Diksha Bharti

Thriller

3.5  

Diksha Bharti

Thriller

बाहर के नज़ारे !

बाहर के नज़ारे !

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180


छाओं में सुहानी सी हवा थी, 

मगर धूप भी आज एक अलग ही अंदाज़ से खड़ी थी ! 

मैं अपने बिस्तर पर लेटी लेटी, सिरहाने पर सर रख खिड़की से बाहर के

नज़ारे देख रही थी... 

नीला सा आसमां , खुले पंख लिए पंछी उस आसमान की ऊंचाइयां छू रही थी और कुछ तिनके लिए उड़ रही थी... 

धुप की तपिश इतनी तेज थी की, पेड़ पौधे यूँ मुरझा गये थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपनी माँ से रूठा हो... फिर हवाएं अपनी पहल से उस मुर्झाए से पत्तों को सहलाती तो वो पत्ते एक बार फिर खिलखिला उठते.....

बस ये सिलसिला चल ही रहा था और न जाने कब मैं उसमे डूब गयी... 

उस रोज़ बाहर सन्नाटा था मगर ये पत्ते और हवाओं के खेल से जाने कैसा शोर था जो मुझे अपनी ओर खींचता गया... 

बाकी सारी दुनिया धुंधली पड़ गयी... तो मैंने भी मुस्कुराते हुए उनसे अलविदा कह दिया !


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