हरि शंकर गोयल

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हरि शंकर गोयल

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अंतरात्मा

अंतरात्मा

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इस कहानी में "जी खट्टा होना" मुहावरे का प्रयोग किया गया है । 


अदालत खचाखच भर गई थी । सब लोग अपनी अपनी पोजीशन ले चुके थे । "न्याय की देवी" अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर हमेशा की तरह मौन खड़ी हुई थी । "गीता" मेज पर चुपचाप बैठी हुई थी और सोच रही थी कि हमेशा की तरह आज भी वह अपवित्र हाथों में जाने के बाद भी अपनी पवित्रता बरकरार रख पायेगी या नहीं ? उसके चेहरे पर निराशा और असमंजस के भाव थे। 

मेज पर एक विशालकाय "हथौड़ा" पूरे ऐश्वर्य के साथ विराजमान था । उसका अहंकार उसके चेहरे से टपक रहा था । उसके अहंकार का कारण भी था । अदालत में उपस्थित वकील , फरियादी, मुजरिम , स्टॉफ सभी लोग दंडवत मुद्रा में थे । ये हथौड़े का ही रौब था जिससे सब लोग हाथ बांधे खड़े हुए थे । हथौड़ा सबको इस मुद्रा में देखकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था । वह सोच रहा था "कितना ताकतवर है वह ! उसके सामने सब लोग कैसे नतमस्तक होकर खड़े हुए हैं । लोग सच ही कहते हैं कि ताकत के सम्मुख बड़े से बड़ा व्यक्ति भी शीश झुकाता है" । हथौड़े की ताकत का नमूना जनता कई बार देख चुकी थी जब संसद के बनाये कानूनों को हथौड़े ने कचरा पात्र में फेंक दिया था और एक जोर का अट्टहास किया था । उस अट्टहास की गूंज आज भी अदालत के विचारों में बसी हुई है । 


जैसे ही "धरती के भगवान" ने अदालत में कदम रखा , चारों ओर सन्नाटा व्याप्त हो गया । न्याय की देवी डर के मारे थर थर कांपने लगी और सोचने लगी कि कहीं पहले की तरह आज भी "न्याय" का कहीं चीरहरण तो न हो जायेगा ? गीता भी सरक कर मेज के एक कोने में छुप गई । उसे डर था कि कहीं कोई उसकी झूठी सौगंध न खा ले ? मगर हथौड़ा ! वह गर्व से और तन गया था । एक तो लकड़ी से बना हुआ था वह जो हरदम तना ही रहता था और दूसरे, वह "धरती के भगवानों" से ताकत पाकर उन्मत्त हाथी की तरह मदमस्त हो गया था । जब धरती के भगवान उसे अपने हाथ में लेकर मेज पर दो बार "ठक ठक" की आवाज करते हैं तब हथौड़े को लगता है कि संसार की सबसे मधुर आवाज यही "ठक ठक" की आवाज है । वह तो चाहता था कि इस "ठक ठक" की आवाज को "राष्ट्रीय धुन" घोषित कर दिया जाये , पर ये सरकार भी किसी अड़ियल टट्टू से कम नहीं है । 


"ठक ठक" की आवाज सुनकर अदालत में इतना सन्नाटा व्याप्त हो गया कि लोगों को अपने दिल की धड़कन सुनाई देने लगी । वैसे तो लोगों को अपने दिल की धड़कन भी कभी सुनाई नहीं देती है । "दिल" के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लग रहा है अब तो । मगर जब दिल अपनी पर आ जाता है तब लोगों को उसके होने का अहसास होता है और फिर उसकी आवाज या तो अस्पताल में सुनाई देती है या अदालत में हथौड़े की ठक ठक की आवाज सुनकर महसूस होती है । कभी कभार प्रेमिका का सामीप्य पाकर भी दिल की आवाज सुनाई देने लग जाती है । हथौड़े को अपनी ताकत पर गुमान हो गया । उसे लगा कि उसकी ताकत से ही "धरती के भगवानों" की "सत्ता" बनी हुई है । अगर वह नहीं हो तो इन्हें कौन पूछे ? 


अदालत की कार्रवाई प्रारंभ हुई । एक नाबालिग बच्ची के साथ हुए बलात्कार और उसकी हत्या का आरोपी व्यक्ति दुर्दांत सिंह एक कोने में सहमा सा खड़ा था मगर उसका वकील उसके पास आत्मविश्वास से लबरेज होकर मुस्कुरा रहा था । उसे "पैसे" की ताकत पर भरोसा और "कुतर्कों" पर अति विश्वास था । दुर्दांत सिंह को निचली अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी मगर उच्च न्यायालय ने दरियादिली दिखाते हुए उसे आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया था । बेचारी बच्ची की आत्मा भी उसी न्यायालय में उपस्थित थी मगर "आत्मा" किसी को दिखाई नहीं देती है । धरती के भगवान तो फरियादियों को भी नहीं देखते हैं । उन्हें तो केवल अपराधियों के मानव अधिकार ही दिखाई देते हैं । अपराधियों के मानव अधिकारों के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं ये भगवान । 


उस बच्ची की आत्मा रो रही थी । एक तो इस दुर्दांत सिंह ने पहले उसके साथ बलात्कार किया । फिर सबूत मिटाने के लिए उसकी हत्या भी कर दी । इस दुर्दांत अपराध पर किसकी आत्मा नहीं रोएगी ? मगर बचाव पक्ष के वकील के पास आत्मा होती ही नहीं है । अगर होती भी है तो वह पैसे के दलदल में कहीं गहरे गढ़ जाती है । उसने हर हथकंडा अपनाया पर शायद निचली अदालत के मजिस्ट्रेट की आत्मा जिन्दा थी इसलिए उसने फांसी की सजा सुना दी । फांसी की सजा सुनकर दुर्दांत सिंह की आत्मा को पहली बार कष्ट हुआ और बचाव पक्ष के वकील की आत्मा तो फुंफकार उठी थी । दुर्दांत सिंह के प्रति यह अन्याय उससे सहन नहीं हुआ और वह हाईकोर्ट चली गई । 


