं थीं।


   माँ से इति ने, इसके चलते ही, पुरानी दुश्मनी मान रखी है। सुकेत को इशारों पर नचाकर, वह माँ का खून जलाती रहती है। ऐसा करने में उसे, एक अलग ही सुकून मिलता है! इति का बागी रवैया, बचपन की कड़वी यादों की देन है। उसे ऐसा जताया जाता- मानों लड़की के रूप में जन्म लेकर, उसने कोई जुर्म कर दिया हो! ननिहाल हो या ददिहाल- हर जगह, सौतेला व्यवहार। शनैः शनैः, मन में कुंठा पनपने लगी। उसने तय किया, वह हर मायनों में, लड़का बनकर दिखायेगी.... किसी लड़के की तरह, अपनी शर्तों पर जियेगी। इति जानती थी कि ब्याह के बंधन में बंधने के बाद, उसकी हैसियत, दोयम दर्जे की हो जायेगी। इसी से, शादी का, लगातार विरोध करती रही।


   कितु देह की भी कुछ मांगें होती हैं। वह मांगे उसे, विवाह- संस्था से इतर, सम्बन्ध बनाने को उकसाती रहीं। यद्यपि उसके यौनिक- व्यवहार में भी, काफी हद तक, लडकों की तरह ही स्वच्छंदता थी, तथापि उसे अपने सामाजिक- मानदंडों का भी ज्ञान था। इस वजह से, किसी शातिर की तरह, वह उन रिश्तों को दबा- ढंका रखती। पर जैसा कि कहा गया है- जहाँ आग होती है, वहां धुआं भी उठता है, उन संबंधों की कलई, कहीं न कहीं खुल ही जाती।


 एक और बात है। हमारे समाज में, देवर- भाभी और जीजा साली की दोस्ती को, सहज मान्यता मिली हुई है। यह एक ठोस वजह है, जिसकी आड़ में, अवैध सम्बन्ध और अपराध, धड़ल्ले से पनपते हैं। स्याह को सफेद कर देने की ताकत है- ऐसी गलत सोच में! इति को भी यहीं पर, अपनी दाल गलती हुई दिखाई पड़ी। स्वेच्छाचारिणी इति, बॉलीवुड की उन प्रौढ़ हीरोइनों की तरह है जो अपने ‘करियर’ या योग्यता को भुनाने के नाम पर, ब्याह नहीं करतीं। यह कोई राज नहीं कि वे किस तरह की खेली- खाई औरते हैं! वह न जाने कितने, प्रेम- प्रसंगों और लिव- इन अनुभवों से गुजरती हैं....जाने कितनों को डेट करती हैं....।लेकिन जब सुन्दरता और जवानी की ‘एक्सपायरी डेट’ आ जाती है, ‘शराफत से’ विवाह मंडप में बैठ जाती हैं।


  यह जरूर है कि इसके लिए, उनको किसी का बसा- बसाया घर, उजाड़ना पड़ता है। तो क्या! शादी के बाद, वे किसी जाने- माने बिजनेसमैन या पैसे वाले प्रोड्यूसर की बीबी कहलाती हैं! अपनी गृहस्थी पर यह संकट, नीना प्रबलता से महसूस कर रही है। यहाँ तक कि समस्या से निपटने के लिए उसने, परिवार के विश्वसनीय और अनुभवी बुजुर्गों से राय भी माँगी है। आप भी अपनी सलाह, अवश्य दीजिये।


   ( भाग- ४ समाप्त )


  

(भंवर अपराध कथा, भाग -५)

