बेटा हमारा टिकट करवा दो!!
बेटा हमारा टिकट करवा दो!!
सीमा जी "अरे आपको किसने कह दिया कि हम अपना मकान बेचने वाले हैं। हम अपने बेटे के घर जरूर जा रहे हैं, पर मकान नहीं बेचेंगे।" वसुधा जी गुस्से में बोली।
"अरे नहीं बहन... थोड़ी उड़ती -उड़ती बातें सुनाई दी थी कान में। तो मैंने सोचा चलूँ मिल भी लूँ और पूछ भी लूँ।"
" नहीं !नहीं सीमा जी इस घर में पूरी जिंदगी बिता दी। अपने मेहनत की कमाई से जिसे बनवाया उसको अपने जीते जी नहीं बेचूंगी। समर के पापा भी यही चाहते हैं। बनारस शहर में मकान कुछ ही लोगों का होता है, और हमारे कई रिश्तेदार भी यही हैं।" यह सब बातें सुन थोड़ी देर में सीमा जी चाय पी कर चली गई।
रात में दोनों अनिल जी व वसुधा जी सोने के लिए बिस्तर पर लेट गए। अनिल जी करवट बदल रहे थे। वसुधा जी बोली "नींद नहीं आ रही क्या?"
" हां......अब बेटे ने आकर अपने पास रहने को कह दिया। हम अपना घर छोड़कर रह पाएंगे क्या वसुधा? हम लोग क्यों बीमार रहने लगे? देखो वसुधा मैं अपनी दवा करा कर ठीक होते ही अपने घर आ जाऊंगा।" दुखी मन से बोले।
" अरे अनिल जी आप इतना विचलित क्यों हो रहे हैं? बेटे ने इतने प्यार से टिकट भेज कर बुलाया है तो जाना तो पड़ेगा ना।"
" यही तो.... तभी तो मैं भी मना नहीं कर पाया। कल की टिकट है" अनिल जी भारी मन से बोले।
"अपने सारे जरूरी सामान रख ली वसुधा।" थोड़ी देर में अनिल जी ने पूछा।
" हां रख लिया और अपने लड्डू गोपाल जी भी। शादी के बाद से मैं अभी तक उनकी सेवा कर रही थी इसलिए इनको भी अपने साथ रख लिया। इन्होंने ही मेरी जिंदगी इतने आराम से बिना कोई विपदा के चलाया है।"
अगले दिन की ट्रेन पकड़कर वसुधा जी व अनिल जी अब ना जाने कब तक के लिए अपने घर को छोड़ बेटे के घर मुंबई रहने चले गए।
समर ने मुंबई शहर में एक तीन कमरे का फ्लैट ले रखा था। उसमें समर, शुभी व उनके दो प्यारे-प्यारे बच्चे रहते थे काजल और अभी। जब दोनों छोटे थे तो साथ रहते थे पर अब गेस्ट रूम खाली रहने से दोनों ने एक-एक कमरे ले लिए थे ।
शुभी ने 9 साल की काजल को बोला कि मैंने तुम्हारा सामान अभी भैया के कमरे में शिफ्ट कर दिया है और अब तुम हमारे कमरे में आकर रहना।
" पर मम्मा अब तो मैं बड़ी हो गई। मैं कई महीने से वहां रह रही थी।"
" कोई बात नहीं बेटा... अब आपके दादा-दादी रहेंगे वहां।"
"ठीक है मम्मा मैं... आपके कमरे में आ जाऊंगी।"
काजल शुभी के साथ रहना शुरू कर दी।
समर और शुभी दोनों एक ही ऑफिस में काम करते थे। वह सुबह निकल जाते और शाम तक वापस आते। घर में काम वालों की कमी नहीं थी सफाई ,बर्तनों, खाने के लिए शुभी ने कामवाली बाई लगा रखी थी। बेटा बहू के ऑफिस जाने से तथा बच्चों के स्कूल चले जाने से अनिल जी व वसुधा जी को शुरु- शुरु में तो ठीक लगा। पर कुछ दिनों बाद उन्हें अपने पड़ोसियों, घर तथा शहर की बहुत याद आने लगी। बड़े शहरों में लोग ज्यादा बिजी होने से आसपास के लोगों से मिलने नहीं आते। यहां यही लाइफ स्टाइल है अकेले रहना। बहुत ही खालीपन लगता था दोनों को।
बेटे समर को कुछ दिनों में उनकी मायूसी का अंदाजा हुआ उसने बोला "आपकी उम्र के लोग नीचे सोसाइटी में सुबह टहलते हैं। आप लोग भी चले जाया करिए।"
अगले दिन से दोनों लोग वॉक पर जाने लगे। धीरे-धीरे उनके दोस्त बनने लगे तथा उनका मन लगने लगा।
एक दिन अनिल जी अपने कुछ दोस्तों को लेकर घर आ गए। समर घर से ही ऑफिस का काम कर रहा था उसने देखा कई लोगों को पापा लेकर आ गए घर में, और सब बहुत ही शोर गुल कर रहे थे। जिससे उसको ऑफिस के काम में तथा बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई जो चल रही थी उसमें दिक्कत होने लगी। उसे यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।
दो -चार बार ऐसे और होते ही उसने पापा से बोल दिया। "पापा आप इन लोगों से नीचे ही मिल लिया करें। ऊपर लाने की कोई जरूरत नहीं। यहां कोई किसी को अपने घर नहीं बुलाता।"
" पर बेटा अब ऐसे ही तो हमारा समय बीतेगा। जब हम उन्हें बुलाएंगे, तभी तो वह हमें बुलाएंगे।"
