असहाय
असहाय
घर के बुज़ुर्गों के प्रति उपेक्षा की मन:स्थिति कमोबेश प्राय: सब जगह है। कोई उनकी बात नहीं समझता, न सुनना चाहता है, न पास बैठना चाहता है। उनके पास बैठने के लिये नौकर या नौकरानी का इन्तज़ाम कर दिया जाता है और यह भी देखने की ज़रूरत नहीं समझते कि उनकी सेवा ठीक से हो रही है या नहीं। जब घर के ही लोग उपेक्षा करते हों तो सेवक से या औरों से क्या उम्मीद रखी जा सकती है।
सत्तो भाभी अपनी सास से कभी नहीं पूछती थीं कि खाने में क्या बनेगा। न उनकी कोई राय लेती थीं। जो खाना बनकर आ गया उन्हें खाना पड़ता था, नहीं खायें तो भूखा रहना पड़ता था। उन्हें अकेले कमरे में छोड़ दिया गया था। वे अकेली पड़ीं पड़ीं कमरे के खुले दरवाज़े से बाहर की तरफ़ देखती रहतीं। सत्तो भाभी को यह भी नागवार गुज़रा। तो सत्तो भाभी ने उनके पलंग का सिरहाना दूसरी तरफ़ करा दियाऔर उनसे कहा-"आप उधर दीवार की तरफ मुँह करके लेटो। "
वे बहू के कहने से वे उधर मुँह करके लेटने लगीं। पर उधर एक ही करवट लेटे लेटे उनका बॉंया हाथ सूज गया और दुखने लगा। पर बहू के डर के मारे वे दूसरी तरफ करवट भी नहीं पलटती थीं।
बेटी माँ से मिलने पीहर आई तो माँ को कष्ट में पाया, हाथ सूजा हुआ था, माँ दर्द में थी। पर बेटी के पूछने पर उन्होंनें अपने मुँह से कुछ नहीं बताया। बेटी ने हाथ की सिकाई कर माँ को आराम पहुँचाने की कोशिश की। काफी दिन तक हाथ सूजा रहा।
माँ के पास दिन भर बैठने के लिये बेटे द्वारा एक नौकरानी का इन्तज़ाम किया गया,तो सत्तो भाभी ने उसे रसोई के काम में लगा लिया। अब वह नौकरानी सब्ज़ी काटे, बथुआ छाये, अदरक हरी मिर्च काटे ,या चूल्हे के पास खड़ी होकर कड़ाही में छौंकी सब्ज़ी चलाती रहे। अम्मा अकेली बिस्तरे पर पड़ी रहतीं। लघुशंका करनें उठतीं तो कोई सहारा देने को नहीं रहता। बिस्तरे से किसी तरह उतरतीं, घिसटकर बाथरूम तक जातीं जो कमरे के ही एक छोर पर था,किसी तरह कमोड पर बैठतीं , उन्हें किसी तरह का आराम नहीं मिलता था।
फिर माँ की सेवा करने के लिये बेटे द्वारा गॉंव से बुलाकर एक छोटी लड़की रखी गई,जो एकदम निरक्षर थी। माँ को उस छोटी लड़की पर दया आई, उसको उन्होंने गिनती सिखाई, थोड़ा जोड़-घटा सिखाया, हिन्दी पढ़ना सिखाया,कुछ अँग्रेजी के अक्षर भी सिखाये। फिर उससे हनुमान- चालीसा एवं रामायण पढवाकर सुनने लगीं। थोड़ी बड़ी होने पर उस लड़की की शादी हो गई,शादी होकर गॉंव गई, वहॉं उसकी बहुत तारीफ़ हुई कि पढ़ी-लिखी बहू आई है। माँ की वजह से उस लड़की की ज़िन्दगी बन गई। बिस्तरे पर लेटे -लेटे भी उन्होंने यह परोपकार समाज कल्याण ,शिक्षा का कार्य किया।
अकेली लेटी-लेटी या कभी सहारे से बैठकर माँ कभी- कभी कुछ गुनगुनाती रहती थीं। एक बार बैठी-बैठी वे कह रहीं थीं- "बोल मगरमच्छ कितना पानी"। " इतना पानी, इतना पानी।" और इसी तरह की दो- चार लाइन और थी। सत्तो भाभी माँ को इस तरह बोलता देख डर गईं और कहने लगीं-" इनका दिमाग ख़राब हो गया है।" उन्होंने बेटी से भी यह शिकायत लगाई।
बेटी ने माँ से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया-" बचपन में हम सब मिलकर यह खेल खेला करते थे। गीत है कि नदी में सखियों संग नहाते हुए एक के हाथ का कंगन नदी के पानी में गिर पड़ा ,कितने पानी में कंगन पड़ा है यह पूछने पर मगरमच्छ बतलाता है।
माँ ज़्यादा दुखी होने पर किसी से कुछ कहती नहीं थीं , बस "मैया -मैया "कहकर अपनी बरसों पहिले दिवंगत हुई माता को स्मरण करने लगती थीं। माँ ऐसी नियामत है कि असीम दु:ख में माँ का ही स्मरण आता है। पहिले कभी उनके मुख से मैया नहीं सुना था। उनकी छोटी बहिन उनसे मिलने आईं तो उन्होंने बताया कि ज़्यादा दुःख में ये मैया का स्मरण करती हैं ।अपनी मॉं को वे मैया कहती थीं ।वे बहुत हिम्मतवाली और सहनशील थीं। पर लगता है इस लाचारी और असहायावस्था ने उनका मनोबल तोड़ दिया था। उन्होंने ज़िन्दगी भर सबके लिये किया, सबका ध्यान रखा, पर अब इस वृद्धावस्था में कोई उनका ख़्याल रखने को नहीं था।