अंतिम रुदन
अंतिम रुदन
जीवन और मृत्यु के सत्य से मेरा पहला परिचय लगभग उसी आयु में हुआ होगा जिस आयु में नचिकेता का हुआ था. सत्य से इस परिचय का निमित्त भी बाऊजी ही बने. हुआ यूँ कि बाऊजी और मम्मी छोटे भाई को लेकर बाज़ार गए थे और हम दोनो बहनों को पड़ौस के घर में छोड़ गए थे. मेरी अवस्था उस समय लगभग चार से पाँच वर्ष के बीच रही होगी क्योंकि विद्यालय में दाख़िला नहीं हुआ था, और मुझे वर्णों को जोड़ कर पढ़ना नहीं आता था. पर मेरी उम्र के हर बच्चे की तरह अपने आस पास की चीजों के प्रति मेरी भी स्वाभाविक जिज्ञासा थी, उसी जिज्ञासावश मैं पड़ोसी के घर में रखी एक पाठ्यपुस्तक उठा कर देखने लगी. पन्ने पलटते पलटते एक चित्र पर सहसा नज़र ठहर गयी. चित्र में आग की लपटों से घिरी एक जीवित औरत एक पुरुष के निर्जीव शरीर को अपनी गोद में लिए बैठी थी.चित्र को देख अनेकों सवाल मन में कौंध गए. यह औरत और यह पुरुष कौन हैं. औरत पुरुष को गोद में लिए आग की लपटों के बीच क्यों बैठी है. पता चला वह पड़ौसी के पुत्र सुभाष की पाठ्यपुस्तक थी , जिज्ञासावश मैंने उससे अनेक प्रश्न पूछ डाले. वो सारे प्रश्न तो आज मुझे उस रूप में याद नहीं हैं पर पड़ौसी के पुत्र सुभाष ने चित्र की व्याख्या करते हुए जो बातें बतायी बालमन पर अंकित उन बातों का सार आज भी मुझे याद है. उसने बताया था कि चित्र में जो पुरुष है वह मर चुका है, एक ना एक दिन हर इंसान मरता है,मरने के बाद मृतक को चिता पर रखकर जला दिया जाता है, स्त्री उसकी पत्नी है जो मृत पति के साथ सती हो रही है, पुरुष के मरने पर स्त्री उसके साथ जलकर सती हो जाती है. मुझे नहीं पता कि उस पाठ्यपुस्तक में चित्र का वास्तविक संदर्भ क्या था, पर आज पचास, इक्यावन वर्षों के बाद; एजुकेशन के एक प्रोफेसर के रूप में उस दिन को याद करती हूँ तो लगता है कि पाठ्यचर्या और पाठ्यपुस्तकों का बाल मनमशतिष्क पर कितना प्रभाव पड़ता है और इन्हें विकिसित करना कितना ज़िम्मेदारी भरा कार्य है. उस समय पड़ोसी का पुत्र सुभाष ही उस चित्र के प्रति मेरी जिज्ञासाओं का उत्तर देने वाला संदर्भ स्रोत था. पर उस के द्वारा बतायी गयी बातों ने उद्वेलित करने वाले और भी कई प्रश्न मेरे सामने खड़े कर दिए थे. मेरी चिंता का विषय अपनी मृत्यु का भय नहीं था. मुझे भय था बाऊजी के मरने का और माँ का उनके साथ सती हो जाने का. बाऊजी और माँ के घर आने पर हम सबने रात का खाना खाया. जिसके बाद मैंने अपने प्रश्नों का सिलसिला शुरू किया. बाऊजी उन असहज प्रश्नो से मेरा ध्यान हटाकर मुझे सुलाना चाह रहे थे. उस रात वो इस असहज मुद्दे को टालना चाहते थे. पर मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर चाहिए थे. वो चित्र बार बार मेरे स्मृति पटल पर आ आ कर मुझे उद्वेलित कर रहा था. उसका सत्य मुझे जानना था. प्रश्न मुझे क्रम से तो याद नहीं हैं पर उनके उत्तर और उन उत्तरों पर मेरी प्रतिक्रिया आज दशकों बाद भी मेरे मन मस्तिष्क पर ताज़ा है. माँ जितना संभव हो सका सच के उतने क़रीब उत्तर मुझे दे रही थी.
प्रश्न- क्या हर एक इंसान मर जाता है?
उत्तर- हाँ, एक ना एक दिन सभी को मरना है
प्रश्न-अगर सब लोग मर गए तो क्या ये दुनिया ख़ाली हो जाएगी.
उत्तर- अगर लोग मरते है तो पैदा भी होते हैं इसीलिए दुनिया कभी ख़ाली नहीं होती
प्रश्न- लोग मर कैसे जाते हैं. क्या बाऊजी भी मर जाएँगे.
उत्तर-लोगों की उम्र बढ़ती जाती है, वो बूढ़े हो जाते हैं और मर जाते हैं.
प्रश्न- इंसान बूढ़ा हो गया है ये कैसे पता चलता है.
उत्तर- जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है इंसान। बूढ़ा होता जाता है. उनके बाल सफ़ेद होने लगते हैं, और वो बूढ़े हो कर मर जाते हैं.
बाऊजी के बाल कम उम्र में ही सफ़ेद हो गए थे, मुझे लगा जब इनके सारे बाल सफ़ेद हो जाएँगे तो ये बूढ़े हो के मर जाएँगे और उनके सफ़ेद बालों को देख मैंने बिलख बिलख के रोना शुरू कर दिया. रोते रोते मैं बोले जा रही थी की मैं बाऊजी के बाल इंक से काले कर दूँगी और इन्हें मरने नहीं दूँगी. पर दिल के किसी कोने में मुझे अपनी दलीलें खोखली नज़र आ रही थी और मेरा बिलखना बढ़ता जा रहा था. मुझे याद नहीं बाऊजी ने मुझे शांत करने के लिए क्या दलीलें दीं थीं. उस रात रोते रोते मैं कब सो गयी यह भी याद नहीं. पर आज भी मुझे ये लगता है कि अपने जीवन काल में मृत्यु पर एक मनुष्य जितना रोता होगा उस रात बाऊजी की मृत्यु की कल्पना मात्र से मैं शायद उतना तो रो ही ली थी. मृत्यु जैसी अवश्यंभावी घटना पर वह शायद मेरा अंतिम रुदन था। आज जब बाऊजी का सचमुच देहावसान हो गया तो मन में बस वेदना है; वेदना को अभिव्यक्ति देने वाला रुदन नहीं है।