कथा के इस पड़ाव पर, कुछ ऐसा घटा, जिस पर किसी को आसानी से यकीन न हो! आप अपने कानों से भी सुनेंगे तो एकबारगी, भरोसा नहीं कर पायेंगे! बात कुछ ऐसी है कि मैं एक दिन, नीना से मिलने, उसके घर गयी। मुख्य द्वार पर ताला लगा था। मैं वापस जाने ही वाली थी कि मुझे भीतर से, कुछ आवाजें सुनाई दीं। मैंने घर का चक्कर लगाया और पाया कि पिछवाड़े का दरवाजा खुला हुआ था। फिर खिड़की से झांककर देखा, तो हमारी नीना की बिटिया सुनंदा की झलक मिली। वह अपने होने वाले पति सौमित्र से झगड़ रही थी,“यह क्या सौमित्र! ‘सरबेरा ओडनम’ तुम्हारे पास था....मुझे मानसी बुआ के दोस्त.... बॉटनी के प्रोफेसर अभिमन्यु जी ने बताया कि बुआ किसी के हाथों, उन्हें ये बीज भिजवाने वाली थीं। जो फाइनली उनको नहीं मिले!”


 “डरो नहीं डिअर, यह राज मैंने तुम्हारे अलावा किसी पर जाहिर नहीं किया”


  “पर क्यों सौमित्र!!”


  “पर क्या! इस कारण, तुम अपनी मम्मी को छोड़कर, मेरे साथ आने को तैयार नहीं थीं....कितना समझाया तुम्हें कि....”


   “हाँ मैंने कहा था कि शादी के बाद, यदि मैं माँ को छोड़कर गयी तो वे बिलकुल अकेली हो जायेंगी....पर इसका ये मतलब तो नहीं....!”


    “देखो अब हम शान्ति से फेरे ले सकते हैं। इति वर्मा दहशत में आ गयी है। फिलहाल वह तुम्हारे पापा की लाइफ में दखल नहीं देगी”


     “यू आर नोट गेटिंग माय पॉइंट....इस वजह से किसी की हत्या हो गयी है! वह भी तुम्हारी अपनी बुआ की!! उनकी चिता पर, हम अपनी खुशियों के फूल, कैसे खिलाएंगे सौमित्र!!!” इस पर काफी देर तक सन्नाटा छाया रहा। कुछ देर बाद सौमित्र ने हकलाते हुए, मरियल सी आवाज में कहा, “देट ब्लडी ट्रैप वाज़ नोट फॉर हर....वह तो गलती से....यू नो शी बिकेम विक्टिम....!!” उसके आगे के शब्द, उदासी में, कहीं खो से गये थे! देर तक सुनंदा के सिसकने का स्वर सुनाई पड़ता रहा। मैं और जब्त ना कर सकी और वहां से चली आयी।


    इसके बाद का दृश्य क्या बताऊँ! इति से झूठी- सच्ची सहानुभूति जताने, सब रिश्तेदार जमा हुए थे। मैं उसके बगल में ही बैठी थी। इति ने सौमित्र को इशारे से बुलाया और गहरी नजरों से देखते हुए फुसफुसाई, “मुझे पता चल गया है सौमित्र, कातिल कौन है....लेकिन मैं किसी को नहीं बताऊंगी। उसकी आँखों का भाव देखकर, हम दोनों ही कांप गये! आखिर वह जानकर भी, अनजान क्यों बनी थी?! क्या उसे पारिवारिक मर्यादा का लिहाज था या फिर अपनी पोल- पट्टी खुल जाने का भय! और सौमित्र....! उसके चेहरे पर तो हवाइयां उड़ रही थीं। दूर कहीं गाना बज रहा था- ‘ हा! बचके रहना रे बाबा, बचके रहना रे


बच के रहना रे बाबा, तुझ पे नज़र है


बच के रहना रे बाबा, बच के रहना रे


बच के रहना रे बाबा, तुझ पे नज़र है


अरे तेरे लिए आए तेरे ही दीवाने


झूमे नाचे गायें आए रंग जमाने


कैसे-कैसे तौफे लाए तू क्या जाने


तू क्या जाने............।।


बच के रहना रे बाबा, तुझ पे नज़र है


बच के रहना रे बाबा, बच के रहना रे’


  (भाग- ५ समाप्त )


    


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