अस्तित्व
अस्तित्व
-------------
"अरे देखो! गली के नुक्कड़ पर घुप अंधेरा है। बाबूजी को रास्ते के गड्ढे दिखाई नहीं देंगे। कहीं बाइक के साथ गिर न जाए। छोटू, जल्दी उठ, जा यह मिट्टी का दीया लेकर वहां खड़ा हो जा। बाबूजी के आने का समय हो गया है।"
"जी माँजी।"
अभी थोड़ी देर पहले ही सोने का बना दिया स्वयं के सोने के होने पर इठला रहा था।
मिट्टी के दीये द्वारा लाख समझाने पर भी, कि "हम किससे बने है, यह महत्व नहीं रखता। अगर कुछ महत्व रखता है, तो वह है हम क्या करते हैं और हमारी उपयोगिता क्या है।"
पर सोने के दीये के कान पर तो मानो 'जूँ तक नहीं रेंग रही थी'। वह गर्वित भाव से मिट्टी के दीये से उल्टी तरफ मुंह करके बैठा रहा और बस एक ही जगह बैठा रहा लेकिन अब उसका गर्व धीरे-धीरे कम होने लगा था, क्योंकि जिस मिट्टी के दीये के प्रति वह ओछी नजरों से देख रहा था, वही बाहर टहल आया था। प्रतिदिन वह प्रकाश देता था, लेकिन सोने का दीपक अब तिजोरी में जा चुका था, जहां तिजोरी का अंधेरा उसके अस्तित्व को नकार रहा था और दीपक को अपने सोने का बना होना अखर रहा था।