अंतर्मन
अंतर्मन
बुज़ुर्गों ने कहा है वक़्त रहते ग़लती सुधार लें तो वो ग़लती माफ़ हो जाती है और और ख़ुद का ज़्यादा नुकसान भी नहीं होता। मगर ऐसे कितने हैं ? जिन्हें वक़्त रहते अपनी ग़लती का एहसास हो जाता है।
कुछ तो ऐसे भी होते हैं कि ग़लती का पता होते हुए भी उसे मानते नहींं और आगे वही करते रहते हैं। हर एक इंसान अपने जीवन में कई सारी गलतियां करता है।
कुछ गलतियों को हम सुधार भी लेते हैं, और कुछ कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें हम मानकर भी नहीं सुधारते।
ऐसा एक किस्सा यहां में बताना चाहूंगी। ये ज़रूरी नहींं है कि कोई इंसान हमेशा किसी दूसरे-तीसरे व्यक्ति के लिए ही ग़लत कर रहा हो, कभी कभी वो खुद के साथ भी ग़लत करता है। अपनी आत्मा और अंतर्मन की पुकार को नज़रअंदाज़ करते हुए वो गलतियां करता रहता है।
मैंने भी कुछ ऐसा ही किया अपने साथ। अपने मन की आवाज़ को उसकी इच्छा को ठुकराया, उसे नज़रअंदाज़ किया, और ख़ुद को ऐसी दिशा में ले जा रही थी जहां मेरी मंज़िल नहींं थी। दिल चाहता कुछ था और मैं विपरीत सब करती गई।
एक वक्त आया जब समय के साथ बहते हुए मैंने अपने हर सपने को जैसे ख़ुद से दूर कर रखा था। मेरे पहचानवालों ने, दोस्तों ने, परिवार वालों ने भी मान लिया के अब ये यहीं रुक जाएगी। क्योंकि आगे बढ़ने के लिए जिस आवाज़ की ज़रूरत है वो उसे नहीं सुन रही, वो आवाज़ मेरे अंतर्मन की थी।
कभी कभार जब अकेले बैठती थी तो पता नहीं अंदर से घुटन सा लगता, जैसे कुछ ठीक नहींं है, दर सा लगता, जैसे कुछ छूट रहा है। फिर दैनिक कार्यों में व्यस्त हो जाती और ये सब दिमाग से उतर जाता। वो रात रात भर जग के पढ़ाई करना, ख़ुद को काबिल और साबित करने का जोश, प्रोफेशनल लाइफ.... ये सब जैसे कहीं दूर छोड़ आई थी। परिस्थितियां कुछ ऐसी थी कि मान लिया था अब ये सब दोबारा नहीं हो पायेगा मुझसे। फिर दिल के किसी कोने से आवाज़ आ जाती कुछ तो कर ले... किसी और के लिए न सही, अपनी आत्मा के लिए तो कर ले....उसे ज़िंदा रख।
एक दिन कपबोर्ड में पड़ी डायरी हाथ मे लिया और उसे पढ़ने लगी। कॉलेज के दिनों में बहुत शौक था लिखने का। उसी वक़्त के कुछ कविताएं पढ़ने लगी। थोड़ाी देर बाद फिर से गृहकार्य में व्यस्त होग यी पर हैं इस बार थकान थोड़ी कम लग रही थी, जैसे कुछ समय का "पावर-नेप" या झपकी लेकर उठी हूँ। काम करते करते जैसे दिमाग में बहुत दौड़ने लगा, मन कर रहा था जैसे ये सब में उस डायरी में लिख दूँ।
धीरे धीरे मैंने लिखना शुरू किया, कुछ वक्त अपने आराम के लिए नहींं बल्कि आराम के वक़्त को लिखने में लगाने की कोशिश की। कभी कभी शरीर थक जाता तो दिमाग भी बोलता अब थोड़ा सो जा। अपनी लिखी कविताओं और कहानियों को अपने जीवनसाथी, दोस्तों और सह कर्मियों के साथ बांटने लगी। सब ने प्रोत्साहित किया। सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी रचनायों को लोगों तक पहुँचाया। वहां से भी अच्छी टिप्पणियां आने लगीं। फिर क्या उत्साह बढ़ता गया और में लिखती गई।
एक रोज़ मैंने खुद की लिखी हुई रचनाएँ को पढ़ने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे यही आवाज़ आ रही थी कब से जो आज अक्षर बनकर मेरे डायरी में दिख रही हैं। तभी अंतर्मन ने कहा- तुम सुबह निकली तो थी पर ग़लत राह पे, मैंने बहुत बार तुम्हें रोकने की कोशिश की, आवाज़ भी लगाई, लेकिन तुम सुनी नहींं... खैर अब शाम को वापस आ गयी हो तो चलो साथ मिलकर अपनी बातों को इस डायरी से बाहर निकलकर लोगों तक पहुंचायें।
उनका मनोरंजन भी हो जायेगा और हमारा काम भी।