यहां पर धरती के छोटे भगवान बैठते हैं । ये भगवान आत्मा और शरीर के सिद्धांत को नहीं मानते । उन्होंने पूरा केस सुना और इस केस को "रेयरेस्ट ऑफ रेयर" नहीं माना । चूंकि न्याय न केवल होना चाहिए अपितु वह दिखना भी चाहिए, यह सिद्धांत बहुत प्रचलित है इसलिए दुर्दांत सिंह को बरी करने से छोटे भगवान बचना चाहते थे । उन्होंने दुर्दांत सिंह के मानवाधिकारों का ध्यान रखते हुए उसकी फांसी की सजा को "आजीवन कारावास" में बदल दिया था । इससे दुर्दांत सिंह जैसे अपराधियों को बहुत पीड़ा हुई । ऐसे कैसे सजा दे सकते हैं उसे ? उसका तो काम ही अपराध करना है और इन बच्चियों का काम अन्याय सहना है इसलिए वह धरती के सबसे बड़े भगवानों के द्वार पर आ गया । भगवानों की एक विशेषता है कि उसके दर पर जो "भक्त" आ जाते हैं , भगवान उसका "उद्धार" अवश्य करते हैं । धरती के भगवान ने दुर्दांत सिंह की याचिका सुनी । सामने सरकारी वकील था । चूंकि उसे केस जीतने और हारने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था इसलिए उसने "खानापूर्ति" करके मैदान बचाव पक्ष के वकील के लिए छोड़ दिया । बचाव पक्ष के वकील ने इस केस के लिए मोटी फीस ली थी इसलिए उसकी जिम्मेदारी बन गई थी दुर्दांत सिंह को छुड़ाने की । उसने साम, दाम, दंड, भेद हर प्रकार से जी जान लगा दी थी दुर्दांत सिंह को छुड़ाने के लिए । 


बचाव पक्ष के वकील की दलीलों से धरती के भगवान खुश हो गये । धरती के भगवान अपराधियों के मानवाधिकारों के सबसे बड़े पैरोकार थे । वे यह मानकर चलते थे कि मरने वाला तो मर गया मगर जिंदा व्यक्ति (अपराधी) का भी अपना जीवन है । उसके भी बीवी बच्चे हैं । अगर यह दुर्दांत सिंह जेल में रहा तो उनका लालन पालन कौन करेगा ? चलो एक बार यह मान भी लिया जाये कि इसने अपराध किया है पर इसे जेल के अंदर रखकर क्या इसकी बीवी बच्चों के प्रति अपराध नहीं करेंगे वे ? एक पत्नी का अधिकार है कि उसे पति का साथ मिले । बच्चों का अधिकार है कि उन्हें अपने पिता का भरपूर प्यार मिले । दुर्दांत सिंह को जेल में रखकर इन बीवी बच्चों के साथ अन्याय तो नहीं किया जा सकता है ना ? माना कि न्याय की देवी ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध रखी है पर उन्होंने तो नहीं बांधी है ना ? तो फिर वो कैसे "अन्याय" कर सकते हैं ? 


न्याय की देवी अंधी अवश्य थी मगर बहरी नहीं थी । उसे उस बच्ची की आत्मा की सिसकारियां सुनाई दे रही थीं । दुख से उसका सीना छलनी हुआ जा रहा था । उसका "जी खट्टा हो रहा था" । गीता भी एक कोने में पड़ी पड़ी सुबक रही थी । जी तो उसका भी फटा जा रहा था पर वह विवश थी । उसका काम केवल शपथ दिलवाना था न्याय करना नहीं । वह भीष्म पितामह की तरह प्रतिज्ञाबद्ध थी और अपनी सीमा को अच्छी तरह पहचानती थी । 


हथौड़ा भी इस पूरी कार्यवाही को देख सुन रहा था । बच्ची की आत्मा की पुकार सुनकर उसकी वज्र सी छाती भी फटी जा रही थी और उसका जी भी कसैला हो गया था । उसका दिल तो कर रहा था कि वह एक जोरदार प्रहार दुर्दांत सिंह पर कर दे । मगर वह भी अपनी सीमाओं से अच्छी तरह वाकिफ था । उसका काम केवल मेज पर "ठक ठक" की आवाज कर लोगों को डराने का था किसी को नुकसान पहुंचाने का नहीं इसलिए वह मन मसोस कर रह गया था । 


धरती के भगवान ने फैसला सुना दिया । "दुर्दांत सिंह का भी अपना जीवन है जिसे सम्मान पूर्वक जीने का उसे अधिकार है । उसके बीवी बच्चों से एक पति और पिता का प्यार नहीं छीना जा सकता है । आत्मा को न तो इन भगवानों ने देखा है और न उसे कभी सुना है । ऐसी हालत में इंसाफ का तकाजा है कि दुर्दांत सिंह जैसे "नेक और सज्जन" व्यक्ति को जितनी सजा मिल चुकी है वह पहले ही बहुत ज्यादा है । अत : उसे अब और जेल में नहीं रखा जा सकता है इसलिए उसे बाइज्जत बरी किया जाता है । 


यह न्याय सुनकर न्याय की देवी एक ओर लुढक गई । गीता एक कोने में दुबक गई और हथौड़ा ? उसकी अंतरात्मा जाग गई थी मगर इस न्याय से वह तार तार हो गई थी इसलिए वह फट पड़ी और हथौड़े के दो टुकड़े हो गये । 



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