" नहीं पापा यह सब छोटे शहर में ही होता है। बड़े शहरों में लोग अपने काम से काम रखते हैं। वैसे भी बनारस में आसपास सारे अपने रिश्तेदार होने से वह अक्सर आकर मिल लिया करते थे। आप को लोगों से जितना मिलना है आप नीचे ही मिले या फोन पर बात कर लिया करिए।" समर इस तरह से उखड़ कर बोला।
अनिल जी व वसुधा जी को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा। उस रात वह दोनों ठीक से सो नहीं पाए। उन्हें लग रहा था कि उन्होंने यहाँ रहने का सोच के कुछ ग़लत तो नहीं किया। उनका मन किया कि जल्द अपने घर चले जाएं पर सोचा कि अभी कहेंगे तो बेटे को बुरा लगेगा।
वसुधा जी का भी मन कम लगे। ना करने को कोई काम, ना किसी से मिलना जुलना, बस फोन पर ही अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से बातों में लगी रहती।
एक दिन फोन पर बात कर रही थी शुभी ने सुन लिया। बाद में उसने भी टोकते हुए बोली "मेरी घर की बात आप किसी को भी ना बताया करें।"
वसुधा जी भी मायूस रह गईं, बहुत बंधापन व अनजानापन लगने लगा था उस घर में। ऐसा लगा कि खूब सुख सुविधा तो है पर अपनी इच्छाओं पर किसी ने लगाम लगा दिया हो।
तभी एक दिन लैंडलाइन पर बनारस जहाँ उनका घर था वहां से फोन आया। सौभाग्य से समर के व्यस्त होने से अनिल जी ने फोन उठा लिया। फोन करने वाले ने बताया कि मैं प्रॉपर्टी डीलर बोल रहा हूं। आपके मकान के बहुत अच्छे दाम मिल रहे हैं समर जी।
"मैं अनिल बोल रहा हूं" समर के पापा ने बोला।
प्रॉपर्टी डीलर बोला "मुझे समर जी से बात करनी है।"
अनिल जी बोले "कौन से मकान की बात कर रहे हो"
" अरे जो लहुराबीर पर है। समर जी ने बोला था कस्टमर ढूंढने के लिए। बहुत ही मोटी पार्टी मिली है।" सुनते ही अनिल जी को मानो काटो तो खून नहीं। उनकी जान बसती थी उस मकान में। उन्होंने तुरंत गुस्से से तेज आवाज में बोला "नहीं हमें कोई मकान नहीं बेचना" कह फोन काट दिया ।
उनकी तेज आवाज से समर वा वसुधा जी दौड़ते हुए आए। "क्या हुआ पापा"? अनिल जी की सांस फूलने लगी। वह वही निठाल सोफे पर होकर बैठ गए।
" बताइए किसका फोन था पापा।" समर भी घबराहट में प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहा था। वसुधा जी दौड़ के पानी लेने गई। पानी पीने के बाद अनिल जी ने अपने को संभाला।
" पापा कैसी तबीयत है" अनिल जी थोड़ी देर बाद गहरी सांस लेते हुए बोला "मैं बिल्कुल ठीक हूं। "
"पापा किसका फोन था?"
" प्रॉपर्टी डीलर का.... मकान बेचने को तुमने बोला है? मैं अपने जीते जी उस मकान को नहीं बेच सकता। मुझे अब जाना है अपने घर। बेटा हमारा टिकट करवा दो।"
वसुधा जी भी बोली "हां बेटा कई महीने हो गए। कुछ दिन वहां पर भी रह आए। तेरे पापा की तबीयत भी दवा से बहुत बेहतर हो गई है। अब हमें जाने दे।"
समर ने कहा "आप लोग यही रहिए।"
" नहीं बेटा फिर आएंगे अभी हमें जाना है।" कह अनिल जी और वसुधा जी के आंखों में आंसू आ गए।
" अरे पापा मम्मी आप लोग इतने मायूस मत होइए। मैं आज ही आपका टिकट करा देता हूं। मुझे लगा अब हम लोग साथ ही रहेंगे। तो वह मकान बेच दूं।" समर अपनी बात की सफाई देते हुए बोला।
अनिल जी फिर गुस्से से बोले "मुझसे पूछे बिना"
पापा के इस भाव को देखकर समर को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने बोला "माफ कर दीजिएगा पापा। मुझसे गलती हो गई ।"
अनिल जी बोले "वह मेरी और तेरी मां की खून पसीने की कमाई का बना हमारा एक खूबसूरत सपना है। उसे तुम हमारे मरने के बाद ही बेचना, अभी नहीं।" समर आंखों में आंसू लेकर गिड़गिड़ाते हुए पापा के पैरों पर आ गया था। फिर बोला "माफ कर दीजिए पापा। आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा।"
" ठीक है बेटा... पर अभी तो हमें जाना है। हमें अपने घर की याद आ रही है।"
समर ने अगले हफ्ते का उनका बनारस जाने का टिकट करा दिया। आज बहुत ही खुश थे। अनिल जी व वसुधा जी अपने घर जाने के एहसास से। वो दोनों फिर से वही अपनी आजादी, अपनी छूटी दुनिया व अपनी कर्मस्थली से जो मिलने वाले थे। चाहे कितने भी ऐशो आराम मिल जायें पर व्यक्ति तभी सुकून पाता है जब उसे बन्दिशों की बेड़ियोँ से स्वतंत्रता मिलती है।