Shivam Rao Mani

Tragedy

3.5  

Shivam Rao Mani

Tragedy

भिखारी की भिक्षा

भिखारी की भिक्षा

3 mins
290


लोक डाउन का वक्त और दुकान की हालत गंभीर हो चली थी। वैसे लालाजी का सुपुत्र होने के नाते उनके ना रहने पर, मैं दुकान में बैठे जाया करता था। लोक डाउन के वक्त वैसे तो भिखारियों का आना जाना नहीं था लेकिन अनलोक होते ही उनका भी आना जाना शुरु हो गया था। ऐसे ही एक दिन एक भिखारी गेरू रंग के वस्त्र पहने, हाथ में डोलू और एक पंखा लिए दुकान पर आया। उसने आगे हाथ बढ़ाया ही था कि मैंने ना का इशारा कर दिया। उसने फिर भी एक उम्मीद में हाथ को थोड़ा और आगे बढ़ाया। मैंने उसे वजह बताई कि अभी एक भी रुपया नहीं है इसलिए मैं कुछ दे नहीं सकता। उसे लगा कि मैं देना नहीं चाहता इसलिए उसने हाजीर जवाबी में कहा," कोई नहीं मैं यहीं पर खड़ा खड़ा पंखे से हवा कर देता हूं, जब हो जाए तब दे देना।" उसकी यह बात मुझे तनिक भी ना भाई।

            ऐसा लगा कि कोई मुसीबत गले पड़ रही है। मगर उसको भगाता भी तो कैसे भगाता। वैसे भी मैं रहा दिल का मरीज, जरा भी आवाज ऊंची करता तो दिल का रोना अलग था। मैंने गल्ले में हाथ घुमाया, तो मुश्किल से दो रुपए का सिक्का मिला। अब मैं यह दो रुपए भी देने में झिझक रहा था, क्योंकि उस दौरान लोक डाउन के चलते दुकान की हालत इतनी खस्ता हो चुकी थी कि बेचने के लिए ना ही कोई टॉफी थी और ना ही एक व दो रुपए की कोई चीज। बस सिर के ऊपर रस्सी पर कुछ तंबाकू की पुड़िया ही थी जो दुकान के होने का दावा करती थी। लेकिन वह भी पांच व ₹10 की, और अगर इतने में कोई ₹10 देकर ₹8 की सिगरेट खरीदता तो उसको भी वापसी में दो रुपए देने पड़ते। लेकिन ले दे के दो रुपए का एक ही सिक्का बचा था।

           अब मैं यह सोचता कि किसी तरह इस महामंदी में कम से कम कुछ तो बिके। इसलिए काउंटर पर खड़े मेरी सेवा में पंखा कर रहे उस भिखारी को भी ना करना पड़ रहा था। फिर भी मैंने एक और बार गले में हाथ घुमाया और पूरे विश्वास के साथ ना कहा, लेकिन वह फिर भी नहीं माना। उसने अपने पंखे से हवा करने का कार्यक्रम जारी रखा। इसी बात पर मुझे एक और दिन याद आया जब एक भिखारी ने बड़ी उदारता का भाव प्रकट किया। लेकिन बाद में मुझे वह उदारता कम और हाल पर तरस ज्यादा लगा।

           दरअसल, अनलॉक के दौरान सुबह सुबह भिखारी भीख की मांगने की इच्छा में दुकान की चौखट पर चढ़ा जरूर, लेकिन अपने दूसरे कदम को बाईं तरफ मोड़ कर अपना रास्ता बदल दिया। यह देख कर बड़ा अजीब लगा कि भला कोई भिखारी बिना भीख मांगे अपना रास्ता बदल सकता है क्या? ठीक इसी तरह काउंटर पर खड़े, अरे नहीं नहीं काउंटर पर अड़े , मेरी सेवा में लीन इस भिखारी ने भी मुझे विचलित कर दिया। मैं पीछे होकर बैठ गया लेकिन वह अपने हाव भाव बदलने का नाम नहीं ले रहा था। मैंने सोचा अब बस बहुत हुआ भला कोई भिखारी इतना भी जिद्दी हो सकता है क्या? और तब जब अपने भी हालत उसके सामने थी।

         मैंने उसे घृणा से देखा और बड़े तैश में बिना कुछ और सोचे समझे वह आखिरी दो रुपए का सिक्का निकालकर सामने टेबल पर दे पटका। उसने धीरे से उठाकर अपने डोलू में डालकर हाथ से कुछ सिक्कों को इधर-उधर किया और दो रुपए के बदले एक रूपए का सिक्का निकाल कर सामने टेबल पर रखा और चला गया। मैं यह सब देखता रहा, मुझे अजीब लगा और ऐसा महसूस हुआ कि खुद भिखारी ही भीख देकर चला गया। कहीं ना कहीं मुझे अपना भी घमंड दिखा और उसका गुरूर भी । बस मैं सामने देखता रह और काफी देर तक, जब तक कि किसी ने उसे उठाने के लिए नहीं कहा।

 


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